विद्या-देवी की विद्वान् से प्रार्थना
विद्या-देवी की विद्वान् से प्रार्थना
आचार्य यास्क ने अपने निरुक्त ग्रन्थ में किसी प्राचीन ग्रन्थ का उद्धरण देते हुए विद्या-देवी की प्रार्थना उद्धृत की है-विद्या ह वै ब्राह्मणमाजगाम गोपाय मा शेवधिष्टेऽहमस्मि।असूयकायानृजवेऽयताय न मा ब्रूया वीर्यवती तथा स्याम्॥
विद्या ब्राह्मण के पास आकर निश्चयपूर्वक बोलीमेरी रक्षा करो, मैं तेरी निधि हूँ। मेरा उपदेश इन-इन व्यक्तियों को न देना, जो १-असूयक-जो दूसरे से डाह करता हो, जिसमें २-सरलता न हो, जो ३प्रयत्नशील न हो, जिससे मैं वीर्यवती बन सकूँ, अतः विद्या-सन्धि का सुपरिणाम अन्तेवासी असूया-रहित, सरल-स्वभाव, विद्या-ग्रहण के लिए प्रयत्नशील हो जाएगा। अन्तेवासी जब आचार्य के पास आता है, तो एक प्रकार से उसकी अवस्था शूद्र-तुल्य होती है। उसके लिए भगवान् मनु ने लिखा है कि-शूद्र का एकमात्र धर्म असूया-रहित होकर सुनना और सेवा करना है-एकमेव तु शूद्रस्य""""""शूश्रुषामनसूयया| इसी बात को भगवान् श्री कृष्ण ने ज्ञान-यज्ञ की महिमा बताते हुए उसके प्राप्त करनेवाले भक्त की पहचान बताई है-तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः॥ (गीता ४.३४) "उस यथार्थज्ञान को तू विद्वानों के चरणों में सिर झुकाकर, प्रश्न पूछकर, सेवा करके पा। तत्त्वदर्शी, ज्ञानी लोग तुझे सच्चे तत्त्व-ज्ञान का उपदेश देंगे।" इन गुणों को धारण कर अन्तेवासी विनयी स्वभाव का हो जाएगा। फिर हम नीतिकार के श्लोक को अग्रलिखित शब्दों में कह सकेंगे-
विद्या ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम्।
पात्रत्वात् धनमाप्नोति धनात्धर्मः ततः सुखम्॥
विद्या से विनय, विनय से पात्रता, पात्रता से विद्या-धन, विद्या-धन से धर्म और धर्म से सुख की प्राप्ति होती है।