ईश्वर अवतार नहीं लेता


ईश्वर अवतार नहीं लेता


      ईश्वर सब जगह व्यापक है, इसलिए वह एक स्थान पर कैसे सीमित हो सकता है। और भी, जो जन्मता है वह मरता भी है। ईश्वर न जन्म लेता है और न ही मरता है। शरीरधारो तो सुख, दुःख, भूख, प्यास, भय, काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि में फंसता रहता है। परन्तु ईश्वर तो इन सब बातों से परे है। इसलिए ईश्वर शरीरधारी नहीं हो सकता।


      प्रश्न-जो ईश्वर अवतार न लेवे तो रावण, कंस आदि का नाश कैसे हो सके?


      उत्तर-पहले तो जो जन्मा है वह अवश्य मरेगा। इस कारण से रावण और कंस आदि ने भी मर ही जाना था। दूसरी बात-ईश्वर बिना शरीर धारण किए सारे ब्रह्माण्ड को बनाता है जिसमें सूर्य, चन्द्र, तारे, पृथ्वी, पशु, पक्षी, मनुष्य, वृक्ष, वनस्पति आदि हैं। उसके सामने रावण और कंस तो चींटी के समान भी नहीं। परमात्मा सर्वव्यापक होने से उनके शरीरों में भी विद्यमान थाः जब चाहे अन्दर से ही हृदय फेल करके मार सकता है।


      श्री राम तथा श्री कृष्ण महान पुरुष थे। वे ईश्वर न थे और न ही ईश्वर के अवतार थे। वे ईश्वर भक्त थे। श्री राम तथा श्री कृष्ण भी अन्य पुरुषों की तरह ही अपने माता-पिता से पैदा हुए थे। उनके भी भाई थे, उनके भी मित्र और शत्रु थेउन्होंने भी कार्य किए। उन्होंने भी सुख-दुःख झेले। वे विद्वान् थे, बलवान् थे, नीतिवान थे। वे सत्य और न्यायप्रिय थे, वे परोपकारी थे। उनके जीवन से कुछ अच्छी बातें लेकर हम अपने जीवन में अपना लें, यह उनकी पूजा होगी।


      भगवान शब्द उसी प्रकार सम्मान सूचक है जिस प्रकार श्री और श्रीमान हैं। यहां वाल्मीकि रामायण तथा महाभारत से उदाहरण दिए जाते हैं जिनसे स्पष्ट हो जाता है कि श्री राम तथा श्री कृष्ण मनुष्य थे, ईश्वर नहीं थे।


न मद्विधो दुष्कृत कर्मकारी मन्ये द्वितीयोऽस्ति वसुन्धरायाम्


शोकेनं शोको हि परम्पराया मामेति भिन्दन् हृदयं मनश्च॥


(वाल्मीकि रामायण)


      अर्थ-(सीता हरण के बाद श्री राम लक्ष्मण से कहते हैं) मैं समझता हूँ कि इस भूमण्डल पर मेरे समान दुष्कर्म करने वाला और कोई नहीं है क्योंकि शोक पर शोक मेरे हृदय और मन को भेदने को प्राप्त हो रहे हैं।


पूर्वं मया नूनमभीप्सितानि पापानि कर्माणि असकृत्कृतानि।


तत्र अयमद्यापतितो विपाको दुखेन दुखं यदहं विशामि॥


(वाल्मीकि रामायण)


     अर्थ-(श्री राम लक्ष्मण से) पूर्व जन्म में मैंने निश्चय ही घोर पाप किए हैं और बहुत वार किए हैं। उन्हीं पापों का फल आज मुझे प्राप्त हो रहा है और मेरे ऊपर दुःख के ऊपर दुःख आ रहे हैं।


वयं चैव महाराज जरासन्धभयात् तदा।


   मथुरां परित्यज्य गता द्वारावर्ती पुरीम्॥


(महाभारत, सभापर्व)


      अर्थ-(श्री कृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा) महाराज ! जरासंध के भय के कारण हम मथुरा छोड़कर द्वारिका चले गए।


न स्म मृत्युं वयं विद्म रात्रौ वा यदि वा दिवा।


न चापि कश्चिदमर युद्धेनानुशुश्रुम्॥


(महाभारत सभापर्व)


       अर्थ-(श्री कृष्ण ने कहा) हम यह नहीं जानते कि मृत्यु कब आएगी, रात में आएगी या दिन में आएगी। हमने यह नहीं सुना कि युद्ध न करके कोई अमर हुआ हो।


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