“आर्ष-अनार्ष कसौटी के ज्ञाता प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती”
स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के विद्यागुरु थे। स्वामी दयानन्द जी को विद्यादान देकर आपने ही उन्हें वेदार्ष ज्ञान से आलोकित किया था। स्वामी विरजानन्द जी जन्म पंजाब में करतारपुर के निकट के एक गांव गंगापुर में हुआ था। श्री नारायण दत्त जी आपके पिता थे। बचपन में ही स्वामी विरजानन्द जी के माता-पिता का देहान्त हो गया था। बचपन में शीतला रोग हो जाने के कारण आपके दोनों नेत्रों की ज्योति चली गई थी।
इनकी भाभी का इनके प्रति सन्तोषजनक व्यवहार नहीं था। इस कारण इन्हें घर छोड़ना पड़ा। यह उत्तराखण्ड आये और यहां रहकर ऋषिकेश एवं हरिद्वार आदि स्थानों में गायत्री मन्त्र आदि की साधना की। उसके बाद आप कनखल गये। आपकी स्मरण शक्ति तीव्र थी। आप सुनी बातों को कण्ठ कर लेते थे। इनके समय में अष्टाध्यायी महाभाष्य आदि का अध्यापन अप्रचलित हो चुका था। आपने किसी को अष्टाध्यायी का पाठ करते सुना तो उसे स्मरण कर लिया और निर्दोष एवं श्रेष्ठ जानकर उसी का अध्ययन-अध्यापन एवं प्रचार किया।
आपकी मथुरा स्थित पाठशाला में न जाने कितने विद्यार्थी आये और गये परन्तु स्वामी दयानन्द जी को विद्यार्थी रूप में पाकर स्वामी विरजानन्द जी की पाठशाला धन्य हो गई। यह दोनों गुरु व शिष्य इतिहास में सदैव अमर रहेंगे। ऐसा गुरु व दयानन्द जी जैसा शिष्य शायद इतिहास में दूसरा नहीं हुआ है। स्वामी दयानन्द जी में जो गुणों का भण्डार था इसमें स्वामी विरजानन्द जी की प्रेरणा एवं दोनों का परस्पर सान्निध्य कारण था।
हम कल्पना करते हैं कि यदि स्वामी विरजानन्द जी की भाभी का उनके प्रति कड़ा व उपेक्षाजनक व्यवहार न होता तो तो स्वामी विरजानन्द जी व्याकरण के शिरोमणी विद्वान न बनते और यदि स्वामी विरजानन्द जी न होते तो देश व संसार को स्वामी दयानन्द जैसा वेदों का अपूर्व विद्वान, धर्म प्रचारक, वेदोद्धारक, वेदभाष्यकर्ता, देश की आजादी का मन्त्रदाता, समाज सुधारक तथा मत-मतान्तरों की अविद्या वा उनकी सच्चाई बताने वाला व्यक्ति इतिहास में न हुआ होता।
धन्य हैं स्वामी विरजानन्द सरस्वती व उनके विद्यानुरागी शिष्य, आदर्श ईश्वरोपासक, वेदभक्त एवं देशभक्त ऋषि दयानन्द सरस्वती।
--मनमोहन आर्य