संन्यासी की भिक्षा
संन्यासी की भिक्षा
आश्रम-व्यवस्था में यह एक विशेष बात है कि तीन आश्रमी भिक्षा माँगते हैं और एक गृहस्थ-आश्रमी भिक्षा देता है। इस देन-लेन का नाम ही यज्ञ है। पञ्च महायज्ञों में पितृ यज्ञ, अतिथि यज्ञ और बलिवैश्वदेव यज्ञ, तीनों ही महायज्ञ गृहस्थ के आश्रित हैं। भगवान् मनु ने कहा भी है-यथा वायुं समाश्रित्य वर्तन्ते सर्वजन्तवः। गृहस्थ को देने का अभ्यास बना रहे इसलिए उसमें देने की प्रवृत्ति जगाने के अर्थ उसके पिता और पुत्र को भिक्षुक बना दिया गया। भिक्षुकों की टोली में मनु की मर्यादानुसार सभी गृहस्थों के पिता और पत्र सामने दिखाई देते हैं। इसमें लाभ ही लाभ है, भलाभ का प्रश्न ही नहींफिर संन्यासी तो सर्वोपरि शिक्षक है और उसकी माँग बहुत थोड़ी है-केवल आठ ग्रासवे तो एक घर से ही पूर्ण हो गएपता नहीं इस ग्रह का कब नम्बर आए, अतिथि जो ठहरा! सतत गमनशील है। पता नहीं इस घर पर आने की तिथि कब आए। वह तो मूर्त-यज्ञ बनकर घूम रहा है। अब वह आहुति नहीं देतागृहाश्रमी उस मूर्त-यज्ञ को सामने देख अपना सौभाग्य जान आहुति डालते हैं और वह भी ली हई आहति को शत-गणित अथवा सहस्त्रगणित करके लौटा डालता है। उनके कल्याणार्थ विचरता हुआ उनके श्रोत्र-भिक्षापात्र में उपदेशामृत डालता रहता है जिससे उनकी पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय समस्याओं का समाधान होता है। समाधि-माता की कुक्षि से तृतीय जन्म प्राप्त संन्यासी समाधान करता हुआ यत्र-तत्र विचरता है । गृहाश्रमी तो वानप्रस्थ और ब्रह्मचर्य आश्रम से दीक्षित भिक्षुओं को रक्त के सम्बन्ध से दे रहे थे. परन्त संन्यासी को मानवता के सम्बन्ध से देना सीख रहे हैंजब उनके गृह पर कौआ, कुत्ता, कोढ़ी आकर भिक्षा माँगते हैं तो गृहाश्रमी आत्मा के रिश्ते से देता हैएक प्रकार से वे भी समत्व योग का अभ्यास कर रहे हैं। भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है-विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि। शनि चैव श्वपाके च पाण्डताः समदर्शिनः॥ विद्या और विनय से सम्पन्न ब्राह्मण हो, गौ हो. हाथी हो. कत्ता हो. यहाँ तक कि कुत्ते का मांस खानेवाला ही क्यों न हो, पण्डित लोग सबमें सम-दृष्टि रखते हैं। इस प्रकार गृहस्थ दाता और ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और संन्यास गृहीता दोनों ही समत्वयोग का अभ्यास करते हैं। सब ओर एक ही उद्घोष है-वसुधैव कुटुम्बकम्। अथवा सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग् भवेत्॥ यही विश्व-शान्ति का मूल है। हम अपने प्राक्कथन को समाप्त करते हैं। इसके विधिभाग की व्याख्या संन्यास संस्कार-विधि में करेंगे। अलमति विस्तरेण बुद्धिमद्वर्येषु।