झूठ और सत्य
सांख्य दर्शन में महर्षि कपिल जी ने लिखा है, कि संसार उसे कहते हैं जहां सदा राग द्वेष का व्यवहार चलता ही रहता है, अर्थात झगड़ा होता ही रहता है।
किस में झगड़ा होता है? सत्य और झूठ में। ईमानदारी और बेईमानी में। न्याय और अन्याय में, इत्यादि।
जब दो व्यक्ति आपस में झगड़ते हैं, तब झूठा व्यक्ति, सच्चे व्यक्ति पर आरोप लगाता है। फिर सच्चा व्यक्ति अपनी सच्चाई को बताता है। तो झूठा व्यक्ति यह समझता है, कि मैं इसको छल कपट से चालाकी से दबा दूँगा। और वह ऐसा करता भी है. ऐसा करने के लिए वह अपनी आवाज को ऊंचा करता है। झूठा व्यक्ति जोर-जोर से चिल्लाता है, और वह समझता है कि मेरे जोर से चिल्लाने से दूसरे लोग भी यह समझेंगे कि मैं सत्य बोल रहा हूं। जबकि ऐसा होता नहीं है।
अगर कोई जोर जोर से चिल्लाए, कि 5x8=33. तो क्या जोर से चिल्लाने से यह गणित का उत्तर ठीक हो जाएगा? नहीं होगा। बस ऐसा ही भ्रम उस झूठ बोलने वाले को होता है। उसके जोर से चिल्लाने से, उसका झूठ सत्य नहीं बन जाता। हां, कुछ देर के लिए लोगों को यह भ्रम या संशय अवश्य हो जाता है, कि जोर से चिल्लाने वाला व्यक्ति शायद सत्य बोल रहा है।
उस समय सत्यवादी व्यक्ति देखता है, कि मेरी बात का कुछ प्रभाव नहीं पड़ रहा है। मेरी बात की सच्चाई को कोई समझ नहीं रहा। ऐसा अनुभव करके वह चुप हो जाता है। उस समय सत्यवादी व्यक्ति मौन धारण कर लेता है। उसे देख कर झूठा व्यक्ति अंदर तक हिल जाता है। घबरा जाता है। तब उसे अपना पाप अंदर ही अंदर कचोटता है कि मैंने झूठ को जोर से चिल्ला कर अपनी बात को लोगों में स्थापित तो कर दिया; परंतु ईश्वर तो सत्य को जानता ही है, वह तो मुझे छोड़ेगा नहीं।
इस प्रकार से सत्यवादी व्यक्ति का मौन, झूठे व्यक्ति को हिला कर रख देता है।
उस सत्यवादी व्यक्ति की रक्षा अंत में ईश्वर तो करता ही है। ईश्वर उसके नुकसान की पूर्ति कर देता है , और झूठे व्यक्ति को न्याय के अनुसार उचित दंड देता है.
अब झूठ और सत्य के, दोनों रास्ते आपके सामने हैं, जो अच्छा लगे, उस पर चलें।
- स्वामी विवेकानंद परिव्राजक