इस्लाम में आज़ादी एक कड़वा सच

 




        कोई व्यक्ति अपने मत को त्यागकर इस्लाम मत को अपना ले तो कोई सजा का प्रावधान नहीं। लेकिन जैसे ही इस्लाम मत को छोड़कर अन्य मत अपना ले तो उसकी सजा मौत है।





       क्या अब भी इस्लामी तालीम में कोई स्वतंत्रता बाकी रही ?


       क्या मृत्यु के डर से भयभीत रहने को आज़ादी कहते हैं ?


       क्या अल्लाह वास्तव में इतना निर्दयी है की केवल मत बदलने से ही जन्नत जहन्नम तय करता है – तो कैसे अल्लाह दयावान और न्यायकारी ठहरा ?


       सच्चाई तो ये ही है की जब तक इस्लाम नहीं अपनाया जाता – वह व्यक्ति स्वतंत्र होता है – पर जैसे ही इस्लाम अपनाया वह आशिक़ – ए – रसूल बन जाता है –
अर्थात हज़रत मुहम्मद का गुलाम होना स्वीकार करता है –


अल्लाह ने सबको आज़ादी के अधिकार के साथ पैदा किया – यदि क़ुरआन की ये बात सही है तो कैसे मुस्लमान अपने को मुहम्मद साहब के गुलाम (आशिक़ – ए – रसूल) कहलवाते हैं ?


क्या इसी का नाम आज़ादी है ?


तो गुलामी का नाम क्या होगा ?


ऐसी स्तिथि में मानवीय स्वतंत्रता कहाँ है ?


वैचारिक स्वतंत्रता कहाँ हैं ?


धार्मिक स्वतंत्रता कहाँ है ?


शारीरिक स्वतंत्रता कहाँ हैं ?


ए मुसलमानो जरा सोच कर बताओ ….


कहाँ है आज़ादी ?




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