जिसने काँटे बोया है ॥
पल को पाकर
अमृत खाकर
जिसने संयत खोया है ।
जीवन के पथ
चढ़कर रथ
जिसने काँटे बोया है ॥
वो अभिमानी
है अज्ञानी
सागर की पा काया भी ।
दीन हीन
है वह मीन
कर में कुबेर की पा माया भी ॥
अभिमान नही
मान करो
जिवन में सम्मान भरो
बादल सी
गरज भले
सबमें अमृत पान भरो ॥
जाते दुख के
आते सुख के
पल पावस सी ले हरियाली ।
देखो सूल
होते फूल
तितली पंखुडि सी हो डाली ॥
अभिमान किया था
बुझा दिया था
महा प्रतापी ज्ञानी रावण का ।
सौ कौरव
का गौरव
टिका नही हाल देख ले रण का ॥
ग्रहण लगा है
जो नित्य जगा है
लज्जित हो छिपना पड़ता है ।
मुश्किल पाता
भाग्य बिधाता
जो आये उसमें जड़ता है ॥
ईशु दुआ पा
अभिमान हुआ
सागर को भी सतयुग में ।
हुआ है खारा
प्रेम नजारा
देखो तो इस कलियुग में ॥
बुझा न पाए
भरा रह जाए
प्यास किसी का जीवन में ।
अगम भले
अनंत पले
वह अथाह इस मधुवन में ॥
वह सोना है
बस रोना है
झिले नाक है जिससे अपना ।
सरस बने नहिं
तरस रहे नहिं
वह बड़प्पन नहिं सपना है ॥