‘भारत माता के वीर आदर्श सपूत शहीद रामप्रसाद बिस्मिल और उनके साथी’
'भारत माता के वीर आदर्श सपूत शहीद रामप्रसाद बिस्मिल और उनके साथी'
ओ३म्
आज की युवापीढ़ी आधुनिक युग के निर्माता देशभक्तों को भूल चुकी है जिनकी दया, कृपा, त्याग व बलिदान के कारण आज हम स्वतन्त्र वातावरण में सम्मानजनक जीवन व्यतीत कर रहे हैं। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि आज की युवा पीढ़ी प्रायः धर्म, जाति व देश के प्रति अपने कर्तव्यों के प्रति सजग नहीं है वा विमुख है। यह आश्चर्य है कि हमें देश-विदेश के क्रिकेट आदि खिलाडि़यों, फिल्मी अभिनेताओं, बड़े-बड़े घोटाले व भ्रष्टाचार करने वाले राजनीतिज्ञों के नाम व कार्यो के बारे में तो ज्ञान है परन्तु जिन लोगों अपने जीवन को बलिदान करके देशवासियों को गुलामी व अपमानित जीवन जीने से बचाया है, उन्हें हम भूल चुके हैं। इसे देशवासियों की उन हुतात्मा बलिदानियों के प्रति कृतघ्नता ही कह सकते हैं। ऐसा क्यों हुआ? इसका सरल उत्तर है कि स्वतन्त्रता के बाद देश में जो वातावरण बना और नैतिकता, देश भक्ति व योग को शिक्षा पद्धति में अनिवार्य विषयों में सम्मिलित नहीं किया, उसके कारण ही ऐसा हुआ है। आज की युवा पीढ़ी ने स्वदेशी सभी अच्छी चीजों को छोड़ दिया है और पाश्चात्य अच्छी व बुरी सभी चीजों को अविवेकपूर्ण ढंग से अपनाया है व अपनाती जा रही है। ऐसे प्रतिकूल वातावरण में शहीदों के जन्म व बलिदान दिवस हमें अवसर देते हैं कि हम तत्कालीन परिस्थितियों में उनके द्वारा किए गये कार्यो पर दृष्टिपात कर उनका मूल्यांकन करें व उनसे शिक्षा व प्रेरणा ग्रहण कर अपना कर्तव्य निर्धारित करें। भारत माता को विदेशी आक्रान्ताओं से, जो देशवासियों को पल-प्रतिपल अपमानित करते थे, जिनके शासन में हमारा प्राचीन वैदिक सनातन धर्म व संस्कृति सुरक्षित नहीं थे, जो देश की सम्पदाओं को लूटते थे, देशवासियों के श्रम का व उनका बौद्धिक शोषण करते थे, जिन्होंने हमारी अस्मिता को अपने अहंकार व द्वेष-बुद्धि से कुचल दिया था, उन क्रूर शासकों से देश को मुक्त कराने के लिए जिस भारतमाता के वीर सपूत ने आज के दिन अपना तन, मन व धन मातृभूमि की स्वतन्त्रता की बलिवेदी पर अर्पित किया था, उस नरपुगंव का नाम है पं. रामप्रसाद बिस्मिल। शहीद बिस्मिल ने 29 वर्ष की भरी जवानी में 19 दिसम्बर, 1927 को फांसी के फन्दे को चूम कर अपना बलिदान दिया। उनके जीवन पर दृष्टि डालने पर ज्ञात होता है कि उनके जीवन का उद्देश्य विदेशी शासक अंग्रेजों की पराधीनता से देश को मुक्त कर सभी देशवासियों के प्राचीन धर्म व संस्कृति की रक्षा, सम्मानजनक जीवन के साथ देश की एकता व अखण्डता की रक्षा करते हुए सबकी शारीरिक, बौद्धिक, मानसिक व आत्मिक उन्नति करना एवं वैदिक आदर्श सत्य व न्याय पर आधारित शासन स्थापित करना था।
रामप्रसाद बिस्मिल के पिता श्री मुरलीधर, चाचा श्री कल्याणमल तथा पितामह श्री नारायणलाल थे। आप चार भाई व पांच बहने थी जिनमें आप सबसे बड़े थे। पिता कुछ शिक्षित थे। ग्वालियर से आकर शाहजहांपुर, संयुक्त प्रान्त में बसे थे। मुरलीधरजी ने पहले नगर पालिका में 15 रूपये मासिक पर सर्विस की और इसके बाद कोर्ट में स्टाम्प पेपर बेचने का काम किया। आपके परिवार में पुत्रियों को जन्म लेते ही मार दिया जाता था परन्तु आपके पिता ने यह कुकृत्य नहीं किया यद्यपि आपके दादाजी का पुत्रियों की हत्या करने का परामर्श था। रामप्रसाद जी का जन्म 11 जून सन् 1897 को हुआ। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा हिन्दी व उर्दू में हुई। अपनी धर्म पारायणा माताजी की प्रेरणा से आपने अंग्रेजी भी सीखी। बचपन में आपको अनेक बुरे व्यस्न लग गये। शाहजहांपुर में घर के पास ही आर्यसमाज मन्दिर था, वहां आप जाने लगे। मन्दिर के पण्डितजी ने आपको ब्रह्मचर्य व व्यायाम के बारे में बताया और उसका पालन करने को कहा जिससे आपको सही दिशा मिली। आर्यसमाज मन्दिर में आपको श्री इन्द्रजीत जी का सत्संग प्राप्त हुआ। उन्होंने आपको ईश्वर का ध्यान करना व महर्षि दयानन्द रचित सन्ध्या करना सिखाया। उनकी प्रेरणा से आपने सत्यार्थप्रकाश पढ़ा। सत्यार्थप्रकाश के अध्ययन से आपके सारे व्यस्न छूट गये और आपमें देशप्रेम व देश को स्वतन्त्र कराने की प्रबल भावना उत्पन्न हुई। आपका स्वास्थ्य जो पहले खराब रहता था अब सन्ध्या, व्यायाम व योगाभ्यास से दर्शनीय हो गया। हमें आर्यसमाजी मित्र, आर्य विद्वान प्रो. अनूप सिंह से ज्ञात हुआ था कि आप अपने भव्य, प्रभावशाली व आकर्षक शरीर के कारण दूर-दूर तक प्रसिद्ध हो गये। लोग दूर-दूर से आपकी प्रशंसा सुनकर आपको देखने आने लगे।
पं. रामप्रसाद बिसिल्ल जी को आर्यसमाज के सम्पर्क में आने से पूर्व अनेक दुर्व्यसन लग गये थे। दुर्व्यसनों के लिए पैसे चाहिये। इसके लिए वह पिता के पैसे भी चोरी कर लेते थे। दुर्व्यसनों को छुपकर किया जाता है, इसलिए अन्यों पर वह प्रायः प्रकट नहीं होते हैं। रामप्रसाद जी धूम्रपान, भांग का सेवन, चरित्र बिगाड़ने वाले उपन्यासों को पढ़ना व निरर्थक घूमना-फिरना व उसमें समय नष्ट करना जैसे लक्ष्य से भटके मनुष्य की भांति कार्य करते थे। रामप्रसाद जी का भाग्योदय हुआ। संयोग से आप आर्यसमाज के सम्पर्क में आये। यहां आर्यों की संगति व उनसे मिलने वाले तर्क पूर्ण सुझावों ने आपको प्रभावित करना आरम्भ किया। व्यस्नों से जीवन को होने वाली हानि का स्वरूप आप पर प्रकट होने से उनके प्रति अरूचि हो गई। हमने इस अल्प जीवन में अनेक लोगों को उठते हुए भी देखा है और वेदों व सत्यार्थ प्रकाश पढ़े व दूसरों को सदाचारी व आर्य बनाने वाले को नाना प्रकार के बुरे कार्य करते हुए भी पाया है जिनसे चरित्र का पतन होता है। यह सामान्य बात है, ऐसी घटनायें समाचार पत्रों व टीवी आदि पर भी यदा-कदा देखने को मिलती रहती हैं। रामप्रसाद जी में जो दूषण थे वह अज्ञानता, मन के नियन्त्रित न होने व इन्द्रियों के दास बनने के कारण उत्पन्न हुए थे, उनका दूर होना सरल था। उन्हें इनके दुष्प्रभावों का ज्ञान हुआ तो उन्होंने इसे त्याग दिया और इनके त्याग से आत्मा की शुद्धि प्राप्त करके एक अज्ञात युवा महात्मा बन गये या महात्मा बनने के मार्ग पर तेजी से बढ़ चले।
आर्यसमाज में सन्ध्या, हवन, वहां के सच्चरित्र सदस्यों एवं विद्वानों के उपदेशों, उनकी संगति, वार्तालाप व उनकी सेवा का आप पर ऐसा प्रभाव हुआ कि आर्यसमाज में रहकर आप अपना अधिक समय व्यतीत करने लगे। पिता आर्यसमाज के वास्तविक स्वरूप से अपरिचित थे। उन्हें अपने पुत्र रामप्रसाद का वहां अधिक समय व्यतीत करना अच्छा नहीं लगता था। इससे वह उनसे क्रुद्ध हो गये। उन्होंने रामप्रसादजी को वहां जाने से मना किया और अपशब्द कहकर धमकी भी दी की सोते समय उसका गला काट देगें। इस कारण घर से भी उन्हें निकाल दिया। इस कठिन परीक्षा में, जिसे छोटी अग्नि परीक्षा भी कह सकते हैं, हमारे पं. रामप्रसाद बिस्मिल जी पूरी तरह सफल हुए। यदि वह पिता के अनुचित सुझाव को मान लेते तो उनका जीवन निरर्थक होता और इतिहास में उनकी शहादत की जो युगान्तरकारी घटना घटी, वह न हुई होती। यहां हम स्वामी श्रद्धानन्द के उदाहरण को भी स्मरण कर सकते हैं जब इस युवावस्था में नास्तिक युवा मुंशीराम, श्रद्धानन्द कहलाने से पूर्व का नाम, के पौराणिक व अन्धविश्वासों को मानने वाले पिता नानक चन्द बरेली में महर्षि दयानन्द के सत्संग में लेकर जाते हैं, इस आशा के साथ कि स्वामी दयानन्द के सत्संग व उपदेश के प्रभाव से इसकी नास्तिकता समाप्त हो जायेगी। महर्षि दयानन्द के सत्संग से उनकी नास्तिकता भी समाप्त हुई, सारे दुव्र्यस्न भी समाप्त हुए और एक दुर्व्यसनी युवक आगे चलकर अपने युग का युगपुरूष बन गया जिसका स्मारक गुरूकुल कांगड़ी आज भी अतीत के स्वर्णिम कार्यों को संजोय हुए उनकी साक्षी दे रहा है।
पं. रामप्रसाद बिस्मिल जी को मुंशी इन्द्रजीत से सत्यार्थ प्रकाश भी पढ़ने को मिला। सत्यार्थ प्रकाश से आपको ईश्वर, जीवात्मा, प्रकृति, धर्म, कर्म, यज्ञ, सन्ध्या, जीवन-मृत्यु के रहस्य, पुनर्जन्म, सुख, दुख, बन्धन, मोक्ष, देश भक्ति, मातृभूमि से प्रेम, उसकी सेवा, माता-पिता-गुरूजनों-सज्जनों-वृद्धों की सेवा, मत-मतान्तरों का वास्तविक ज्ञान व उन सबमें सत्य व असत्य मान्ताओं का मिश्रण, धर्म केवल एक है जिसमें सर्वांश सत्य होता है, असत्य बिल्कुल नहीं होता आदि का ज्ञान हुआ एवं मूर्तिपूजादि पोषित पौराणिक वा कथित सनातन धर्म सहित बौद्ध, जैन, नास्तिक मत, ईसाई व इस्लाम मत की अवैदिक व अज्ञानपूर्ण बातों का ज्ञान भी हो गया। इतना ज्ञान होना, इसके धारण की भावना का होना, इनकी इच्छा, संकल्प, प्रयत्न करना व इससे सहमत होना — यह सब एक महात्मा के लक्षण हैं। रामप्रसाद बिस्मिल भी इसके साक्षी बने व इन्हें अपने जीवन में धारण किया।
आर्यसमाज, शाहजहांपुर में एक बार आर्य संन्यासी स्वामी सोमदेव जी का आगमन हुआ। स्वामीजी धार्मिक विद्वान होने के साथ-साथ देश की परतन्त्रता व उसके परिणामों से व्यथित थे। आपको इनका सत्संग प्राप्त हुआ। सत्यार्थप्रकाश, आर्याभिविनय, संस्कृत वाक्य प्रबोध एवं व्यवहार भानु जैसे ग्रन्थों को पढ़कर देश को आजाद कराने के बीजों का वपन तो आपके हृदय में हो ही चुका था। उनको खाद व पानी स्वामी सोमदेव जी के सत्संग, वार्तालाप व सेवा से प्राप्त हुआ। उनके परामर्श से आपने देश की आजादी के लिए कार्य करने का अपने जीवन का लक्ष्य बनाया। आर्य मनीषी डा. भवानी लाल भारतीय ने लिखा है कि स्वामी सोमदेव जी की शिक्षाओं से प्रभावित होकर रामप्रसाद बिस्मिल ने प्रतिज्ञा की – 'अंग्रेजी साम्राज्य का नाश करना मेरे जीवन का प्रमुख लक्ष्य होगा।' इस प्रतिज्ञा के बाद आपने युवकों का एक संगठन बनाया। इस संगठन की योजनाओं को पूरा करने के लिए शस्त्रों की आवश्यकता थी और उन्हें खरीदने के धन चाहिये था। आपने धन की प्राप्ति के लिए एक पुस्तक लिखी जिसका नाम था – 'अमेरिका को स्वतन्त्रता कैसे मिली?' इसकी बिक्री से प्राप्त धन अपर्याप्त था। दूसरा उपाय यह किया कि पास के एक गांव पर सशस्त्र हमला कर धन लूटा गया। यह ध्यान रखा गया कि किसी को भी शारीरिक क्षति नहीं पहुंचानी है। पराधीन भारत माता को आजाद करने के लिए उसी की सन्तानों से धन प्राप्त करने का उस समय उन्हें यही तरीका दिखाई दिया। इस घटना से आप पुलिस की जानकारी में तो आ गये परन्तु गिरिफ्तारी से बचते रहे। सन् 1920 में राजनैतिक कैदियों व अन्य अपराधियों को आम माफी दिये जाने के बाद आपके नाम जारी वारण्ट भी रद्द हो गया। तब आप अज्ञात स्थान से शाहजहांपुर आ गये। जब आपने युवकों का सशस्त्र दल बनाया तो सुप्रसिद्ध देशभक्त, शहीद व आपके अभिन्न मित्र अशफाक उल्ला खां भी आपके सम्पर्क में आये। दोनों में पक्की दोस्ती हो गई। अशफाक को अपने मित्र बिस्मिलजी को बहुत निकट से देखने का अवसर मिला। वह भी आर्यसमाज मन्दिर में आने लगे। हम अनुमानतः कह सकते हैं कि उन्होंने आर्य समाज के सत्यस्वरूप को काफी हद तक समझा था। एक बार कुछ मुसलमानों ने आर्यसमाज पर आक्रमण कर दिया। अशफाक उल्ला उस समय आर्य समाज मन्दिर में पं. रामप्रसाद बिस्मिल के साथ ही थे। अशफाक ने रामप्रसाद जी के साथ मिलकर आक्रमणकारियों को ललकारा था और उनके मंसूबे विफल कर दिये थे। इस मित्रता को सच्ची मित्रता कह सकते हैं और हिन्दू-मुस्लिम संबंधों की एक अच्छी मिसाल भी। इन दोनों की मित्रता के अनेक प्रसंग हैं, जो प्रेरणाप्रद हैं।
पं. राम प्रसाद बिस्मिल प्रसिद्ध उर्दू-फारसी के कवि भी थे। आपकी रचनायें आजादी के आन्दोलन के दिनों में सभी लोगों की जुबान पर होतीं थीं। आज भी उनमें ताजगी है, देश प्रेम व हृदय को छू लेने की उनमें अवर्णनीय क्षमता है। नमूने के रूप में कुछ को देखते हैं। फांसी के फन्दे को चूमने से पूर्व उन्होंने कहा था – 'मालिक तेरी रजा रहे और तू ही तू रहे। बाकी न मैं रहूं और न मेरी आरजू रहे।। जब तक कि तन में जान रगों में लहू बहे। तेरा ही जिक्र और तेरी जुस्तजू रहे।।' भारतमाता के प्रति अपने उद्गार व्यक्त करते हुए आपने लिखा था – 'यदि देश हित मरना पड़े मुझको सहस्रों बार भी। तो भी न मैं इस कष्ट को निज ध्यान में लाऊं कभी।। हे ईश भारत वर्ष में शत बार मेरा जन्म हो। कारण सदा ही मृत्यु का देशोपकारक कर्म हो।।' देश प्रेम पर उनकी पंक्तियां हैं – ''हम भी आराम उठा सकते थे घर पर रहकर, हमको भी पाला था मां–बाप ने दुख सह–सह कर। वक्ते रूखसत उन्हें इतना भी न आये कहकर, गोद में कभी आंसू बहें जो रूख से बहकर।। तिफ्ल उनको ही समझ लेना जी बहलाने का। देष सेवा का ही बहता है अब तो लहू नस–नस में। हमने जब वादि–ए गुरबत में कदम रखा था। दूर तक यादें वतन आईं थी समझाने को।” उनकी पंक्तियों 'सर फरोसी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाजू–ए कातिल में है।' पर तो एक फिल्मी गीत बन चुका है जो कभी देश के बच्चे-बच्चे की जुबान पर होता था। मरने से पूर्व उन्होंने लिखा – 'मरते बिस्मिल, रोशन, लाहिड़ी, अशफाक अत्याचार से, पैदा होगें सैकड़ों इनके रूधिर की धार से।'
अन्याय करना व अन्याय सहना दोनों ही गलत हैं। अंग्रेज देशवासियों पर अमानवीय अत्याचार करते थे। जाते-जाते भी वह देश का विभाजन करा गये और इस बात का भी प्रयास किया कि खण्डित भारत सबल देश न बन सके। रामप्रसाद बिस्मिल जी अंग्रेजों के भारतीयों के प्रति अन्याय को दूर कर देशवासियों के लिए सम्मान, ईश्वर व प्रकृति प्रदत्त समानता व स्वतन्त्रता के अधिकारों को प्राप्त कराना व सभी सामाजिक बन्धुओं व देशवासियों को दिलाना चाहते थे। इसी विचारधारा ने उन्हें सशस्त्र क्रान्ति का नायक बनाया। हम जब विचार करते हैं कि कोई किसी की सम्पत्ति को छीन लें या उसकी अचल सम्पत्ति पर कब्जा कर लें, तो उस अन्यायकारी को कैसे हटा कर सम्पत्ति को मुक्त कराया जाये? इसके दो ही तरीके हैं कि पहले उसे बताया व समझाया जाये कि उसने गलत किया है, वह सम्पत्ति लौटा दें। प्रायः सम्पत्ति छीनने वाला व लूटने वाला अधिक बलवान होने के कारण सत्य के आग्रह करने पर सम्पत्ति लौटाता नही हैं। यदि ऐसा होता तो चीन ने हमारी भूमि अब तक हमें लौटा दी होती। पाकिस्तान ने अनधिकृत कश्मीर हमें सौंप दिया होता। यहां तो अन्य भागों पर भी कब्जा करने के मंसूबे बनायें जाते हैं और गुप्त रूप से उन पर कार्य भी किया जाता है जिसमें हमारे निर्दोष लोग अपने प्राणों से हाथ धो बैठते हैं। जनता के हाथ में ताकत तो होती नहीं। वह सरकार की ओर देखती है। छीनी गई अपनी सम्पत्ति को अपने शत्रु से लेने का दूसरा तरीका केवल बल प्रयोग ही बचता है। यही तरीका बाद में महान देशभक्त नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने भी अपनाया जिसको सारे देश ने समर्थन दिया। उनका नारा – 'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा।' आज भी कानों में गूंज जाता है। ऐसा ही कुछ हमारे देशभक्त क्रान्तिकारी सोचते थे कि कैसे अपने अपमान को रोका जाये, हमें उचित अधिकार प्राप्त हों और देश स्वतन्त्र हो। उनके द्वारा अपनाया गया मार्ग गलत नहीं था। रामप्रसाद जी के सामने पृष्ठ भूमि कुछ अलग रही होगी। उन्होंने निर्णय किया कि शस्त्रों के लिए धन की जो आवश्यकता है उसे सरकारी खजाने का लूट कर पूरा किया जाये। वस्तुतः खजाने का धन भी जनता व देशवासियों का ही धन था। योजना बनाई गई और उसके अनुसार 9 अगस्त, सन् 1925 की रात्रि को जब रेल लखनऊ के निकट काकोरी स्टेशन पर पहुंचीं, तो उसे रोक कर उसमें सरकारी खजाने से 10,000 रूपये लूट लिए गये। यह घटना अपने आप में ही अत्याचारी अंग्रेजों के लिए एक सबक था कि उनके लाख प्रयत्नों, लोगो को दबाने व कुचलने के बाद भी ऐसी घटना घट गई। इससे बौखला करघटना में शामिल देशभक्तों की धर पकड़ का अभियान चला। रामप्रसाद बिस्मिल पकड़ लिये गये। उन पर दबाव डाला गया कि वह अपने सभी साथियों के नाम बताये। उन्हें निष्कृटतम् यातनायें दी गईं। वह सब उन्होने अपनी देशभक्ति के कारण सहन की। सरकार की ओर से दिखावे का मुकदमा चलाया गया और उन्हें मृत्यु दण्ड के रूप में फांसी की सजा दी गई। उनके अन्य साथियों अशफाक उल्ला खां, रोशन सिंह व राजेन्द्र लाहिड़ी को भी फांसी की सजा दी गई। हम जब विचार करते हैं तो हमें लगता है कि यह लोग अपनी मातृभूमि से प्रेम करते थे। उसे आजाद कराना चाहते थे। अंग्रेजों द्वारा जो भारतीयों का अपमान किया जाता था उसका यह लोग विरोध करते थे। इस सबका तो इन्हें पारितोषिक मिलना चाहिये था। यदि वस्तुतः अंग्रेज न्यायप्रिय होते तो कदापि इन देशभक्त युवकों को सजा न देते। अपने देश में भी तो वह इसी प्रकार से देश भक्ति के कार्य करते हैं। इससे यह सिद्ध है कि सत्य व न्याय का कोई गुण हमारे तत्कालीन शासकों में नही था। हमें देश के उन तत्कालीन बड़े नेताओं से भी शिकायत हैं जो इन युवकों को फांसी दिए जाने पर मौन व खामोश थे। इतना तो कह ही सकते कि यह निर्णय गलत है। अस्तु। पं. रामप्रसाद बिस्मिल को काल कोठरी में रखा गया। वहां का वातावरण पशुओं से भी बदतर था। इस पर भी उन्होंने वहां योग साधना की और यह एक सुखद आश्चर्य है कि उस दूषित वातावरण में जहां मनुष्य जीवित नहीं रह सकता, उनके शरीर का भार घटने के स्थान पर बढ़ा। वहां रहते हुए उन्होंने अपनी आत्म कथा भी लिखी, जो सौभाग्य से उपलब्ध है और सभी युवक व वृद्धों के लिए पठनीय है। इस प्रेरणादायक आत्मकथा को स्कूली शिक्षा में सम्मिलित किया जाना चाहये था जिससे युवापीढ़ी देशभक्त बनती। परन्तु कहें किसे, सर्वत्र अहितकर वातावरण है। अब से 88 वर्ष पहले, 19 दिसम्बर, सन् 1927 को उन्हें गोरखपुर में फांसी पर चढ़ाया गया। प्रातः उठकर उन्होंने स्नान कर व्यायाम व सन्ध्या की और हवन किया। फांसी के फन्दे पर खड़े होकर अपनी इच्छा व्यक्त की और कहा – 'I wish the downfall of British Empire'. यह कह कर वेदमन्त्र 'ओ३म् विश्वानिदेव सवितरदुरितानि परासुव यद् भद्रं तन्न आ सुव।' कह कर फांसी पर झूल गये। इस समय आपकी आयु लगभग 29 वर्ष थी। देश को आजाद कराने की उनकी भावना आंशिक रूप से 15 अगस्त, सन् 1947 को पूरी हुई। आजाद होने पर भी उनके स्वप्नों के अनुरूप देश नहीं बन सका। आज भी सत्य व न्याय पर आधारित अध्यात्म ज्ञान से सम्पन्न देश के निर्माण का कार्य शेष है जो कालान्तर मे पूरा होगा। युवा पीढ़ी उनके जीवन से प्रेरणा ग्रहण करे, यह अपेक्षा की जाती है। उनके बलिदान दिवस के अवसर पर हमारी पं. रामपप्रसाद बिस्मिल को हार्दिक श्रद्धांजलि। उनके अन्य साथी देशभक्त वीर अशफाक उल्ला खां, रोशन सिंह व राजेन्द्र लाहिड़ी जी को श्री सश्रद्ध सादर नमन।