आपसी फूट से भारत की अवनति
*🌷आपसी फूट 🌷*
भारत की अवनति के जहाँ और अनेक कारण हैं वहाँ एक कारण परस्पर की फूट भी है।यदि भारतीय राजाओं में,वीर क्षत्रियों में परस्पर फूट न होती तो आज भारत का मानचित्र कुछ और ही होता।आपस की फूट ने भारतवर्ष को पराधीन और परतन्त्र बना दिया।
जब तक सूर्य-चन्द्र आकाश में स्थित हैं,तब तक जयचन्द के देशद्रोह को कौन भूला सकता है?जयचन्द ने मोहम्मद गोरी के साथ मिलकर पृथ्वीराज चौहान के साथ विश्वासघात न किया होता तो क्या मुसलमान भारत में अपना पैर जमा सकते थे?हे जयचन्द ! देशद्रोह करके तुझे क्या मिला?कुछ भी तो नहीं?दूसरे ही वर्ष उसी गोरी ने जयचन्द पर आक्रमण करके कन्नौज की ईंट से ईंट बजा दी।
मानसिंह ने अपनी फूफी का विवाह अकबर के साथ कर दिया और प्रताप का साथ छोड़कर अकबर से मिल गया।इतना ही नहीं,उसने एक बहुत बड़ी सेना लेकर प्रताप के ऊपर आक्रमण भी किया।महाराणा प्रताप का छोटा भाई शक्तिसिंह भी अकबर से जा मिला।महाराणा प्रताप,शक्तिसिंह और मानसिंह तीनों मिलकर अकबर के विरुद्ध मोर्चा लेते तो अकबर को भारत से भागकर ही मुंह छिपाना पड़ता और देहली का सिंहासन राजपूतों के अधिकार में होता।
भारतीय राजाओं की फूट की तो यह अवस्था थी कि जब कोई विदेशी किसी वीर क्षत्रीय पर आक्रमण करता था तो दूसरे राजा मौन बैठे हुए तमाशा देखते थे।प्रत्येक राजा यही सोचता था कि यह आक्रमण मुझ पर थोड़े ही हो रहा है यह तो मेरे पड़ौसी पर है,जब मुझ पर शत्रु आक्रमण करेगा तब देखा जायेगा।परिणामस्वरुप एक-एक करके सभी राजा परास्त हुए।काश ! यदि वीर क्षत्रीय धर्मराज युधिष्ठिर के आदर्श को अपने समक्ष रख लेते तो हमारी यह दुर्गति न होती.
क्या था धर्मराज युधिष्ठिर का आदर्श! पाँचों पांडव द्रौपदी के साथ वनों में भ्रमण कर रहे थे।उनका समाचार जानकर और उन्हें चिढ़ाने के लिए दुर्योधन ने ठाठ-बाट से ,शाही वेश में उनके पास जाने का निश्चय किया,परन्तु मार्ग में चित्रसेन गन्धर्व द्वारा उसे बन्दी बना लिया गया।जब युधिष्ठिर को इस घटना का पता लगा तो उन्होंने भीम और अर्जुन को आदेश दिया कि जाकर दुर्योधन को मुक्त कराओ।
भीम ने कहा-"हमें क्या आवश्यकता है कि हम उसे छुड़ाने जाएँ?वह हमें चिढ़ाने आया था अब अपने किये का फल पा रहा है,उसे वहीं सड़ने दो।"तब युधिष्ठिर ने उसे समझाते हुए कहा-
*परस्परं विवादे तु वयं पञ्च शतं च ते।*
*अन्यैः सह विवादे तु वयं पञ्चशतोत्तरम्।।-(महा० वनपर्व)*
_यदि हम लोगों की आपस में लड़ाई हो तो हम पाँच हैं और वे सौ हैं,परन्तु यदि किसी दूसरे के साथ युद्ध हो तो हम एक-सौ-पाँच हैं।_
इस आदर्श को सम्मुख रखकर यदि क्षत्रीय वीर लड़े होते तो भारत को दुर्गति के ये दिन न देखने पड़ते।
परस्पर की फूट का कैसा दुष्परिणाम होता है इस विषय में _'कथा-सरिता-सागर'_ में एक बहुत ही मार्मिक घटना का उल्लेख है।-
पुत्रक नाम का एक व्यक्ति जंगल में घूम रहा था।घूमते-घूमते एक दिन उसने एक स्थान पर दो पुरुषों को लड़ते हुए देखा।पुत्रक ने उनसे लड़ने का कारण पूछा तो वे बोले-"हम मयासुर के पुत्र हैं और अपने पिता की सम्पत्ति के लिए लड़ रहे हैं।
जो हममें से विजयी होगा,वही उस सम्पत्ति का स्वामी बनेगा।"
पुत्रक ने कहा-"आखिर ऐसी कोन सी सम्पत्ति है,जिसके लिए आप एक दूसरे के प्राण लेने पर उतारु हैं।"
यह सुन उन्होंने दूर रक्खे हुए खड़ाओं के एक जोड़े,एक डण्डे और कटोरे की और संकेत किया और कहा-"यही वह सम्पत्ति है,जिसके लिए हम लड़ रहे हैं।"
पुत्रक ने कहा-"इन साधारण सी वस्तुओं के लिए लड़ना उचित नहीं है।"
तब मयासुर के पुत्रों ने बताया कि यह साधारण सम्पत्ति नहीं है।इन खड़ाओं को पहनकर मनुष्य आकाश में गमन कर सकता हझ।इस डण्ड़े पर जो कुछ लिखा जायेगा वह सत्य हो जायेगा और जिस वस्तु की इच्छा की जाए वह इस कटोरे में उपस्थित हो जाती है।
पुत्रक ने कहा-"कुछ भी हो,इनके लिए आपस में लड़ना ठीक नहीं।तुम दोनों दौड़ लगाओ ,जो तुम दोनों में से आगे निकलेगा वही जीता हुआ माना जायेगा और ये तीनों वस्तुएँ उसे ही मिल जाएँगी।"
पुत्रक की सलाह मानकर दोनों ने दौड़ना आरम्भ कर दिया।पीछे से पुत्रक खड़ाओं को पहन तथा डण्डा और कटोरा हाथ में लेकर आकाश में उड़ गया।
हमें यहाँ कहानी के सत्यासत्य के विवेचन में नहीं जाना।हमें तो केवल कहानी से मिलने वाली शिक्षा पर ध्यान देना है।इस घटना से जो शिक्षा मिलती है,उसे महर्षि दयानन्द के शब्दों में यूँ व्यक्त किया जा सकता है-
"जब आपस में भाई-भाई लड़ते हैं,तभी तीसरा विदेशी आकर पञ्च बनता है।"-
*सत्यार्थप्रकाश दशमसमुल्लासः*
राजपूत परस्पर लड़ते रहे।परिणामस्वरुप मुसलमान और ईसाई हमारे शासक बन गये।
आपस की फूट से नाश सुनिश्चित है।वेद कहता है-
*मिथो विघ्नाना उप यन्तु मृत्युम्।-(अथर्व० ६/३२/३)*
परस्पर लड़ने वाले मृत्यु का ग्रास बनते हैं,नष्ट और भ्रष्ट हो जाते हैं।
अन्त में महर्षि दयानन्द के कुछ शब्द स्मरण आ रहे हैं,जिनके लिखने का लोभ संवरण नहीं किया जा सकता:-
"आपस की फूट से कौरव-पाण्डव और यादवों का सत्यानाश हो गया सो तो हो गया,परन्तु अब तक भी वही रोग पीछे लगा है,न जाने यह भयंकर राक्षस कभी छूटेगा वा आर्यों को सब सुखों से छुड़ाकर दुःख सागर में डुबा मारेगा?उसी दुष्ट दुर्योधन ,गोत्र-हत्यारे,स्वदेशविनाशक नीच के दुष्ट मार्ग में आर्य लोग अब तक भी चलकर दुःख बढ़ा रहे हैं।परमेश्वर कृपा करे कि यह राजरोग हम आर्यों से नष्ट हो जाए।"-
*सत्यार्थप्रकाश दशमसमुल्लासः*
*[साभार: स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती, "भारत की अवनति के सात कारण" पुस्तक से]*