गृहस्थाश्रम की सफलता के उपाय (वर्ण-धर्म)
गृहस्थाश्रम की सफलता के उपाय
वर्ण-धर्म
चारों वर्णों के कर्त्तव्य, कर्म और गुण भी पृथक्-पृथक् हैं।
पढ़ना-पढ़ाना, यज्ञ करना-कराना, दान देना और लेना- ये छः कर्म ब्राह्मण के हैं। वास्तव में ''प्रतिग्रह'' लेना नीच कर्म है। 'शम, दम, तप, शौच, क्षान्ति, आर्जव, ज्ञान, विज्ञान और आस्तिक्य'- छः पहिले और नौ पिछले मिलाकर- यह पन्द्रह कर्म और गुण ब्राह्मण वर्णस्थ मनुष्यों में अवश्य होने चाहियें।
इसी प्रकार ग्यारह क्षत्रिय वर्ण के कर्म और गुण हैं- अर्थात् प्रजा-रक्षण, दान, इज्या- अग्निहोत्रादि यज्ञ करना-कराना, अध्ययन, विषयों में न फँसना, शौर्य, धृति (धैर्य), दाक्ष्य- राजा प्रजा सबन्धी व्यवहार और शास्त्रों में चतुराई, युद्ध से न डरना, न भागना, दान, ईश्वरभाव-पक्षपातरहित होकर सबके साथ यथायोग्य वर्तना, प्रतिज्ञा पूरी करना-ये क्षत्रियों के धर्म हैं।
वैश्यों के गुण-कर्माी इसी प्रकार गिनाये गये हैं- अर्थात् पशु-रक्षा, दान, इज्या (अग्निहोत्रादि), अध्ययन, वणिक्पथ (सब प्रकार के व्यापार करना), कुसीद (याज-सौ वर्ष में भी दूने से अधिक न लेना), कृषि (खेती) करना- यह सब वैश्य-कर्म समझे गये हैं।
शूद्र को सेवा का अधिकार है। वह भी इसलिये कि वह विद्या रहित है, मूर्ख है। जो विज्ञान-सबन्धी कुछ भी काम नहीं कर सकता और केवल शरीर से ही कार्य कर सकता है, वही उससे लेना उचित है। वर्णों को अपने-अपने अधिकार में प्रवृत्त करना राजा आदि सयजनों का काम है।