स्वाधीनता संग्राम में महर्षि दयानंद की भूमिका


             आध्यात्मभूमि भारत, ऋषि-मुनियों, संबुद्ध संतों की साधनास्थली आर्यावर्त ब्रिटिश साम्राज्यवादी दासता की कुटिल श्रृंखलाओं में आबद्ध थी । 'माताभमिः पत्रोऽहम् पृथिव्याः' अर्थात् भूमि मेरी माता है और मैं उसका पुत्र हूँ- के वैदिक उद्घोष से दिव्य-प्रेरणा प्राप्तकर भारतमाता के वरेण्य- वीर सपूत महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती ने स्वराष्ट्र की विषम-विपन्नावस्था पर दृष्टिपात किया । भारतमाता के धीरोदात्त अवं धर्मधुरंधर वीर सपूत स्वामी दयानंद सरस्वती का हृदय अपमान की ज्वाला से विदग्ध हो उठा । 'गीता' के कर्मयोग का प्रत्यक्ष आचरण करने वाले अद्भुत कर्मयोगी परमाचार्य प्रवर स्वामी दयानंद सरस्वती ने देखा कि जिस शस्य-श्यामला, सुजलाम्, सुफलाम् पुण्यभूमि भारत के मस्तक पर गौरव-गिरींद्र की रजत हिममंडित मेखला राजमकट के तल्य विद्यमान है, गंगा, यमना, सरस्वती और शुतुद्रि जिसका कंठहार है तथा विंध्यमेखला की श्रृंखलाएँ हैं करधनी, वही मातृभूमि भारत पराधीन पाश में आबद्ध है, जिस विमल वरदायिनी भारतमाता के चारु चरणतल को नील सिंधु जल अहर्निश धोता है, उसी भव्य-भास्वकर भारत के सुभग गले में अँगरेजी दासता का यह त्रासक तौक, सार्वभौमिक जगद्गुरु के पद पर समासीन आर्यावर्त का यह अपमान महर्षि दयानंद सरस्वती के कलेजे में शूल-सा चुभने लगा इन तरुण तपस्वी की सुदृढ़ अवयव की ऊर्जस्वित स्फीत शिराएँ मचल उठीं इन्होंने आध्यात्म प्रवण भारत की प्रतिष्ठा में चार चाँद लगाने में अपने प्राण-पौरुष की आहुतियाँ दी । आज भी महर्षि प्रवर का अम्लान रुधिर राष्ट्रीय स्वतंत्रता-तरुवर के बीज का काम करता है । यह वरेण्य-ऋषि दयानंद सरस्वती की धृति-मति विवेक की विशेषता है ।


            यह निर्विवाद, निर्धात और परीक्षित सत्य है कि 'राजनीति' शब्द आधुनिक युग की देन है । प्राचीन आर्षवाङ्गमय में 'राजधर्म' शब्द का विपुल प्रयोग हुआ है । 'धर्म' शब्द उस समय इतना व्यापक और विशद अर्थ का द्योतक था कि जीवन का कोई अंग उसके बाहर नहीं था । जातीय और राष्ट्रीय-गौरवगरिमा भी इस राजधर्म के आवश्यक अंग थे जब विदेशियों और विधर्मियों ने इस स्पर्शमणि देश पर आक्रमण प्रारंभ किए, तब स्वधर्म, स्वजाति, स्वभाषा, स्वदेशी और स्वराष्ट्र के गौरव की रक्षा के लिए उनसे लोहा लेना भी इस राजधर्म का ही एक अंग था । इसी राजधर्म से धार्मिक, सामाजिक सुधार तथा विस्तृत सांस्कृतिक, आध्यात्मिक एवं राजनीतिक चेतना को स्पंदित किया जाता था । इस राजधर्म का वर्णन आर्षवाङ्गमय से लेकर पुराण और इतिहासों में बिखरा हुआ मिलता है । यह राजधर्म अपने आगोश में सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक, आध्यात्मिक और राजनीतिक आदि सभी क्षेत्रों को समाहित करता है । इस प्रकार इसका क्षेत्र अत्यंत व्यापक और विशद है । आधुनिक युग में सांस्कृतिक और आध्यात्मिक अस्मिता के क्षरणमय संकटकाल में भारत ने अनेक सामाजिक, धार्मिक आदि सुधार आंदोलनों का सूत्रपात किया, जो आगे चलकर भारतीय राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन की पूर्व पीठिका सिद्ध हुए l


              भारतीय राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम के शलाका पुरुष महर्षि दयानंद सरस्वती की विलक्षण प्रतिभा प्रभा कर्मण्य-कर्मनिष्ठ साधना तथा सृजनात्मक विशाल विचारों ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को अभूतपूर्व सशक्त आधार प्रदान किया । उपलब्ध जानकारी के अनुसार सन् १८५७ में आर्य समाज के प्रवर्तक महर्षि दयानंद सरस्वती की उम्र केवल तैंतीस साल की थी । राष्ट्र चेतना के समर्थ पुरोधा स्वामी दयानंद सरस्वती की जीवनी का वर्ष, प्रतिवर्ष का यथाक्रम विवरण उपलब्ध है, परन्तु सन् १८५७-५८ में वे कहाँ रहे और क्या करते रहे, इसका कहीं कोई विवरण नहीं मिलता, यह एक चुप्पी ही खास है, क्योंकि 'खामोशी' भी एक 'अंदाजे बयाँ' होती है । सन् १८५७ की राज्यक्रांति से राष्ट्रीय क्रांति के वैतालिक अग्रदूत स्वामी दयानंद सरस्वती अपरिचित अनभिज्ञ नहीं थे । इसका सबसे पुष्ट प्रमाण इनके अमरग्रंथ 'सत्यार्थ प्रकाश' से ही मिल जाता है इस ग्रंथ के एकादश समुल्लास में इन्होंने संवत् १९१४ (सन् १८५७) की घटना का उल्लेख किया है जिसमें अँगरेजों ने रणछोड़जी के मंदिर पर गोलाबारी की थी और कच्छ-काठियावाड़ के बाघेरों ने अंगरेजी सेना का मुकाबला किया था । इस महत्त्पूर्ण घटना का उल्लेख किसी अन्य भारतीय इतिहास लेखक ने नहीं किया है ऐसा प्रतीत होता है कि महर्षि दयानंद सरस्वती इस घटना के प्रत्यक्षदर्शी थे प्रत्यक्षदर्शी न भी हों, पर परिचित तो अवश्य थे । सन् १८५७ की भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के प्रमुख नेताओं से वैदिक विचारवाद के समर्थ पुरोधा प्राज्ञदर्शी दयानंद सरस्वती के परिचित होने के उत्कृष्ट प्रमाण मिलते हैं । यह सर्वतोभावेन सत्य है कि स्वतंत्रचेता स्वामी दयानंद सरस्वती के परिचित होने के उत्कृष्ट प्रमाण मिलते हैं । यह सर्वतोभावेन सत्य है कि स्वतंत्रचेता स्वामी दयानंद सरस्वती के परमगुरु स्वामी विरजानन्द सरस्वती का राज्यक्रांति के सुविख्यात नेताओं से घनिष्ठ संपर्क और संबंध था । इसलिए यह नितांत संभव है कि भारतीय स्वाधीनता संग्राम में राष्ट्र चेतना के चंचरीक स्वामी दयानंद सरस्वती का प्राधिकृत योगदान रहा हो l


             भारतवर्ष के राजनीतिक इतिहास में यद्यपि स्वामी दयानंद सरस्वती के अमोघ राजनीतिक योगदान की पूर्ण रूपरेखा अभी ऐतिहासिक शोध का विषय है तथापि स्वामी दयानंद की राजनीति में गहन योगदान असंदिग्ध है । यह निर्विवाद सत्य है कि स्वामी दयानंद ही पिछली सदी के प्रथम भारतीय थे, जिन्होंने अच्छे से अच्छे विदेशी शासक की तुलना में स्वराज को ही महाघ महत्त्व दिया इन्होंने वेद मंत्रों का राजनीतिक-परक और आध्यात्म-विज्ञान-परक अर्थ को प्रतिष्ठित किया और आर्य समाज के संघटन को लोकतंत्र पर आधारित एक सामानांतर सरकार का रूप दिया । इन्होंने बारंबार उन स्थानों की यात्रा की, जहाँ अँगरेजों की सैनिक छावनियाँ थीं और यह निर्भात सत्य है कि इन्होंने मुम्बई में १० अल १८७५ को विधिवत् आर्य समाज की स्थापना की । स्वामी दयानंद के महाराष्ट्र के तत्कालीन संस्कृत के विद्वान पं. रामकृष्ण गोपाल भण्डारकर तथा विष्णु शास्त्री चिपलूणकर उनकी देशभक्ति की भूरिशः प्रशंसक थे l


             अस्मिता बोध और आत्मबोथ की चेतना को आत्मसात करने वाले उदारचेता महर्षि दयानंद सरस्वती तो हमारी आर्य सनातन वैदिक संस्कृति के जाज्वल्यमान ज्योति पुंज थे । वे भारतीय गुरू परंपरा में 'शिलाधर्मी' गुरू नहीं थे, बल्कि 'आकाशधर्मी' गुरु थे जिनकी आर्य सनातन साधना तथा अमृत संदीप्त आलोक की अनंत आभा मानसरोवर में खिले कमल जैसी शुभ्र-शोभन है । इन्होंने अपने अप्रतिम गत्यात्मक व्यक्तित्व से भारत की राजनीतिक एवं सांस्कृतिक एकता, अखंडता के अभिनव अभियान का अध्याय खुला था । इनका सुकोमल शांत-मधुर व्यक्तित्व राष्ट्र की बलिवेदी पर अर्पित दिव्य सुगंधित सुमन था । इन्होंने भयभीत मानवता को सँवारने के लिए पीड़ाओं का विषपान शंकर की भाँति किया है तथा हताशप्राय, विषण्ण, विमूर्च्छित मानव के लिए अमृतकलश छोड़ दिया है । इन्हें जीवन में कभी सुखोपभोग नहीं प्राप्त हुआ, फिर भी इन्होंने जो अभिजात संस्कार एवं वैदिक साधना का सरसिज खिलाया, वह अपने शाश्वत एवं सारस्वत सौरभ से दिग्दिगंत को परिपूरित करता है ।


             आधुनिक भारतीय समाज के निर्माता और आर्यजगत के मंत्रद्रष्टा महाप्राण महर्षि दयानंद सरस्वती का भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अवदान समादरणीय और अनुकरणीय रहा है । इन्होने ही अपनी सर्वतोमुखी अप्रतिम प्रभा तथा असाधारण साधना तप-त्याग से परतंत्रता के कारागार में वंदिनी भारतमाता को विमुक्त करने का सर्वप्रथम कलनिनाद किया था । अब हमारा कर्तव्य है कि हम दिव्यप्रेरणा के पाथेय बटोरकर, सहेजकर प्रवंचित, दलित, विसंगठित, शोषित, निर्वासित जनमानस को सामाजिक समरसता की नयी संजीवनी शक्ति प्रदान करें और उनके पदचिन्हों पर अप्रतिहत चलें, तभी राष्ट्रीय एकता, अखंडता, मानवता और दिव्य प्रभात को सुरक्षित रख सकेंगे । कविर्मनीषी चंद्रपाल सिंह यादव 'मयंक' ने सच ही लिखा है-


"पहले-पहले स्वामीजी ने 'स्वराज की बतलाई बात !
कहा, 'गुलामी' में दुख ही दुख ! स्वतंत्रता का दिव्य-प्रभात
अपने भारत में ले आओ, स्वतंत्रता में है सम्मान ।
पीछे पैर न रखना हरगिज, हँस कर करो त्याग- बलिदान ।"



संपर्क- हिंदी अध्यापक, संत फ्रांसिस उच्च विद्यालय
पोडैयाहाट, जिला - गोड्डा (झारखण्ड)



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