मूर्तिपूजा ईश्वर की पूजा नहीं है
मूर्तिपूजा ईश्वर की पूजा नहीं है
सोना, चांदी, लोहा, लकड़ी पत्थर या मिट्टी की मूर्ति बनाकर उसे पूजना, उस पर फल, फूल, मिठाई आदि चढ़ाना, उसके आगे नाचना, गाना, उससे भीख मांगना, उसके आगे प्रार्थना करना, घण्टी घड़ियाल बजाना, उसे कपड़े गहने पहनाना आदि क्रियाएं व्यर्थ हैं। वह जड़ मूर्ति ये सब नहीं जानती।
यह ईश्वर पूजा भी नहीं है। ईश्वर तो सर्वत्र व्यापक होने से फल, वस्त्र आदि में भी विद्यमान है। और ईश्वर की पूजा मनुष्य की तरह नहीं हो सकती। ईश्वर की कोई शक्ल सूरत नहीं है। इसलिए उसकी मूर्ति नहीं बन सकती
ईश्वर के बनाए इस विचित्र ब्रह्माण्ड को देखकर उसके अद्भुत गुणों का मन में चिन्तन करना चाहिए। सूर्य, चन्द्र, तारे, पृथिवी आदि सभी ईश्वर ने बनाए हैं। ऐसे महान् परमेश्वर की महत्ता का विचार करना चाहिये।
मूर्तिपूजा करने वालों ने सब व्यवस्था उलट दी है। ईश्वर ने इन्हें बनाया, इन्होंने ईश्वर को घड़ दिया। ईश्वर सब जगह व्यापक है, इन्होंने उसे एक स्थान पर सीमित कर दिया। ईश्वर आजाद है, इन्होंने उसे मन्दिर में कैद कर दियाईश्वर सबका रक्षक है, इन्होंने उसे अपनी रक्षा का भी मोहताज बना दिया। ईश्वर सबको खिलाता है, ये उसे ही खिलाने का ढोंग करते हैं।
मनुष्यों के सबसे अधिक नजदीक जो वस्तु है वह है ईश्वर क्योंकि वह हमारे हृदय में बसा हुआ है। इसलिए उसे बाहर ढूँढना व्यर्थ है
पसल हमने ईश्वर पूजा का मजाक बनाया। अत: आज सब जगह हमारा मजाक हो रहा हैसत्य, न्याय, परोपकार आदि शुभ कर्मों को हमने छोड़ दिया और निरर्थक मूर्तिपूजा में फंस गए। यह हमारा अत्यन्त दुर्भाग्य है।
आदि गुरु शंकराचार्य मूर्तिपूजा के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने 'परापूजा' नामक अपनी पुस्तक में बड़े तर्क पूर्ण ढंग से मूर्तिपूजा को गलत सिद्ध किया है। गुरु नानक देव, कबीर, दादू, समर्थ गुरु रामदास आदि सन्तों ने मूर्तिपूजा का जोरदार खण्डन किया है। वेद, शास्त्र, उपनिषद् मनुस्मृति आदि किसी भी वैदिक ग्रन्थ में मूर्तिपूजा का विधान नहीं है। इस युग के महानतम वैदिक विद्वान् तथा समाज सुधारक महर्षि दयानन्द ने तो मूर्तिपूजा को आर्यों (हिन्दुओं) के पतन का सबसे बड़ा कारण बताया है
तीर्थेषु पशु यज्ञेषु काष्ठे पाषाण-मृण्मये।
प्रतिमायां मनो येषां ते नरा मुढचेतसः॥
(आदि गुरु शंकराचार्य, 'परापूजा' में)
अर्थ-तीर्थों में, ऐसे यज्ञों में जिनमें पशु बलि दी जाती है और लकड़ी, पत्थर, मिट्टी की मूर्ति में जिनका मन है, वे मनुष्य मूढ मति वाले हैं।
स्वगृहे पायसं त्यक्त्वा भिक्षामृच्छति दुर्मतिः।
शिलामत् दारु चित्रेषु देवता बुद्धि कल्पिता॥
(आदि गुरु शंकराचार्य, 'परापूजा' में)
अर्थ-अपने घर की खीर को छोड़कर मूर्ख मनुष्य भीख मांगता फिरता है। पत्थर, मिट्टी और लकड़ी में देवताओं की कल्पना करता है। अपने अन्दर परमात्मा घर में खीर समान है तथा मूर्तिपूजा भीख समान है।
प्रकृति पूजा क्या है ? प्रकृति.जड़ है और जड़ पदार्थ से ठीक उपयोग लेना ही उसकी सही पूजा है। आग को चाहे सौ साल तक हाथ जोड़ते रहो, पर उसमें हाथ डालने पर. वह जला ही देगी। यह नहीं देखेगी कि यह मेरा पुजारी है।
जो व्यक्ति तैरना नहीं जानता यदि वह गंगा में कूद पड़े तो गंगा उसे डुबा देगीवह यह नहीं देखेगी कि यह मेरा पुजारी है और मेरा नाम जपता है। दूसरी तरफ कोई कसाई पशुओं का वध करके आया हो और खून से भरा हो वह गंगा मैया नहीं कहता, पर तैरना जानता है गंगा में घुस जाता है। गंगा उसका कुछ न बिगाड़ेगी, अपितु उसका शरीर शुद्ध करेगी तथा उसे तैराकी का आनन्द भी देगी |