वेदों की लोक-व्यवस्था
वेदों की लोक-व्यवस्था
उपरिलिखित विभाजन अथर्ववेदीय स्कम्भ सूक्त में उत्तम प्रकार से किया गया है, तद् यथा-यस्य भूमिः प्रमान्तरिक्षमुतोदरम्। दिवं यश्चक्रे मूर्धानं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ॥ जिसका प्रकृष्टतया नापने का प्रमाण-भूत साधन भूमि, चरण-स्थानीय है, जिसका अन्तःईक्षण का साधन अन्तरिक्ष लोक, उदर-स्थानीय है और जिसका ज्योतिष्मान् धुलोक, मुख-स्थानीय है उस ज्येष्ठ ब्रह्म को हमारा नमन है। उससे अगले सूक्त के पहले मन्त्र में ज्येष्ठ ब्रह्म को नमन करते हुए भक्त ब्रह्म का स्वरूप का वर्णन इन शब्दों में करता है कि जिसको केवल स्वः कहकर ही जाना जा सकता है उस ज्येष्ठ ब्रह्म को नमन है-यो भूतं च भव्यं च सर्वं यश्चाधितिष्ठति। स्वर्यस्य च केवलं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ॥ जिस ब्रह्म का केवल स्वः गुण है, वह ब्रह्मसत्ता अन्य सत्ताओं से अपने को पृथक् कर रही है। ब्रह्म का केवल 'आनन्द' गुण ही उसे प्रकृति व जीव से पृथक् करता है। प्रकृति मात्र सत् है; जीवात्मा सत्-चित् है; ब्रह्म सत्-चित्-आनन्द है। ब्रह्म में आनन्द अधिक है, जो केवल है। जीवात्मा में आनन्द की कमी है| उसका ध्येय-धाम आनन्द लोक है, स्वर्लोक हैतभी उसे कैवल्य-प्राप्ति होगी जब ब्रह्म के केवल स्वः को आत्मसात् कर लेगा।