कुमार ब्रह्मचारी की भिक्षा


कुमार ब्रह्मचारी की भिक्षा


      अब समय आता है कि कुमार अपने ही हाथों से ग्रास बना मुख में डालने लगता है। ग्रास बनाने लिए उसकी झोली अथवा भिक्षापात्र में केवल उसकी माता ही नहीं, अन्य गृह-देवियाँ भी भोजन, ग्रास डालती हैं। महर्षि दयानन्द ने कुमार ब्रह्मचारी के उपनयनअवसर पर भिक्षा माँगना लिखा है कि कुमार ब्रह्मचारी अपनी माता-मौसी इत्यादि सम्बन्धियों से भिक्षा लेना आरम्भ करे, उनसे कि जो देने में निषेध न करें। उससे लाभ ही हो, अलाभ नहीं। भगवान् पाणिनि मुनि लिखा-भिक्षायाम् अलाभे लाभे वा। उपनयन संस्कार-वर्णित भिक्षा-आदेश में उसे लाभ हो, अलाभ नहीं, इसलिए वह बंधु-बांधवों से माँगता है, अन्यों से नहीं। जैसे-जैसे कुमार यौवन की ओर बढ़ता है वैसे ही वैसे सर्वत्र भिक्षा की पुकार मचाता है और इसका अभ्यास करता है-लाभ हो या अलाभ हो, दोनों में सम रहना। भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने कहा भी है--लाभालाभौ जयाजयौ


      इस प्रकार समत्व का अभ्यास करता है; कहा भी है-समत्वं योग उच्यते। अपने-पराये का भेद समाप्त, निर्धन-धनी का भेद समाप्त, ब्राह्मण-शूद्र का भेद समाप्त, रंगभेद समाप्त। ऐसा व्यक्ति सीधा ही संन्यास का अधिकारी हो जाता है। इसकी विशेष व्याख्या हमारे लिखे ग्रन्थ 'गुरुकुल शतकम्' के उत्तररूप अन्तेवासी प्रकरण में देखें।


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