स्वामी दयानन्द से पहले भारत की अवस्था


स्वामी दयानन्द से पहले भारत की अवस्था


        आज से सौ वर्ष पहले इस देश की धार्मिक और सामाजिक अवस्था बहुत बुरी थी। आर्यों का पवित्र वैदिक धर्म, जिसका किसी समय सारे संसार में डंका बजता था, भारत में भी छिप-सा गया था। इसका स्थान बहुत से छोटे-छोटे मतों और सम्प्रदायों ने ले लिया था। एक परमेश्वर की पूजा के स्थान में कोई शक्ति को मानता था, तो कोई शिव को; एक ब्रह्मा का पुजारी था तो दूसरा विष्णु का। एक ओर 'जय सीताराम' की ध्वनि सुनाई देती थी, तो दूसरी ओर 'जय राधेश्याम' की। सारांश यह कि आर्य जाति सैकड़ों-सहस्रों मत-मतान्तरों में बँटी हुई थी। ये मत सदा एक दूसरे के साथ लड़ते-झगड़ते रहते थे।


         धर्म का असली तत्त्व बिल्कुल लुप्त हो चुका था। सारा बल बाहरी चिह्नों ही पर था। माथे पर टीका लगाना, कान फड़वा कर मुद्रा डालना, अनन्त पहनना, लंबी चोटी रखना, किसी के हाथ का न खाना, छोटी जाति के मनुष्य के साथ छू जाने पर स्नान करना इत्यादि बातों को ही धर्म समझा जाता थादेवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए बेचारे निरपराध जन्तुओं का रक्त बहाया जाता थाकिसी-किसी जगह तो मनुष्यों की भी बलि चढ़ाई जाती थी।


        स्त्रियों और शूद्रों को विद्या पढ़ने की आज्ञा न थीस्त्रियाँ पैर की जूती समझी जाती थीं। वेद का मंत्र सुन लेने पर शूद्र के कान में पिघला हुआ सीसा भर दिया जाता था। लड़के और लड़कियों के विवाह बहुत छोटी आयु में कर दिये जाते थे। इससे बहुत बड़ी संख्या में लड़कियाँ विधवा हो जाती थीं। उनमें से कई एक की अवस्था तो एक वर्ष से भी कम होती थी। फिर इन बेचारी विधवाओं पर एक और घोर अत्याचार किया जाता था। स्वयं उनके निकट संबंधी ही उनके लिए चिता बना कर उन्हें 'सती' हो जाने अर्थात पति के साथ जीते जी जल मरने पर मजबूर करते थे।


       ऊँची जाति के हिन्दू जन्म के झूठे अभिमान में छोटी जाति के हिन्दुओं पर नाना प्रकार के अत्याचार करते । वे उनके साथ कुत्ते-बिल्ली आदि जन्तुओं से भी बुरा बर्ताव करते थे। उन गरीबों को मन्दिरों और देवालायों में पूजा के लिए जाने की आज्ञा न थी। उनकी छाया पड़ जाने पर ब्राह्मण . लोग नहाते थेउनको आम सड़कों पर चलने की मनाही थी। इन लोगों को विद्या पढ़ने से तो वंचित रक्खा ही जाता था, साथ ही इनको साफ-सुथरा रहने तथा धनवान् बनने की भी आज्ञा न थी। इनकी स्त्रियों का अपमान करना बुरा न समझा जाता था।


        अपने हो, अपने को ऊँचा समझने वाली जातियों में भी आगे छोटी-छोटी उपजातियाँ या बिरादरियाँ थीं। ये एक-दूसरे को नीच समझती और घृणा करती थीं। इनका खान-पान और ब्याह-शादी आपस में न हो सकती थीबिरादरियों की चहारदीवारी उनके लिए जेलखाने की कोठरियाँ थीं। इनको तोड़ कर आपस में मिलना असम्भव था। सारांश यह कि आर्य-जाति के लाखों टुकड़े हो चुके थे, और कोई भी बात ऐसी बाकी न थी जो इनको एकता के सुदृढ़ सूत्र में बाँध सके।


        संस्कृत-विद्या का प्रचार सर्वथा बंद हो चुका था। इसलिए सच्चे और झूठे धर्म-ग्रन्थों की पहचान न रही थी। संस्कृत में लिखी हुई प्रत्येक पुस्तक, चाहे उसमें ऊट पटाँग बातें ही क्यों न लिखी हों, धर्म-पुस्तक समझी जाती थी। वेदों का पढ़ना तो दूर उनके नाम तक हिन्दुओं को याद न रहे थे। पुराणों की मन-गढ़ंत कहानियाँ ही धर्म की बातें समझी जाती थीं। हिन्दुओं का कोई एक ऐसा धर्म-ग्रन्थ ही न था जिसके नाम पर सारी जाति इकट्ठी हो सके।


        ऐसी दशा में ईसाइयों और मुसलमानों की खूब बन आई थी। ये लोग पुराणों की असम्भव बातें ओर देवी-देवताओं की कहानियाँ पेश करके हिन्दुओं को शास्त्रार्थ के लिए ललकारते थे। हिन्दुओं के बड़े-बड़े पण्डित भी उनकी बातों का उत्तर देने का साहस न कर सकते थे। हिन्दू-धर्म एक कच्चा धागा समझा जाता था। सहस्त्रों स्त्री-पुरुष पवित्र वैदिक धर्म को छोड़ कर मुसलमान और ईसाई होते जा रहे थे।


        मुसलमानों के शासन-काल में जो हिन्दू मुसलमान हुए थे अधिकतर लालच और भय से ही पतित हुए थे। अपने भाइयों सामाजिक अत्याचारों ने ही उन्हें अपने बाप-दादा के धर्म को छोड़ने विवश किया था। इस्लाम के सिद्धान्त उनको अपनी ओर न खींच सके परन्तु ईसाई-मत के पास विद्या का एक प्रबल शस्त्र था। ईसाई पादरी स्थान-स्थान पर स्कूल और कालेज खोल कर पढ़े-लिखे हिन्दू नवयुवकों मन में उनके प्राचीन धर्म के प्रति घृणा और अश्रद्धा उत्पन्न कर रहे मुसलमानों ने हिन्दुओं के केवल शरीर पर ही प्रभाव डाला था। परन्तु ईसाइयों ने उनके मस्तिष्क को भी अधीन कर लिया था। वे जब तैंतीस करोड़ देवी-देवता, मूर्ति-पूजा, जन्म की जाति-पाँति, ऊँच-नीच और कृष्ण-लीला आदि बातों को लेकर आक्षेप करते थे तो किसी भी हिन्दू नवयुवक से उत्तर न बन पड़ता था।


        वह लज्जा से सिर नीचा कर लेता था। पादरियों के प्रचार से, विशेषतः मद्रास और बंगाल में, इतने लोग ईसाई हो गये थे कि उन्होंने पहले ही कह दिया कि शीघ्र ही यह आर्यावर्त ईसाई होकर ईसावर्त बन जायगा। कलकत्ता के एक कालेज में पढ़नेवाले हिन्दू नव-युवकों की पूरी कक्षा ने ही एक दिन में बपतिस्मा ले लिया था। पूना की पण्डिता रमाबाई के ईसाई हो जाने से सैकड़ों हिन्दू-विधवाओं ने ईसाई- धर्म की शरण ली थी। पण्डित नीलकण्ठ शास्त्री ने ईसाई बनकर बाइबल का संस्कृत में अनुवाद कर दिया थाइस प्रकार मुसलमानों और ईसाइयों के आक्रमणों से आर्य-सभ्यता और आर्य-धर्म थर्रा रहा था। जो हिन्दू एक बार ईसाई या मुसलमान हो जाता था उसके लिए दुबारा अपने धर्म में आना असम्भव था। हिन्दू घटाना ही जानते थे, जोड़ना उन्होंने सीखा ही न था। इसलिए दिन पर दिन उनकी संख्या कम होती जा रही थी। सारांश यह कि हिन्दुओं का संगठन विल्कुल टूट चुका था। देश का सर्वनाश मूर्तिमान होकर चारों ओर डरा रहा था। निराशा और अन्धकार के सिवा और कुछ भी दिख न पड़ता था।


       इस अविद्या और अंधकार के समय में इस देश में एक महापुरुष आया। उसका आगमन अमावस्या की अंधकारमयी रजनी में चंचला की चमक के समान या तूफान से ठाठे मारते हुए सागर में प्रकाश-स्तम्भ समान था। दुखी दुनिया ने देखा कि हमें इस दुःख-सागर से पार ले जाने के लिए ईश्वर ने एक देवता को भेजा है। लोग झुंड के झुंड उसकी ओर दौड़े। उसने इन अंधकार में ठोकरें खानेवालों को मार्ग दिखाया; इन डूबतो को किनारे पर पहुँचाया। कुछ स्वार्थी लोगों की इस अंधेरगर्दी में खूब बन आई थी। वे संसार को इसी अंधकार में रखना चाहते थे। वे इस दिव्य ज्योति के शत्रु बन गये। वे उसे बुझाने के लिए दौड़े। उन्होंने इस महापुरुष को नाना प्रकार के कष्ट दिये। इन पर ईंट-पत्थर बरसाये। जूते फेंके। विष दिया। परन्तु वह महात्मा था कि बिल्कुल न घबराया। वह संसार को सच्चा रास्ता दिखाने और उसके दुखों को दूर करने में उसी प्रकार लगा रहा। उसके निरन्तर परिश्रम और अथक उद्योग से संसार में वैदिक धर्म का सूर्य एक बार फिर चमकने लगा; और सत्य मार्ग से भटकी हुई दुनिया को ईश्वर से मिलने और मुक्ति-लाभ करने का उपाय फिर से मालूम हो गया।


       इस महापुरुष का नाम दयानन्द था। वह वेदों का बहुत बड़े विद्वान् था। वह बाल-ब्रह्मचारी था। इसलिए उसके शरीर में घोड़ों की गाड़ी को रोक लेने का बल था। वह सचाई का पुतला था। वह ईश्वर का सच्चा भक्त था। वह प्राणिमात्र का हितैषी और सच्चा पथदर्शक था। वह योगी था। उसमें दुःखो और विपत्तियों को संहारने की असीम शक्ति थी। वह संकल्प का धनी था। वह दया और आनन्द का भण्डार था। बुराई करनेवाले के साथ भी वह भलाई करता था। वह किसी को अपना शत्रु न समझता था वह आत्मा को अमर जानकर सत्य कहने में किसी से न डरता था। अगले परिच्छेदों में उसी दयालु दयानन्द के पवित्र चरित्र का वर्णन किया जाएगा।


 


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