महर्षि दयानंद के जीवन में उदयपुर एवं जोधपुर में घटी कुछ प्रमुख घटनाएं
“ऋषि दयानन्द के जीवन में उदयपुर और जोधपुर में घटी कुछ प्रमुख घटनायें”
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भारत के इतिहास में ऋषि दयानन्द का देश के पूर्वापर महापुरुषों व साधु-सन्तों में सर्वोपरि प्रमुख स्थान है। उन्होंने देशोपकार और सामाजिक सुधार के जो कार्य किये हैं वह हमारी दृष्टि ने अन्य किसी महापुरुष ने नहीं किये। ऋषि ने वेदों का पुनरुद्धार किया है। वेदों की उत्पत्ति व रक्षा के उपायों से भी हमें अवगत कराया है। ऋषि ने देश व विश्व को वेदों का सत्यार्थ बताया व उसका प्रचार किया है। उनका एक महान उपकार यह है कि उन्होंने वेदों का प्रचार करने के लिए सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, संस्कार विधि, संस्कारविधि, व्यवहारभानु, गोकरूणानिधि आदि अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना सहित ऋग्वेद और यजुर्वेद पर सत्य, पारमार्थिक व व्यवहारिक भावार्थ से युक्त पदार्थ व वेदार्थ प्रदान किया है। ऋषि दयानन्द का एक महान कार्य यह भी है कि उन्होंने आर्यसमाज जैसी विश्व की एकमात्र यूनिक संस्था की स्थापना की जिसका उद्देश्य विश्व कल्याण वा संसार का उपकार करना है। आर्यसमाज के दस स्वर्णिम नियम भी हमें ऋषि दयानन्द की अनेक अद्भुद देनों में महत्वपूर्ण व विश्व को श्रेष्ठता की ओर ले जाने वाले प्रतीत होते हैं। ऋषि दयानन्द ने तेजी से विलुप्ती की ओर जा रही वैदिक धर्म व संस्कृति को इसके शत्रुओं के आघातों से बचाया अन्यथा हमारा धर्म एवं संस्कृति इतिहास की वस्तु बन सकती थी। ऐसे अनेक कार्य हैं जिसके लिये हम ऋषि दयानन्द के ऋणी हैं। हम उनका उपकार नहीं चुका सकते। उनके मार्ग पर देश चले यही उनके ऋण से उऋण होने का एकमात्र उपाय हमें प्रतीत होता है। देश सत्य मार्ग पर जाने के स्थान पर हमें स्वार्थ और सुविधा के मार्ग पर जाता हुआ दीखता है। विधर्मी जोश व उत्साह से अपने अविद्यायुक्त मतों का प्रचार करते हुए दीखते हैं परन्तु वैदिक धर्मी पदलिप्सा, गुटबाजी और छोटी छोटी बातों के लिये मुकदमेंबाजी में उलझे हुए हैं जिन्हें देखकर हमें दुःख होता है और हमें इन विद्वान नेताओं से दूर रहने की आवश्यकता अनुभव होती है।
महर्षि दयानन्द वेद प्रचार, धर्म प्रचार और समाज सुधार की दृष्टि से अपने जीवन में उदयपुर और जोधपुर भी गये थे। उदयपुर के राजा महाराणा सज्जन सिंह जी ने ऋषि दयानन्द का उनकी महत्ता एवं गरिमा के अनुरूप सम्मान व स्वागत किया था। आर्यसमाज हमेशा उनका ऋणी रहेगा। उदयपुर में रहते हुए ही ऋषि ने सत्यार्थप्रकाश का संशोधित संस्करण तैयार किया था जो उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित हुआ था। यदि किसी कारण ऋषि दयानन्द उदयपुर न जाते और अन्य किसी कारण से यह कार्य न कर पाते तो आर्यसमाज वैदिक साहित्य की दृष्टि उस सन्तोषजनक अवस्था में न होता जो कि वह आज है। सत्यार्थप्रकाश का संशोधित संस्करण तैयार करके ऋषि ने देश व मानव जीवन का उपकार किया ही है अपितु इससे वैदिक धर्म व संस्कृति के शत्रुओं को अपनी अविद्यायुक्त बातों व मान्यताओं के प्रचार में बाधा उत्पन्न हुई है। यह देशहित एवं मानव जीवन के सन्तोष एवं प्रसन्नता की बात है। इसके लिये उदयपुर नरेश महाराणा सज्जन सिंह जी का मरणोपरान्त भी अभिनन्दन करने का मन होता है। यह भी हमें ज्ञात है कि महाराणा सज्जन सिंह महाराज दयानन्द जी से संस्कृत व राजनीति की बातें सीखते थे और उन्हें अपने राज्य में प्रचारित एवं लागू करने का सच्चे हृदय से प्रयास भी करते थे। ऋषि दयानन्द ने अपने अन्तिम दिनों मे अपने उदयपुर प्रवास में ही अपनी समस्त भौतिक व साहित्यिक सम्पदा की उत्तराधिकारिणी परोपकारिणी सभा की स्थापना की थी। स्वामी जी ने इस नवगठित सभा का प्रधान उदयपुर नरेश राजराजेश्वर महाराणा सज्जन सिंह जी को जो उनके परमभक्त थे, बनाया था। हमें लगता है कि वह महाराणा सज्जनसिंह को ही अपना सबसे विश्वसनीय अनुयायी व योग्य उत्तराधिकारी मानते थे। हमारा अनुमान है कि उदयपुर नरेश उनके काल में उनके योग्यतम अनुयायी थे। यदि महाराणा सज्जन सिंह जी की अल्प वय में मृत्यु न हो जाती तो इससे आर्यसमाज को बहुत लाभ मिल सकता था।
जोधपुर राजस्थान वा मारवाड़ की एक बड़ी रियासत थी जहां अविद्या का प्रसार अधिक था। इसे दूर करने के लिये जोधपुर के महाराजा जयवन्त सिंह के छोटे भाई कुंवर प्रताप सिंह ने ऋषि को अपने राज्य में बुलाया था जिससे उनके राज्य की उन्नति हो। जोधपुर के महाराजा जसवन्त सिंह अपने राज्य की एक प्रसिद्ध वैश्या नन्हीं भगतन के मोह व अवांछनीय सम्बन्धों से आबद्ध थे। महाराज का यह एक बड़ा दोष था जिसकी स्वामी दयानन्द जी आलोचना करते और इस दुर्गुण में पड़े राजाओं को इसे छोड़ने का परामर्श देते थे। हमारे पुराने आर्य राजाओं मर्यादा पुरुषोत्तम राम, योगेश्वर श्री कृष्ण, महाराज युधिष्ठिर, राजा दुर्योधन, महाराज पृथिवीराज चैहान, महाराणा प्रताप आदि किसी में भी यह दोष नहीं था। भारत में यवनों के आने के बाद यह दोष हमारे राजाओं में उत्पन्न हुआ प्रतीत होता है। ऋषि दयानन्द ने अपने जोधपुर प्रवास में राजाओं के वैश्याओं के प्रति आसक्ति आदि दोषों की तीव्र आलोचना की थी। अनुमान है कि इससे राजा जसवन्तसिंह की वैश्या नन्ही भगतन रुष्ट हो गई थी और उसने ऋषि दयानन्द के विरुद्ध उनकी हत्या का षडयन्त्र रचा था। इसमें कुछ अन्य ताकते भी शामिल हो सकती हैं। इसी षडयन्त्र के परिणामस्वरूप ऋषि दयानन्द को रात्रि में उनके दुग्ध में विष मिलाकर दिया गया जिसका परिणाम 30 अक्टूबर, सन् 1883 को अजमेर में उनकी मृत्यु के रूप में सामने आया। जोधपुर में ऋषि दयानन्द की चिकित्सा में डा. अलीमर्दान ने अपने चिकित्सीय कर्तव्य का ठीक से पालन नहीं किया।
ऋषि दयानन्द को जोधपुर जाने से रोकने की प्रेरणा उनके श्रद्धावान् अनुयायी शाहपुराधीश नाहर सिंह जी और उनके कुछ अन्य शुभचिन्तकों ने की थी। उन्होंने जोधपुरवासियों के उद्दण्ड स्वभाव का उल्लेख कर उनके द्वारा स्वामी जी को हानि पहुंचने की भावी आंशका को बताकर उन्हें सावधान किया था। स्वामी जी परमेश्वर को ही अपना रक्षक मानते थे। संन्यासी के लिये शायद ऐसा करना ही उचित होता है। यदि स्वामी जी किसी कारण से जोधपुर न जाते तो इससे देश और आर्यसमाज को बहुत लाभ होता और जोधपुर में उनकी हत्या का जो षडयन्त्र हुआ वह न हो पाता। ऋषि दयानन्द को विष देने और कुछ सप्ताह बाद उनकी मृत्यृ हो जाने से सबसे बड़ी हानि तो वेदों के भाष्य के अपूर्ण रह जाने की हुई। ऋषि देश भर घूम कर लोगों को वेदों का अनुयायी बना रहे थे व आर्यसमाज की स्थापना कर रहे थे, वह कार्य भी अवरुद्ध हो गया। ऋषि दयानन्द के समय तक उनका कोई प्रभावशाली शिष्य भी नहीं बना था जो उनका उत्तराधिकारी बन कर उनके कार्य का उन्हीं की तरह से निर्वहन करता। जो भी हो, ऋषि दयानन्द के जोधपुर जाने से आर्यसमाज व देश को बहुत बड़ी हानि हुई जिसकी क्षति पूर्ति आज तक नहीं हो सकी और न भविष्य में हो सकती है।
हमने अनेक बार जोधपुर की यात्रायें की हैं और अपने जोधपुर प्रवास में जिस भवन में ऋषि ठहरे थे और जहां उन्हें विष दिया गया था, उस भवन को भी देखा है। वह भवन अब भी सुरक्षित है और आर्यसमाज के पास है। वहां पर एक भव्य यज्ञशाला, बाग, सभागार तथा अतिथियों के लिये सुविधाजनक निवास बनाये गये हैं। आर्यसमाज के शीर्ष विद्वान डा0 भवानीलाल भारतीय जी जोधपुर में ही निवास करते थे। वहां उनका अपना भव्य निवास स्थान था। वहां भी हमें जीवन में दो बार जाने का अवसर मिला है। हम इस बात का उल्लेख भी करना चाहते हैं कि स्वामी जी के जो पाचक थे वह उन्हें शाहपुरा के महाराज ने उपलब्ध कराये थे। स्वामी जी के साथ जब यह भीषण घटना घटी तो उनके पाचक व अन्य सेवकों से पूछताछ तो की जानी चाहिये थी और उन तथ्यों को आर्यसमाज के साहित्य यथा ऋषि दयानन्द की जीवनी आदि में दिया जाना चाहिये था। हमारे ध्यान में यह तथ्य नहीं आये कि जिस रात्रि को स्वामी जी को दुग्ध में विष दिया गया था वह दुग्ध देने वाला पाचक व सेवक कौन था तथा उसका क्या नाम था? स्वामी दयानन्द जी के जीवन चरित में पाचक जगन्नाथ का नाम आता है। भजन व लेखों में कहा जाता है कि उसने ऋषि दयानन्द को विष दिया था और ऋषि ने उससे विषपान की बातें जान ली थीं। उसे ऋषि ने प्रभूत धन देकर नैपाल आदि किसी दूरस्थ प्रदेश में जाने की प्रेरणा की थी जिससे ऋषि दयानन्द के अनुयायी उसके साथ उसके अपराध के अनुरूप कठोर व्यवहार न कर सके। ऋषि दयानन्द के प्रामाणिक जीवन चरित्रों में जगन्नाथ का नाम व उसके जन्म व निवास स्थान का विवरण नहीं मिलता। यह एक प्रकार से हमारे तत्कालीन ऋषिभक्तों की इन तथ्यों को जानने व संग्रहीत करने में उपेक्षा हुई प्रतीत होती है।
हमें यह भी प्रतीत होता है कि ऋषि दयानन्द की मृत्यु में एक कारण उनकी समुचित सुरक्षा व्यवस्था का न होना था। ऋषि दयानन्द ने उदयपुर के नरेश सहित कुछ अन्य स्थानों के राज्याधिकारियों को राजनीति पढ़ाई थी। सत्यार्थप्रकाश के छठे समुल्लास में भी उन्होंने राजधर्म का वर्णन किया है जहां मनुस्मृति के श्लोकों को मुख्य रूप से प्रमाण के रूप में दिया गया है। रामचन्द्र जी के साथ लक्ष्मण जी और हनुमान जी रक्षक के रूप में रहे। कृष्ण जी भी अपनी रक्षा के प्रति सजग रहते थे। उनके पास सुदर्शन चक्र था। उन्होंने अपने विरोधी शिशुपाल का शिरोच्छेद कर दिया था जब उसने उन्हें सभी सीमाओं का त्याग कर असत्य निन्दित वचन कहे थे। जीवन में कृष्ण जी ने अनेक युद्ध भी लड़े। अतः सुरक्षा की आवश्यकता तो उन सभी लोगों को होती ही है जिनका कोई प्रबल विरोधी हो सकता है। ऋषि दयानन्द के तो अधिकांश पौराणिक व मुसलिम तथा अंग्रेज भी भीतर से अप्रकट रूप से विरोधी थे। अतः उनके साथ जो हुआ वह होना शायद सम्भावित ही था। देश देशान्तर में वेद प्रचार और अविद्यायुक्त मत-मतान्तरों के खण्डन-मण्डन का जब ऋषि ने सन् 1863 वा उसके बाद निर्णय किया था तो उन्हें सम्भवतः इस बात का अनुमान रहा होगा कि उनके साथ प्राणघात की घटना घट सकती है। इससे पूर्व आदि शंकराचार्य जी के साथ भी ऐसा हो चुका था। उन्होंने ईश्वर के विश्वास के आधार पर ही अपने जीवन का एक एक क्षण व पल निर्भयता से व्यतीत किया। उनका ईश्वर विश्वास सराहनीय एवं अनुकरणीय है। अपनी मृत्यु व प्राणों का उत्सर्ग करते हुए उन्होंने कहा था कि 'हे कृपालु दयालु ईश्वर! तुने अच्छी लीला की, मेरी इच्छा पूर्ण हो।' यह कहकर उन्होंने अपने जीवन की अन्तिम श्वास ली थी। उन्होंने अपनी मृत्यु के लिये किसी को दोष नहीं दिया और न विषदाता के प्रति कुछ कहा। यह उनको महामानव बनाता है। हम उनके देशहित के कार्यों सहित वेद रक्षा, वेद प्रचार तथा समाज सुधार के कार्यों के लिये उनको अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं। हम सदैव उनके ऋणी रहेंगे। ओ३म् शम्।
आर्यसमाज के संस्थापक ऋषि दयानंद सरस्वती जिन्हें जोधपुर में दूध में विष दिया गया और सरकारी चिकित्सक डा. अलीमर्दान की उपचार में की गई लापरवाहियों से उनका देहावसान हो गया था.