शिक्षा कैसी करे
प्र.) क्या जैसी चाहें वैसी शिक्षा करें?
उ.) नहीं, जो अपने पुत्र, पुत्री और विद्यार्थियों को सुनावें कि सनी वेटे-बेटियाँ और विद्यार्थी! तेरा शीघ्र विवाह करेंगे, तू इसकी दाढ़ी मूंछ पकड़ ले, इसकी जटा पकड़ के ओढ़नी फेंक दे, धौल मार, गाली दे, इसका कपडा छीन ले, पगड़ी वा टोपी फेंक दे, खेल-कूद हँस, रो, तुम्हारे विवाह में फलवारी निकालेंगे इत्यादि कुशिक्षा करते हैं, उनको माता-पिता और आचार्य न समझना चाहिये किन्तु सन्तान और शिष्यों के पक्के शत्रु और दुःखदायक हैं। क्योंकि जो बुरी चेष्टा देखकर लड़कों को न घुड़कते और न दण्ड देते हैंवे क्योंकर माता, पिता और आचार्य हो सकते हैं। क्योंकि जो अपने सामने यथा तथा बकने, निर्लज्ज होने, व्यर्थ चेष्टा करने आदि बुरे कर्मों से हटाकर विद्या आदि शुभगुणों के लिए उपदेश नहीं करते, न तन, मन, धन लगा के उत्तम विद्या व्यवहार का सेवन कराकर अपने सन्तानों का सदा श्रेष्ठ करते जाते हैं, वे माता-पिता और आचार्य कहाकर धन्यवाद के पात्र कभी नहीं हो सकते और जो अपने-अपने सन्तान ओर शिष्यों को ईश्वर की उपासना, धर्म, अधर्म, प्रमाण, प्रमेय, सत्य, मिथ्या, पाखण्ड, वेद, शास्त्र आदि के लक्षण और उनक स्वरूप का यथावत् बोध करा और सामर्थ्य के अनुकूल उनको वेदशास्त्री क वचन भी कण्ठस्थ कराकर विद्या पढ़ने, आचार्य के अनुकूल उनको वे शास्त्रा के वचन भी कण्ठस्थ कराकर विद्या पढ़ने, आचार्य के अनुकूल रहने की जना देवें कि जिससे विद्या प्राप्ति आदि प्रयोजन निर्विघ्न सिद्ध हों, वे हा मा पिता और आचार्य कहाते हैं।