गुरु धारण करना चाहिये या नहीं
गुरु धारण करना चाहिये या नहीं
सांख्य दर्शन में लिखा है-ऋते ज्ञानात् न मुक्ति।
अर्थ-ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं मिल सकती और मुक्ति कहते हैं दु:खों से छूटने को।
ज्ञान किसे कहते हैं ? सभी पदार्थों के गुणों की सही जानकारी होना तथा उनसे ठीक-ठीक उपकार लेना ही ज्ञान है। ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव को जान लेना, ईश्वर की भक्ति का सही स्वरूप जानकर उसे अपनाना, अपनी आत्मा को जानना तथा सभी प्राणियों में अपने जैसी आत्मा जानकर उनसे वैसा ही व्यवहार करना, संसार के सभी पदार्थों का ठीक-ठीक उपभोग करना यह ज्ञान है।
ज्ञान प्राप्त करने के लिए वेद, शास्त्र, मनुस्मृति, उपनिषद् आदि उत्तम ग्रन्थ पढ़ना, उन पर चिन्तन-मनन करना, उन्हें समझना तथा अपने जीवन में उन्हें अपनाना परम आवश्यक है।अन्धेरे में रस्सी को सांप समझा जा सकता हैपरन्तु सूर्य की रोशनी में वह सन्देह नहीं रहता। इसी प्रकार ज्ञान प्राप्त होने पर सही और गलत का भेद स्पष्ट दिखाई देने लग जाता है। सत्य-असत्य, न्याय-अन्याय, पाप-पुण्य और धर्म-अधर्म का पता लग जाता है। यह भेद जानकर मनुष्य गलत को छोड़ने और सही को अपनाने में लग सकता है। यही दुखों से छूटने का एक मात्र रास्ता है ।
विद्यार्थी स्कलों और कालिजों में ज्ञान प्राप्त करते हैं। वे भाषा, ज्ञान, इतिहास भूगोल, विज्ञान, गणित आदि का ज्ञान ग्रहण करते हैं। ऐसे ही वेद आदि शास्त्रों का भी ज्ञान प्राप्त किया जाना चाहियेकिसी आचार्य से या स्वयं प्रयास करके।
दूसरी बात-ईश्वर तक पहुँचने के लिए किसी दलाल, वकील, पीर, पैगम्बर अवतार या गुरु की आवश्यकता नहीं है। ईश्वर सभी प्राणियों के अन्दर बसा हआ है। वह सभी के उतना ही समीप है। आत्मा के द्वारा ही ईश्वर को जाना जा सकता है क्योंकि ईश्वर आत्मा में विद्यमान है। आत्मा और परमात्मा के बीच में और कुछ नहीं है। मनुष्य अपने ज्ञान से तथा मन की पवित्रता से ही ईश्वर को जानता है। ईश्वर किसी की सिफारिश नहीं मानताईश्वर किसी एक को अपना दूत बनाके भेजे तो वह पक्षपाती बनता है। वह तो सभी के लिए एक समान है।
आज कल जो सैकड़ों गुरु बने हुए हैं वे तो केवल धन दौलत लूटने के लिए अपनी ऐशो इशरत के लिए तथा मान सम्मान के लिए चेला चेली बनाते हैं। ये गुरु ज्ञान की बजाय अज्ञान फैलाते हैं। ईश्वर के स्थान पर अपनी पूजा करवाते हैंवेद आदि उत्तम ग्रन्थों की बजाय अपनी स्वार्थ पूर्ण घटिया पुस्तकें पढ़ने को देते हैं। तथा अपनी तस्वीरें देते हैं। अपने चेले चेलियों को अन्धविश्वासी बना देते हैं ऐसे कि जो गुरु कहे वह सब सत्य और कोई जो कहे वह सब झूठ। गुरु का झूठा खाने में गौरव मानते हैं। धूर्त गुरु मूों को अपने चेले बनाते हैं। ये चेले गुरु के पीछे ऐसे लगते हैं कि अपनी ज्ञान की आँखें बन्द कर लेते है। यह स्थिति दुःखों से छुटने की नहीं है “अपितु घोर अन्धकार, अज्ञान तथा दु:खों में गिराने की है। इसलिए ऐसे गुरु, चेला बनना बहुत बुरा काम है। दु:खों से छूटना या मुक्ति पाना कोई आसान काम नहीं हैयह ऐसा नहीं है कि गुरु ने फूंक मारी और सभी दु:ख उड़ गए। समझदार लोगों को धूर्त बने गुरुओं के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिये।
आज कल के एक तथाकथित गुरु की अपनी लिखी पुस्तक में से-
"गुरु को दक्षिणा देनी ही चाहिये। न्याय से उपार्जित अपने संचित धन का आधा भाग या चौथाई अथवा यथाशक्ति से कुछ भी हो सके भक्ति पूर्वक गुरु को अपण करे। धन होते हुए अभाव नहीं दिखाना चाहिये। जो लोग वित्त शाठ्य करते हैं, धन रहने पर भी 'देना पड़ेगा' ऐसी लोभवृत्ति से गुरु को अभाव दिखाते हैं और अपने धर्म कर्म तथा अपने मन के वास्तविक भावों को गुरु से छिपाते हैं उनका अनर्थ ही होता हैइसलिए अपनी शक्ति के अनुसार गुरु को गौ, भूमि, सुवर्ण, वस्त्र आदि निवेदन करना चाहिये और गुरु के पुत्र को तथा गुरु की धर्मपत्नी को भी वस्त्र, आभूषण निज शक्ति के अनुसार देना चाहिए। यदि गुरु के स्त्री, पुत्र न हों तो उनके प्रधान शिष्य को देना चाहिए और दीक्षा के दिन सबको यथा रुचि मिष्ठान भोजन कराना चाहिए।"
अपने हजारों चेलों से उनकी कमाई का आधा आधा भाग लेकर गुरु जी स्वयं तो धनाढ्य हो जाएं और चेले बेचारे गरीब हो जाएं। अपने लिए ही नहीं गुरुजी ने तो अपने पीछे अपने बेटे तथा अपनी पत्नी के लिए भी मांग लिया है। अगर न दो तो अनर्थ बता कर डरा दिया। इसे सरे आम डाका न कहें तो और क्या कहें. ? काश ! ये चेले ऐसी धूर्तता को समझ लेते और इन ठग गुरुओं को मुँह न लगाते।