सुख का धाम-गृहस्थाश्रम


                       यत्र सुहार्दः सुकृतो मदन्ति विह्यय रोगंतन्वः स्वायाः।
                      अश्लोणा अङ्गैरहृताः स्वर्गतत्र पश्येम पितरौच फुत्रान्।।


              अन्वयार्थः- (यत्र सुहार्दः, सुकृतः, स्वायाः तन्वः रोगं विहाय, अङ्गैः अश्लोणाः अहृताः मदन्ति) जहाँ सन्दर हृदयों वाले, सुन्दर कर्मों वाले, अपने तन अर्थात शरीर के रोगों से रहित हुए-हुए, अङ्गों से अभंग अर्थात् अङ्गों से अविकृत एवं अङ्गों से अकुटिल जन आनन्द पर्वक रहते हैं, (तत्र स्वर्गे पितरौ च पत्रान पश्येम) उस स्वर्ग लोक में हम पितरों और पुत्रों को देखें।


               (यत्र सुहार्दः) जिस घर-परिवार में सुन्दर हृदयों वाले-सुन्दर पवित्र भावनाओं वाले व्यक्ति रहते हैं, (सुकृतः) जहाँ सुन्दर-पवित्र उत्तम कर्मों को करने वाले मनष्य रहते हैं. (स्वायाः तन्वः रोगं विहाय) जहाँ मनष्य अपने स्थूल-सूक्ष्म तनों अर्थात् शरीरों के ज्वर, सिर दर्द आदि शारीरिक और ईर्ष्या, द्वेष, घृणा आदि मानसिक रोगों से मुक्त होने के लिए औषधोपचार तथा जप-तप आदि का सेवन करते हैं, (अङ्गैः अश्लोणाः अहृताः मदन्ति) जहाँ रहने वालों के अङ्ग-भङ्ग नहीं होते हैं, अर्थात अकटिल अर्थात अविकृत अङ्गों वाले व्यक्ति रहते हैं, अर्थात् जहां के लोगों के अङ्ग-प्रत्यङ्ग विकत-वक्र अर्थात टेड़े-मेढ़े नहीं होते है।, वहीं स्वर्ग है। ऐसे स्वर्ग में हम गृहस्थ दम्पती पितरों और पुत्रों को देखें, अर्थात् वहां जहां हम जाने वाली पीढ़ी को देखें वहां हम आने वाली पीढ़ी को भी देखेंतात्पर्य यह है कि ऐसे घर-परिवार में हम रहें जहां जाने वाली पीढ़ी को प्रणाम कर उन से आशीर्वाद भी दें।


                सामान्यतः स्वर्ग उस स्थान को कहते हैं जहां सख हो, शान्ति हो, आनन्द होजहां स्वतन्त्रता हो वह स्वर्ग कहाता है। जहां शारीरिक सख और मानसिक सुख के साधन हो, जहां मानसिक शान्ति और उस शान्ति के उपाय ज्ञान, प्रकाश, स्वाध्याय, सत्संग आदि हों और जहां स्वतन्त्रता हो, आत्मिक उत्थान की सब सुविधाएँ हों। इस के विपरीत नरक उस को कहते हैं, जहाँ दुःख हो, अशान्ति हो, आनन्द का अभाव हो। नरक वह कहाता है, जहाँ शारीरिक दुःख और दुःख के साधन हो, जहां सदा मानसिक अशान्ति बनी रहती हो, और सदा मन को व्यथित करने वाले कलह-क्लेश बने रहते हों, जहां आत्मा के उत्थान का न ही वातावरण हो और न ही उस के साधन हों। 


                   वेद के उपर्युक्त मन्त्र में बतलाया गया है कि स्वर्ग वहां है जहां सुन्दर हृदय वाले -सुन्दर भावनाओं वाले लोग रहते हैं, जहां उत्तम कर्मों को करने वाले मनुष्य रहते हैं, जहाँ स्थूल-सूक्ष्म शरीरों के रोगों से मुक्त हए-हए लोग रहते हैं, जहां लोगों के अङ्ग-प्रत्यङ्ग ठीक होते हैं, अर्थात् जहां कोई लूले-लङ्गड़े नहीं होते, और जहां रहने वालों के अंग-प्रत्यंग कुटिल-टेढ़े-मेढ़े नहीं होते, तथा जहा एक-दूसरे के प्रति सब के हृदय भी अकटिल अर्थात् ऋजु सरल-निश्छल बने रहते हो तथा जहां माता-पिता को सिर-आंखों पर बिठाने का प्रयास कर. उन की सुख-सुविधाओं का ध्यान कर, उन को प्रतिदिन प्रणाम कर उन के आशीर्वाद से अपने को निहाल किया जाता हो और आने वाली पीढ़ी में वर्तमान पुत्र-पुत्रियों को लाड़-प्यार से पाल-पोस कर पढ़ा-लिखा कर कृतार्थ करने का प्रयास किया जाता हो। ऐसे व्यक्ति इस स्वर्ग में रहते हुए सदा हर्षित-सदा प्रसन्न रहते हैं।


                    वेद कहता है, सुख का धाम वह है- स्वर्गाश्रमगृहस्थाश्रम वह है, जहाँ "सुहार्दः" (स-शोभनं हद येषां ते सुहादः) रहते हैं। जहां के लोगों का हृदय परस्पर एक-दूसरे के प्रति सदा सु-अच्छा, सुन्दर, उत्तम, शुभ-भला बना रहता हो। हृदयों का सौन्दर्य भावनाओं के सौन्दर्य पर निर्भर करता है। तात्पर्य यह है कि जिन का हृदय-जिन का दिल परस्पर एक-दूसरे के प्रति सदा सुन्दर, शुभ-उत्तम, दिव्य भावनाओं से ओत-प्रोत रहता हो। जिन के हृदयों में परस्पर एक-दूसरे के प्रति अच्छी, सुन्दर, शुभ-उत्तम, भली भावनाएँ ठाठे मारती रहती हों। भली भावनाएँ कौन सी होती हैं जिन के द्वारा घर-परिवार के लोग परस्पर एक-दूसरे को सुख-शान्ति और आनन्द पहुँचाना चाहते हैं। अतः सुहार्द मनुष्य वह सुनना चाहते हैं, वह देखना चाहते हैं, वह बोलना और करना चाहते हैं जिस से दूसरों को सुख मिले,शान्ति मिले, प्रसन्नता मिले।


                  जैसे राम को एक दिन माता कौशल्या ने आसन पर बिठला कर जब मिष्टान्न परोसा तो उस ने बड़े प्यार से खाना प्रारम्भ किया। अभी जरा सा खाया ही था कि झट से रख दिया। इस पर माता ने कौशल्या जी बोली कि - "राम! क्या मिठाई अच्छी नहीं बनी जो ग्रास खाते ही शेष छोड़ दी?" राम बोले- माँ,! मिठाई तो अच्छी बनी है।" माँ बोली- "राम! यह मिठाई स्वादिष्ट बनी हुई होती तो तुम यह सब खा ना लेते!"राम बोले -"माँ,! मिठाई बड़ी ही स्वादिष्ट बनी, इतनी स्वादिष्ट कि एक ग्रास खाते ही लक्ष्मण कि याद आ गई। सो यह खाई नहीं गई। अब तो माँ! लक्ष्मण आ जायेगा तो तब दोनों मिलकर इसे खायेंगे।" सो ऐसी दिव्य भावनाएँ जहाँ हृदयों में प्रवाहित होती हैं। वह स्वर्ग कहाता है। सो जिस घर में इस प्रकार एक-दूसरे को स्मरण कर, एक-दूसरे को देखकर, एक-दूसरे को सुनकर, एक-दूसरे को बोलकर, एक-दूसरे को खिलाकर, एक-दूसरे के समीप बैठकर, एक-दूसरे का सहयोग करके मनुष्य फूले नसमाते हों, वह घर स्वर्ग कहलाता है।


                  इस के विपरीत जिस घर-परिवार में सब परस्पर एक-दूसरे के प्रति 'दुहार्दः' बुरे हृदय वाले बने रहते हों, अर्थात् जिन के हृदयों में परस्पर एक-दूसरे के प्रति सदा दुर्भावनाएँ-दुष्ट भावनाएँ ही बनी रहती हों, जहाँ परस्पर एक-दूसरे को दुःख, कष्ट, क्लेश, हानि-नुकसान पहुँचाने के लिए ही दिलो-दिमाग में-हृदय और मस्तिष्क में दुर्भावनाएँ एवं दुर्विचार प्रवाहित होते रहते हों तो फिर वह स्वर्ग बल्कि नरक बन जायेगा।


                      वेद कहता है, हे मनुष्यों ! स्वर्ग और नरक केवल सुहृद् और दुर्हद् से बनते हैं। आप घर-परिवार के सब लोग परस्पर एक-दूसरे के प्रति यदि सुन्दर, शभ उत्तम-दिव्य भावनाओं से भर जायेंगे तो वह स्वर्ग बन जायेगा=बुरे हृदय वाले बनकर दुर्भावनाओं से भर जायेंगे तो फिर वही लोक दुर्लोक-दुःखमय लोक-दुःख का धाम-नरक-नरकाश्रम ही बन जायेगायदि कोई पूछे कि ये घर-परिवार में रहने वाले व्यक्ति सुहार्द-सुहृदय वाले-सुन्दर सुखद उत्तम भावनाओं वाले सुन्दर सुखद उत्तम भावनाओं वाले कब और कैसे बनते? तो इस का उत्तर यह है कि घर में जब पञ्चमहायज्ञ चलते हैं, अर्थात् परिवार में जब ब्रह्मयज्ञ-परब्रह्म परमेश्वर ही उपासना होती है, देवयज्ञ अग्रिहोत्र होता है-अग्रि में घृत सामग्री आदि उत्तम द्रव्यों की आहुतियाँ दी जाती है; अतिथियज्ञ में जब साधु-संन्यासी, ज्ञानी-ध्यानी-तपस्वियों को बुलाकर घर-परिवार में जब उनके उपदेश-सदुपदेश कराए जाते हैं, उन से जब वेद आदि सत्य शास्त्रों के अनुकूल उत्तम वचन-प्रवचन सुने जाते हैं, वा उन की प्रेरणा से जब उन वेद आदि सत्य शास्त्रों का स्वाध्याय किया जाता है, महापुरुषों का जीवन-चरित्र आदि पढ़ा जाता है, दीन-अनाथ एवम् अभावग्रस्त प्रणियों के दुःख-दर्द, कष्ट-क्लेशादि को जहाँ दूर करने का प्रयास किया जाता है तो वहाँ सहज ही तब सब के हृदय सहृदय बन जाते हैं, उन की भावनाएँ फिर सुन्दर, शुभ-उत्तम श्रेष्ठ भावनाएँ बन जाती है, और घर-परिवार तब स्वर्ग-सुख के धाम, स्वर्गलोक-स्वर्गाश्रम बन जाते हैं l



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