समावर्तन संस्कार
समावर्तन संस्कार
महर्षि दयानन्द जी ने जिन सोलह संस्कार करने का उपदेश अपने अमर ग्रन्थ संस्कार विधि में दिया है, उनमें से गयारह संस्कार एक के बाद एक करते हुए केवल आठ वर्ष की आयु में ही सम्पन्न हो जाते हैंमानव इस आठ वर्षीय आयु तक ही नवीन संस्कार तेजी से ग्रहण करने की शक्ति रखता है, इस कारण एक के बाद एक आठ वर्ष की आयु तक निरन्तर संस्कारी वातावरण में ही रहता है तथा मात्र आठ वर्ष में गयारह संस्कार पूर्ण हो जाते हैं । वेदारम्भ संस्कार के पश्चात् एक लम्बा विराम दिया जाता है ताकि वह अब वैचारिक संस्कारों के स्थान पर शैक्षिक विचार प्राप्त करने के लिए तपस्वी का जीवन व्यतीत करे। शिक्षा प्राप्ति के लिए उसे लम्बा समय लगाना होता हैमहर्षि ने इसे कम से कम चोदह वर्ष लिखा है। अतः वेदारम्भ संस्कार के पश्चात् जो आगामी संस्कार आता है वह कम से कम चौदह वर्ष के पश्चात् आता है। यदि कोई इससे आगे भी शिक्षा चाहे तो छतीस वर्ष व इससे आगे भी शिक्षा प्राप्त करना चाहे तो इसके लिए अडतीस वर्ष की आयु इस संस्कार के लिए लिखी है ,किन्तु सामान्यतया यह संस्कार बाइस वर्ष की आयु में ही होता है। जिस प्रकार उपनयन व वेदारम्भ संस्कार एक दूसरे के पूरक हैं, उसी प्रकार समावर्तन संस्कार तथा विवाह संस्कार भी एक दूसरे के पूरक हैं|
जिस प्रकार गुरुकुल भेजने से पूर्व उपनयन संस्कार के अवसर पर पिता अपनी सन्तान को कठोर जीवन यापन करते हुए, गुरू आझ में विद्यार्जन के लिए लम्बा उपदेश देता है। इसी प्रकार शिक्षा पूर्ण का अपने पितृ गृह में लौटने वाले बालक को , जिसने जाकर गृहस्थ क जीवन व्यतीत करना होता है, आचार्य एक दीक्षान्त उपदेश देता है। इस उपदेश में जीवन की आगामी योजना बताई जाती है। इसे ही समाव न संस्कार के रूप में जाना जाता है |
___प्रथम उपदेश होता है कि भावी जीवन में कई प्रकारकी कठिनाइ व लोभ दिये जायेंगे किन्तु तूं ने कभी भी सत्य का पल्ला नहीं छोडन अन्त में सत्य ही विजयी होता है। सदा धर्म पर आचरण करना । ध पर आचरण करने वाला सभी संकटों को बडी सरलता से पारक लेता है। स्वाध्याय में कभी प्रमाद मत करना । स्वाध्याय से तेरी विछ की धाक जमी रहेगी तथा अपने किये कार्यों का अध्ययन करने से अप कमियों को दूर करने में सहायता मिलेगीतूं जिस प्रकार आचार्य व में आया था तथा शिक्षा प्राप्त कर जा रहा है , उसी प्रकार जाव सन्तान तैयार कर उसे भी शिक्षार्थ आचार्य कुल में भेज कर डास । की वृद्धि करना । यही ही आचार्य को दिया जाने वाला प्रिय धन है। व धर्म पर स्थित रहते हुए इसे बढाने में कभी प्रमाद मत करना - स्वाध्याय करते रहना तथा इसे प्रवचन द्वारा दूसरों में बांटते ही प्राप्त करना । अपने से ज्ञान में बडों ( देवों), अपने से आय में पितर), उनके अनुभव तुम्हारे से अधिक होने के कारण, उनके चलना. उनका आदर करना। अपने माता का आदर करना गुरु जनों का आदर करना तथा जो अतिथि घर में ना. जो माननीय हों या सर्वहित के हो । बुरे आदेशों को मत मानना यहां तक कि मेरी कही कोई बात अनुचित हो तो उसे भी मत माननासदा श्रेष्ठ लोगों के पास बैठना व उनका अनुगमन करना । तू अपने धन को श्रद्धा पूर्वक दान दे। यदि किसी को उत्तम नहीं मानता तो उसे बिना श्रद्धा के भी देकल को कोई चोर तेरे संचित धन को चोरी न कर ले , इस भय से भी दान कर। अतः अपने संचित धन का कुछ भाग अवश्य दान कर। जब किसी कर्म में सन्देह हो तथा उसके धर्माचरण होने का निर्णय न हो रहा हो तो आत्मा की आवाज से इसका निर्णय करना । यही मेरा उपदेश है। यही मेरा सन्देश है तथा यही वेदों व उपनिषद् आदि का सार है। इसे सदा अपने जीवन में धारण करना।
इतना सुन्दर विदाई सन्देश केवल वैदिक संस्कृति में ही सम्भव है। अन्यत्र नहीं इस प्रकार का उपदेश देने के पश्चात् गुरू ने जो वेदारम्भ के समय कटि में बांधने को मेखला दी थी , जो आत्म रक्षार्थ दण्ड दिया था , उसकी भी अब आवश्यकता भावी जीवन में नहीं होती , इस कारण वह भी इस समय आचार्य उससे वापिस लौटा लेते हैं तथा कहते हैं कि अब ब्रह्मचर्य को भी अपनी इच्छानुसार छोड क्र गृहस्थार्थ विवाह कर सकते हो |