सत्संग-प्रभाव
सत्संग-प्रभाव
जो सत्संग नौका चढ़ि गये, वे भव सिन्धु उतरि गये।
न जाने कितने डाकू अंगुलिमाल, वाल्मीकि और कामान्ध तुलसीदासों को ऋषि, महर्षि और सन्त बनाने का श्रेय सत्संगति' को ही है।
एक साधारण अनपढ़ व्यक्ति को अपनी पत्नी विद्योत्तमा की सत्संगति से महाकवि कालिदास के रुप में हम देखते हैं तो एक वेश्या प्रेमी गवैये को ऋषि दयानन्द की कृपा से भक्त अमीचन्द के रुप में हम पाते हैं। कविवर प्रकाश जी ने कितना सही लिखा गृहस्थ के लिये पवित्र वेद का उपदेश है-
शतं हस्त समाहर सहस्र हस्त संकिर।
अर्थात् यदि तुम्हारे धनोपार्जन के सौ स्रोत हैं तो का हजार माध्यम हों। पवित्र वेदों में अन्य अनेक स्थलों पर धर्मशास्त्रों में अत्यधिक विस्तार से दान का महत्व वर्णित गया है।
अदानी (अरातयः) को वेद सबसे बड़ा पापी मानता। वैदिक भक्त विनय करता है- 'मान्तः स्थुर्नो अरातयः' (ऋग्वेद प्रभो हमारे अन्तर में अदान-शीलता (अनुदारता) न रहे |
निम्न मन्त्र में (जिसका पाठ वैदिक जन भोजन समाप्ति का करते हैं।) कैसा सुन्दर और हृदयग्राही सन्देश है-
ओं मोघमन्नं विन्दते अप्रचेताः सत्यं ब्रवीमि वध इत्स सत्य |
अर्यमणं पुष्यति नो सखायं केवलाघो भवति केवलादी॥
अर्थात् मूढ़ अज्ञानी तो अन्न को व्यर्थ पाता है। सच कहतहूँ वह तो उसका घातक ही होता है क्योंकि वह न तो राजा क पालन करता है और न बन्धु का। सच तो यह है कि अकेला खाने वाला केवल पापमय होता है।
दानशीलता के पीछे मुख्य भावना यह है कि हम मिल बाँद कर खायें। संसार को स्वर्ग बनाने का यह कैसा स्वर्णिम सूत्र हैकम्यूनिज्म के सर्वनाशी चक्र के विनाश का यह अमोल अस्त्र हैयाज्ञिक गृहस्थ प्रभु चरणों में विनय करता है-
बरतूं जगत् में जलद सा जीवन कसैं सबका हरा।
फूलें-फलें हिल-मिल रहें बन स्वर्ग जाये यह धरा॥
यह कार कामना पूरी करूँ हे ईश ! यह वरदान दो।
जग को बनायूँ मैं सुखी ऐसा मुझे सद्ज्ञान दो॥
दान धर्म के आदर्श के रूप में हमने प्रातः स्मरणीय सत्यवादी हरिश्चन्द्र , महर्षि दधीचि, दानवीर कर्ण और मेवाड विभूति भामाशाह का नाम तो सुना ही है पर देव दयानन्द का दान इन सबसे अद्भुत था चूँकि उन्होंने मानव कल्याण के लिये ब्रम्हानन्द (१८ घण्टे के समाधि सुख) का दान दे डाला |
अन्त में सम्राट हर्ष के सर्वमेध यज्ञ से भी अधिक हृदयग्राही क झाँकी देखिये। महाकवि माघ सब कुछ दान कर चुके हैंठीक समय एक दीन ब्राह्मण अपनी पुत्री के कन्यादान के लिये नार्थ उपस्थित होता हैदान धर्म के व्रती कवि का अन्तर व्यथित हो उठता हैएक सत्पात्र याचक को वह निराश कैसे लौटायें ? तभी उनकी दृष्टि पत्नी की ओर जाती है, वह सो रही है। कवि धीरे से ज्योंही पत्नी के एक हाथ का कंगन ब्राह्मण को देने लगे, कवि पत्नी निद्रा से जागकर पति के अन्तस्थ भाव को पहिचान कर कहती है-'देव ! यह अधूरा दान क्यों ? यह कहते-कहते वह दूसरे हाथ का कंगन भी ब्राह्मण को दे देती है ? वैदिक नारी ही स्व-पति के व्रतानुष्ठान की पूर्ति के लिये यह उत्सर्ग कर सकती हैधन्य !!
यह दानशीलता, यह उदारता वैदिक स्वर्ग की सबसे बड़ी शोभा है |