वीर राजा अमरसिंह
वीर राजा अमरसिंह
(वीर सावरकर द्वारा लिखित)
२४ अप्रैल १८५७ को कुँवरसिंह की मृत्यु हुई। यह महान् व्यक्ति इतिहास के रंगमंच से निकल जाने पर, उस की जोड़ के शर और स्वदेशभक्त और एक व्यक्ति ने रंगमंच पर पर्दापण किया। यह व्यक्ति और कोई न होकर उसी का भाई राजा अमरसिंह ही थापूरे चार दिन का आराम भी न लेकर और लड़ाई के सत्त्व को कम न होने देकर अमरसिंह ने आरा पर ही धावा बोल दिया। आरा के अंग्रेजों की हार के समाचार मिलने पर ब्रिगेडियर डगलस तथा जनरल लुगार्ड के नेतृत्व में गंगा के उस ओर पड़ी सेना ने गंगा पार होकर, अमरसिंह से भिडन्त की। जब अंग्रेजों ने क्रान्तिकारियों को घेरना शुरू किया तब अमरसिंह ने भी और ही चाल चली। शत्रु की जीत होती देखकर, वह अपनी सेना को अलग-अलग टोलियों में बाँट देता और उन्हें फैलाकर मैदान से हट जाता और उन्हें निश्चित समय तथा स्थान पर मिलने की सूचना देता, जिससे शत्रु किसी तरह पीछा न कर सकता था। ज्यों ही ब्रिटिश मानने लगते कि वे ही हर बार विजयी होते हैं, त्यों ही अमरसिंह की सेना पहले के समान बलवान् तथा कार्यशील किसी और जगह दिखायी देती। निदान, परेशान होकर निराश तथा अपमानित ब्रिटिश सेनापति लुगार्ड जून १५ को सेवानिवृत्त होकर आराम के लिये इंग्लैंड चला गया; उस की सेना छावनी को लौट गई।
फिर अंग्रेजों को झूठा सुराग देकर अमरसिंह आरा पर चढ़ आया और शहर में प्रवेश कर गया। इस से क्या होता है? अब तो वह जगदीशपुर की राजधानी में प्रवेश कर रहा है। जुलाई समाप्त, अगस्त बीत गयासितंबर चुक गया; जगदीशपुर के बुपर, संपूर्ण स्वाधीनता का अनुभव करनेवाली जनता का, विजयी ध्वज लहरा रहा था और प्रजाप्रिय राणा अमरसिंह सिंहासन पर विराजमान था। ब्रि. डगलस और उस की ७ हजार सेना ने अमरसिंह को नष्ट करने का बीड़ा उठाया था। यहाँ तक कि किसी तरह राणा अमरसिंह का सिर लानेवाले को बड़े-बड़े इनाम घोषित किये गये। अब उन्होंने जंगल तोड़कर सड़क बना ली थी।
१७ अक्तूबर को ब्रिटिश व्यूह के निश्चय के अनुसार छः सेनाएँ भिन्न-भिन्न दिशाओं से जगदीशपुर के भिन्न भागों पर चढ़ आयी थी; तवीं सेना को आते पांच घंटे देरी हुई। ठीक मौका ताड़कर इसी और अमरसिंह अपनी सेना के साथ साफ निकल गया।
बिहारी क्रांतिकारियों को पीस डालने का इरादा फेल हो जाने से, कटके हए क्रांन्तिकारियों का पीछा करने के लिये रिसाला भेजा गया। हाथ धोकर पीछे पड़े इस रिसाले ने अमरसिंह को एक क्षण का अवकाश न मिलने दिया। इस समय अंग्रेजी सेना के पास नये किस्म की राईफलें थीं, जिनके सामने क्रांतिकारियों की तोड़ेदार बंदूकें निकम्मी साबित हुई, जिससे अंग्रेजी सवारों को टालना असम्भव हो गया-फिर भी अमरसिंह के मुख से शरण का शब्द नहीं निकला। १९ अक्तूबर को अंग्रेजी सेना ने नोनदी गाँव में क्रांतिकारी सेना को पूरी तरह घेर लिया; ४०० में से ३०० तो कट गये ! शेष रहे सौ क्रांतिकारी जान हथेली में लेकर खुले मैदान में शेर की तरह कूद पड़े और नयी आयी गोरी सेना से भिड़े। अन्त में इनमें से तीन बच पाये, जिन में एक राणा अमरसिंह था; अब तक एक सैनिक बनकर लड़ रहा था। कितनी ही रक्तपाती लड़ाइयाँ 'पांडे' सेनाएँ लड़ी, कितनी खून की नहरें बहीं; किन्तु स्वाधीनता का ध्वज अब तक झुका नहीं। राणा अमरसिंह तो ऐसे बाँके संकटों से बचा था कि कहते ही बनता है; एकबार तो शत्रु ने राणा के हाथी को पकड़ लिया, किन्तु राणा कूद पड़ा और गायब! इस तरह क्रांतिकारी चप्पा-चप्पा भूमि के लिये झूझते हुए अपने प्रांत के बाहर खदेड़े गयेअब वे कैमुर की पहाड़ियों में पहुँच गये। पीछा करनेवाले गोरों को इस प्रांतवालों ने हमेशा तथा यथाक्रम धोखा देकर क्रांतिकारियों की रक्षा की।
शत्रु ने इन पहाड़ियों में भी क्रांतिकारियों का भीषण पीछा कियाहर टीला, हर उपत्यका, हर चट्टान पर क्रांतिकारी झगड़ते रहे। एक भी क्रांतिकारी, पुरुष या स्त्री, शत्रु के हाथ न लगा; वह जूझते हुए अपने देश और धर्म के लिये खेत रहा। श्री कुँवरसिंह के रनवास की डेढ सौ स्त्रियों ने, अब कोई चारा नहीं है यह देखकर, अपने हाथों अपने को तोपों के मुँह बाँध लिया और अपने हाथों उन्हें दाग कर उड़ गईं-हुतात्मता के अनंतत्व में विलीन हो गयीं
अमरसिंह का आगे क्या हुआ? अपना शेष जीवन उसने कहाँ बिताया, घबड़ाया हुआ इतिहास गूंजता है क-हाँ"?