ब्रह्मचारी की मेखला
ब्रह्मचारी की मेखला
वैदिक प्रणाली में प्रत्येक व्यक्ति को चार चिह्न धारण करने आवश्यक होते हैं-शिखा, सूत्र, मेखला और दण्ड। तीन चिह्न शरीर के साथ सम्पृक्त रहते हैं, जबकि अन्तिम चिह्न दण्ड अन्तेवासी के हाथ में रहता है। वे तीनों चिह्न क्रमश: शिर, हृदय और नाभिप्रदेश पर धारण किये जाते हैं-शिर पर शिखा, हृदय पर सूत्र और कटिप्रदेश पर मेखला। जिन तीन केन्द्रों को उसने समिधा बनाया था, आचार्य उन्हीं तीन केन्द्रों को उपरिलिखित तीन चिह्नों द्वारा अलंकृत करता है। इनको धारण कराकर ही आचार्य शिष्य को व्रत, यज्ञ, वेद आदि कर्मों का अधिकार प्रदान करता है। इनको धारण करके ही व्यक्ति उक्त कर्म कर सकता है। इनके बिना अन्तेवासी को उक्त कर्मकाण्ड का अधिकार नहीं होता। अन्तेवासी को उक्त कर्मकाण्ड ब्रह्मचर्य-सूक्त में 'आचार्य उपनयमानो ब्रह्मचारिणं कृणुते गर्भमन्तः '२ से यज्ञोपवीत का विधान प्रतिपादित है, तो 'ब्रह्मचारी समिधा मेखलया श्रमेण लोकाँस्तपसा पिपर्ति' मन्त्र से मेखला का विधान प्रतिपादित करता है। कटिप्रदेश पर बँधी हुई मेखला जहाँ अन्तेवासी की वीर्य-रक्षा में सहायक है, वहाँ उसकी कटिबद्धता की द्योतक है। मेखला बाँधकर मानो उसने अपने व्रत को पूर्ण करने के लिए कमर कस ली हो। यही संक्षेप से ब्रह्मचारी के मेखला-धारण का महत्त्व है। मेखला तो बहिन के समान ब्रह्मचारी भाई को दुरुक्तियों से बचाती है और ब्रह्मचारी के वर्ण को छान-छानकर निखारती है, तद्यथा-इयं दुरुक्तं परिबाधमाना स्वसा मेखला वर्ण पवित्रं पुनती म आगात्।' इसी श्लोक की छाया में गुरुवर्य पं० बुद्धदेवजी ने क्या ही अच्छा लिखा-
ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां निवसन्ति सदाकुले।
निश्चिन्तता, निर्भयता, नैरोग्य, रूपमाधुरी॥