बाबू हरिनाम सिंह
मांडले (बर्मा) की क्रान्ति के शहीद
बाबू हरिनाम सिंह
न्याय का नाटक और कानूनी प्रक्रिया का पाखण्ड करने वाले अंग्रेज, किसी व्यक्ति को अपने रास्ते से हटाने के लिए किस निम्न स्तर तक जाते थे और निरपराधों पर अत्याचार करते थे, इसकी जानकारी हमें हरिनाम सिंह के जीवन से मिलती है |
हरिनामसिंह का जन्म जिला होशियारपुर के साहरी नामक गांव में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री लाभसिंह था। मैट्रिक कक्षा तक पंहुचते ही आप पढ़ाई छोड़कर सेना में भरती हो गये। वहां आप अपना अलग मंडल बनाकर शब्द-कीर्तन करते थे। आपके हृदय में गुलामी की पीड़ा थी। बातचीत में आप प्रायः कह दिया करते कि 'हमारा भी क्या जीवन है ! दस-ग्यारह रुपये के लिए गुलामी कर रहे हैं और विदेशी जाति को और बढ़ावा दे रहे हैं। इससे अच्छा तो भूखे रहना या मर जाना है।' आपके मित्र पूछ बैठते-'फिर क्यों नौकरी कर रहे हो? जाओ छोड़कर।' हरिनाम सिंह कहते-'मैं पैसे के लिए नौकरी नहीं कर रहा। मेरा लक्ष्य कुछ और ही है।' हाँ उनका लक्ष्य था सेना में आजादी के प्रति जागृति पैदा करना। सेना में क्रान्तिकारी बलवन्तसिंह का आप पर बहुत प्रभाव पड़ा। उनके साथ ही नौकरी छोड़कर घर आ गये। इनके और क्रान्तिकारी भागसिंह के साथ आपका अत्यधिक प्रेम था |
कुछ दिन घर रहने के बाद आप बर्मा पंहुचे। वहां से हांगकांग जाकर 'ट्राम-कम्पनी' में नौकरी कर ली। कैनेडा और अमेरिका जाने के इच्छुक बहुत-से भारतीय पहले हांगकांग पंहुचते थे। वहां से इमिग्रेशन विभाग वाले उन्हें वापस घर लौटा देते थे। तब उनके पास किराया-खाना कुछ नहीं बचता थाहरिनाम सिंह उनकी इस विपत्ति में आर्थिक सहायता करते थे।
१ दिसम्बर १९०७ को आप अमेरिका चले गये। वहां विक्टोरिया नगर में रहकर आपने धन एकत्रित किया और शिक्षा के प्रचार के लिए भारत भेजा१ जनवरी १९०८ को आप कैनेडा चले गयेवहां सीएटल शहर में रहकर एक स्कूल में पढ़ने लगे। तीन वर्ष में आपने गम्भीर अध्ययन किया। वहां आपने भारतीयों के साथ मिलकर एक 'इंडियन ट्रेडिंग कम्पनी' खोली। एक अंग्रेज को मैनेजर रख लिया। कम्पनी ने शीघ्र खूब उन्नति की। गोरों को यह उन्नति नहीं सुहाईअंग्रेजों ने उसे असफल करने के लिए अंग्रेज मैनेजर को अपने साथ मिला लिया। वह बेईमानी करके कम्पनी को असफल करने का प्रयत्न करने लगा। आपने उसको हटा दिया। अंग्रेजों की नजरों में आप खटकने लगे। गोरी सरकार आप पर झूठे आरोप लगाकर आपको जेल में डालना चाहती थी। अमेरिका में रहने वाले इनके एक अंग्रेज मित्र थे - मजिस्ट्रेट रैमिसबर्ग। वे कैनेडा जाकर आपको साथ ले आये। इस प्रकार आप बच गये।
कुछ समय बाद आप फिर कैनेडा चले गये। वहां 'दि हिन्दुस्तान' पत्र निकालना शुरू किया। उसमें आप भारत की स्थिति और आजादी की प्रेरणा पर प्रेरक लेख लिखते थे। गोरी सरकार ने आपकी कोशिशों को समाप्त करने के लिए आप पर बम बनाने, रखने, चलाना सिखाने और विद्रोह करने के आरोप लगाकर अड़तालीस घण्टे में देश छोड़ने का आदेश दिया। आपके मित्र रैमिसबर्ग ने कैनेडा सरकार को तार दिया कि 'इन्हें निर्वासन दण्ड न दिया जाये। मैं इन्हें लेने आ रहा हूँ।' और वे जाकर उन्हें ले आये। कुछ दिन बाद आपको फिर कैनेडा जाने की अनुमति मिल गयी। वहां आप वर्कले यूनिवर्सिटी में पढ़ने लगे। साथ ही लाला हरदयाल के 'गदर' समाचार पत्र की, जो अमेरिका से निकलता था, सभी प्रकार की सहायता करने लगे।
इधर दो क्रान्तिकारी भाई गुरदत्तसिंह और भाई दलीप सिंह को एक बम-केस में पकड़ लिया गया। जब कामागातामारू जहाज बन्दरगाह पर आया तो आप अपने कुछ साथियों के साथ उनसे मिलने के लिए गये तो आपको वहीं गिरफ्तार कर लिया। अन्य सभी को छोड़ दिया और आपको देशनिकाला दण्ड मिला। आप अमेरिका से भारत आने के लिए चीन, जापान होते हुए और गदर पार्टी का प्रचार करते हुए बर्मा पहुंचे। १९१५ में सिंगापुर के विद्रोह के दमन के बाद बहुत से क्रान्तिकारी नेता बर्मा पंहुच गये थे। वे वहां विद्रोह करने की तैयारी करने लगे। विद्रोह के लिए २५ दिसम्बर १९१५ का दिन तय हुआ। इसी बीच आपको मांडले में गिरफ्तार कर लिया गया। आप पर तरह-तरह के झूठे आरोप लगाये गये। अंग्रेज सरकार को बदला लेने का मौका मिल गया। न्याय का नाटक किया गया और आपको बिना किसी पर्याप्त कारण के फांसी की सजा दे दी गयी। एक बार आप मांडले जेल से भाग निकले किन्तु फिर पकड़े गये और आपको फांसी पर लटका दिया गया। हरिनामसिंह अपने लिए नहीं, देश के लिए जीये और देश के लिए ही शहीद हुए।
मरने से पहले आपने अपनी पत्नी से आग्रह कर उसका विवाह अपने छोटे भाई से करा दिया। इस प्रकार आप रूढ़िवादी नहीं, अपितु तार्किक विचारों के पक्षघर थे। आपने ऐसा कोई ऐसा कार्य नहीं किया था जिसके फलस्वरूप आप को कारावास और फांसी का दण्ड मिलता किन्तु न्याय का दम्भ भरने वाली गोरी सरकार की काली करतूतें प्रकट हुए बिना न रह सकीं।