हम हिंसा और पाप के लिए प्रार्थना न करें
हम हिंसा और पाप के लिए प्रार्थना न करें
न त्वा रासीयाभिशस्तये वसो न पापत्वाय सन्त्य।
न मै स्तोतामतीवा न दुर्हितः स्यादने न पापा॥
ऋषिः-सोभरिः काण्वः॥ देवता-अग्निः ॥ छन्दः-आर्चीस्वराट्पङ्किः॥
विनय - हे जगत् को बसानेवाले! वसो! मैं कभी तुमसे दूसरों के विनाश के लिए प्रार्थना न करूँ, और हे सन्त्य ! संभजनीय! मैं कभी दूसरों के प्रति किसी अन्य पाप लिए भी तुम्हारा संभजन न करूँमैं तुम्हें कभी इसलिए हविः प्रदान न करूँ कि उससे किसी दूसरे की हिंसा हो या कोई अन्य पाप होवे। हे बसानेवाले ! तुमसे विनाश की प्रार्थना करना, हे सन्त्य ! तुमसे पाप की चाहना करना, यह कितनी उलटी बात है ! परन्तु हम अज्ञानी लोग मोहवश बहुत बार तुमसे ऐसी प्रार्थनाएँ भी करते हैं। हम तो मारण-उच्चाटन-अभिचरण तक में तुमसे सफलता चाहा करते हैं, परन्तु शायद इसीलिए हम संसार में ठगे जाते हैंहमें ऐसे स्तोता या प्रशंसक मिलते हैं जो अन्दर से हमारा अनिष्ट चाहते हैं, पर ऊपर स्तुति करते हैं। हे अग्ने! मैं तो चाहता हूँ कि मेरी स्तुति कभी कोई मूर्ख पुरुष न करमेरे लिए दुर्भाव और अहित रखनेवाला कभी मेरा स्तोता व प्रशंसक न बने, पाप-बुद्धिवाला कभी मेरी खुशामद न करे। 'मैं कैसा हूँ' इसकी बड़ी अच्छी पहचान यह है कि मेरे प्रश कैसे हैं, अतः मैं जहाँ यह चाहता हूँ कि नासमझ और दुर्हदय पुरुषों की स्तुति मुझ प्राप्त न हो, वहाँ मैं आपसे वह बल और ज्ञानप्रकाश भी पाना चाहता हूँ जिसस कभी हिंसा व पाप की प्रार्थना न कर सकूँ। हे प्रभो! मैं तुमसे पवित्र ही प्राथना मुझे मनुष्यों की पवित्र ही स्तुति प्राप्त हो।
शब्दार्थ-वसो = हे जगत के बसानेवाले! मैं रासीय = तेरी स्तुति-प्रार्थना कभी न करूँ, कभी हविप्रदान न करूँ और पापत्वाय = पाप के लिए भी मैं कभी तेरी प्रार्थना न करूँ. स्तोता = मेरा प्रशंसक कभी अमतीवा = निर्बुद्धि, मूर्ख पुरुष न दुर्हितः = दुष्कामना रखनेवाला पुरुष न = न होवे और पापया = पाप-बुद्धि से