क्या वेदों में इतिहास हैं?

क्या वेदों में इतिहास हैं?



वेदों के विषय में एक शंका सदा देखने को मिलती हैं कि क्या वेदों में इतिहास हैं? हिन्दू समाज श्री राम, कृष्ण, गणेश, विभिन्न देवी-देवता जैसे इन्द्र, वरुण, अग्नि आदि से लेकर भौगोलिक पर्वत, राजाओं के राज्य आदि का वर्णन मानता हैं। जबकि विभिन्न मत-मतान्तर अपने अपने मत प्रवर्तक जैसे जैन मत वाले महावीर[i], कबीर पंथी वाले कबीर साहिब[ii] , इस्लामिक मत वाले मुहम्मद साहिब[iii], ईसाई मत वाले ईसा मसीह[iv] आदि का वेदों में वर्णन मानते हैं । कुछ लेखक वेदों में गंगा, सरस्वती[v] आदि नदियों का वर्णन होना मानते है।

शंका 1- वेदों में इतिहास मानने में क्या कठिनाई है?



समाधान- वेद शाश्वत हैं। वेद परमात्मा की नित्य वाणी है[vi]। वेदों में सृष्टि रचना, वेद रचना आदि नित्य इतिहास ही हो सकता है, किन्तु किसी व्यक्ति विशेष का इतिहास नहीं हो सकता[vii]। इस सृष्टि के आदि में चारों वेद ऋषियों के हृदय में प्रकाशित हुए। वेद ज्ञान का भी दूसरा नाम है। वेदों के माध्यम से ईश्वर द्वारा समस्त मानव जाति को ज्ञान प्रदान किया गया जिससे वह अपनी उत्पत्ति के लक्षय को प्राप्त कर सके। यह ज्ञान ईश्वर द्वारा जिस प्रकार से वर्तमान सृष्टि में प्रदान किया गया उसी प्रकार से पूर्व की सृष्टियों में भी दिया जाता रहा और आगे आने वाली सृष्टियों में भी दिया जायेगा। जिस ज्ञान का उपदेश परमात्मा द्वारा सृष्टि के आरम्भ में मनुष्यों को दिया गया उसमें किसी भी प्रकार का इतिहास नहीं हो सकता। क्यूंकि इतिहास किसी रचना में उससे पूर्वकाल में उत्पन्न मनुष्यों का हुआ करता है। सृष्टि के आरम्भ में जब कोई मनुष्य ही नहीं था फिर उनका किसी भी प्रकार का इतिहास वेदों में पहले से ही वर्णित होना संभव ही नहीं है। मनुष्य का ऐतिहासिक क्रम वेदों की उत्पत्ति के पश्चात ही आरम्भ होता है।

जो लोग वेदों में श्री राम, कृष्ण आदि का इतिहास मानते है। क्या वे यह भी मानेगे की हर सृष्टि में श्री राम को वनवास का कष्ट भोगना पड़ा? क्या हर सृष्टि में सीता हरण हुआ? क्या हर सृष्टि में कृष्ण को कारागार में जन्म लेना पड़ा? क्या हर सृष्टि में यादवकुल का नाश हुआ? नहीं ऐसा कदापि संभव नहीं हैं। ईश्वर द्वारा सभी सांसारिक वस्तुओं के नाम वेद से लेकर रखे गए हैं, न कि इन नाम वाले व्यक्तियों या वस्तुओं के बाद वेदों की रचना हुई है। जैसे किसी पुस्तक में यदि इन पंक्तियों के लेखक का नाम आता है तो वह इस लेखक के बाद की पुस्तक होगी। इस विषय में मनुस्मृति की साक्षी भी है।

सर्वेषां तु स नामानि कर्माणि च पृथक् पृथक्।

वेद शब्देभ्यः एवादौ पृथक् संस्थाश्च निर्ममे।। मनुस्मृति[viii]

अर्थात ब्रह्मा ने सब शरीरधारी जीवों के नाम तथा अन्य पदार्थों के गुण, कर्म, स्वभाव नामों सहित वेद के अनुसार ही सृष्टि के प्रारम्भ में रखे और प्रसिद्ध किये और उनके निवासार्थ पृथक् पृथक् अधिष्ठान भी निर्मित किये।



शंका 2- वेदों में इतिहास होना कैसे प्रचलित हुआ?



समाधान- वेदों की सर्वानुक्रमणियों तथा बृहद्देवता आदि ग्रंथों में वेदमंत्रों और सूक्तों के छन्दों, ऋषियों और देवताओं आदि का परिगमन किया गया है। इन ग्रंथों में अनेक वेदमंत्रों और सूक्तों के साथ अनेक कथा और कहानियों का भी सम्बन्ध जोड़ दिया गया है। सायणचार्य आदि भाष्यकारों ने अपने भाष्यों में उन्हीं कहानियों को आधार बनाकर वेदों में इतिहास प्रचलित कर दिया। जहाँ भी उन वेदमंत्रों में भारत के इतिहास में वर्णित किसी प्राचीन ऋषियों और राजाओं के नामों का उल्लेख मिलता, भाष्यकर्ता उन्हीं नामों को आधार बनाकर कहानियों की रचना कर देते थे। जैसे वेदमंत्र उनके जीवनवृतान्त का वर्णन कर रहे हो। इन कहानियों को पढ़कर न केवल अनेक भ्रांतियां उत्पन्न होती हैं। अपितु उससे वेद के प्रति अनादर एवं अश्रद्धा की भावना उपजती हैं। विदेशी विद्वानों जैसे मैक्समूलर, ग्रिफ्फिथ आदि की वेदों के प्रति तुच्छता और सारहीनता की भावना भी इन्हीं मनगढ़त एवं हास्यपद कहानियों के कारण हुई। वर्तमान के भारतीय लेखक भी उन्हीं का अनुसरण करते हुए वेदों के प्रति अनास्था का प्रदर्शन करने में पीछे नहीं रहते। यह वेदों का दोष नहीं हैं अपितु उन भारतीय वेदभाष्यकारों और सर्वानुक्रमणियों के लेखकों का दोष हैं। जिनके अज्ञान से वेदों में इतिहास होना प्रचलित हुआ।

शंका 3- स्वामी दयानंद की वेदों में इतिहास के सम्बन्ध में क्या मान्यता है?


समाधान- आधुनिक भारत में स्वामी दयानंद प्रथम चिंतक है जो वेदों में इतिहास को नहीं मानते। सत्यार्थ प्रकाश में स्वामी जी लिखते है- "इतिहास जिसका हो, उसके जन्म के पश्चात लिखा जाता है। वह ग्रन्थ भी उसके जन्में पश्चात होता है। वेदों में किसी का इतिहास नहीं। किन्तु जिस जिस शब्द से विद्या का बोध होवे, उस उस शब्द का प्रयोग किया हैं। किसी विशेष मनुष्य की संज्ञा या विशेष कथा का प्रसंग वेदों में नहीं है[ix]। "

ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका में भी स्वामी जी लिखते है- इससे यह सिद्ध हुआ कि वेदों में सत्य अर्थों के वाचक शब्दों से सत्य विद्याओं का प्रकाश किया है, लौकिक इतिहास का नहीं। इससे जो सायणाचार्य आदि लोगों ने अपनी अपनी बनायीं टीकाओं में वेदों में जहाँ-तहाँ इतिहास वर्णन किये हैं, वे सब मिथ्या हैं[x]

यजुर्वेद[xi] का उदहारण देकर स्वामी जी सिद्ध करते है कि वेदों की संज्ञाएँ यौगिक हैं, रूढ़ नहीं हैं। इस मंत्र में जमदग्नि, कश्यप मुनियों और इन्द्रादि देवों का उल्लेख मिलता है। दूसरे भाष्यकर्ता इस मंत्र में इतिहास की खोज करते हैं।जबकि स्वामी दयानंद जमदग्नि से चक्षु, कश्यप से प्राण एवं देव से विद्वान मनुष्यों का आशय प्रस्तुत करते हैं। स्वामी जी अर्थ करते हैं की हमारे चक्षु और प्राण तिगुनी आयु वाले हो और देव विद्वान लोग जैसे ब्रह्मचर्य आदि द्वारा दीर्घ आयु को प्राप्त करते है। वह हमें भी प्राप्त हो। इसी क्रम से स्वामी दयानंद ने सभी वेद मन्त्रों का भाष्य किया है, जिसमें इतिहास का कोई वर्णन नहीं मिलता हैं[xii]। स्वामी दयानंद ने पुरातन ऋषि-महर्षियों की पद्यति को अपनाया तथा व्याकरण,निरुक्त एवं ब्राह्मण ग्रन्थादि के आधार पर यौगिक प्रक्रिया को अपनाकर अपने वेदभाष्य में यह स्पष्ट कर दिया कि वेदों में व्यक्तिवाचक लगने वाले शब्द वस्तुत: विशेषणवाची हैं तथा किन्हीं गुण-विशेषों का बोध कराते हैं।

शंका 4- वेदों में इतिहास नहीं है कुछ उदहारण के माध्यम से अपनी मान्यता को सिद्ध कीजिये।

समाधान- वेदों में इतिहास सम्बन्धी भ्रान्ति के चलते पाठकों यह यह भ्रम भी हो जाता है कि वेदों में अनेक मन्त्रों में अश्लीलता का वर्णन मिलता हैं। जैसे प्रजापति का अपनी दुहिता (बेटी) से सम्बन्ध[xiii], इसी प्रकार से इन्द्र अहिल्या की कथा, मित्र-वरुण एवं उर्वशी अप्सरा[xiv] आदि की कथा का समाधान इसी पुस्तक में अन्य स्थान पर कर दिया गया हैं[xv] ।




वेदों में इतिहास सम्बंधित अनेक कथाएँ मन्त्रों में नहीं मिलती अपितु पुराण और दूसरे ग्रंथों में पायी जाती हैं। मंत्र में मिलने वाले एक आध शब्द को आधार बनाकर वेद के अनुक्रमणिकाकार और उनका अनुसरण करने वाले भाष्यकार कहानी बना लेते थे।




कुछ उदहारण देकर हम यह सिद्ध करेंगे कि वेदों में इतिहास मानना केवल भ्रान्ति हैं।


1.इन्द्र वृत्रासुर की कथा

ऋग्वेद[xvi] के मंत्रो में इन्द्र और वृत्रासुर की कथा का उल्लेख हैं जिसमें कहा गया हैं की तवष्टा का पुत्र वृत्रासुर ने देवों के राजा इन्द्र को युद्ध में निगल लिया। तब सब देवता भय से विष्णु के पास गए और विष्णु ने उसे मारने का उपाय बताया की मैं समुद्र के फेन में प्रविष्ट हो जाऊंगा। तुम लोग उस फेन को उठा कर वृत्रासुर को मारना, वह मर जायेगा।

स्वामी दयानंद इस मंत्र का उचित अर्थ करते हुए कहते हैं की इन्द्र सूर्य का नाम है और वृत्रासुर मेघ को कहते है। आकाश में मेघ कभी सूर्य को निगल लेते है कभी सूर्य अपनी किरणों से मेघों को हटा देता हैं। यह संग्राम तब तक चलता हैं जब तक मेघ वर्षा बनकर पृथ्वी पर बरस जाते है और फिर उस जल की नदियाँ बनकर सागर में जाकर मिल जाती हैं। स्वामी जी ने इंद्र तथा वृत्र, सूर्य तथा मेघ के दृष्टान्त से राजा के गुणों का उल्लेख किया हैं।

2.दधिची की हड्डियो से वृत्र हनन की कथा

ऋग्वेद[xvii] के आधार पर एक कथा प्रसिद्द हैं की एक बार वृत्र नामक राक्षस ने सारी त्रिलोकी में उपद्रव मचा रखा था। देवता भी उससे तंग आ गए थे। तब सभी देवता विष्णु जी की शरण में गए। उन्होंने बताया की दधीचि ऋषि की हड्डियों से बने वज्र से वृत्र को मारा जा सकता है। तब देवो की प्रार्थना पर दधीचि ने अपना शरीर त्याग दिया। इन्द्र ने उनकी हड्डियों से वज्र तैयार किया जिससे वृत्र मारा गया।


स्वामी दयानंद इस मंत्र का आधिदैविक अर्थ इस प्रकार हैं की दधीचि कहते है सूर्य को और उसकी हड्डिया उसकी किरणे हैं और वृत्र का अर्थ हैं मेघ। जब सब जगत में मेघ छा जाते हैं तब सूर्य अपनी किरणों से मेघो को छेद कर वर्षा कर देता हैं। इसका आध्यात्मिक अर्थ इस प्रकार हैं की इन्द्र का अर्थ है आत्मा, दधिची का अर्थ है मन, दधिची की हड्डिया है उच्च मनोवृतिया और वृत्र का अर्थ है पाप वासना रूपी विचार। आत्मा अपने मन के उच्च विचारों से पाप वासना आदि कुविचारों का नाश कर देता है।

3.देवापि-शन्तनु की कहानी

ऋग्वेद[xviii] के आधार पर एक कथा प्रचलित हैं की देवापि और शन्तनु दोनों भाई थे। शन्तनु छोटे थे पर राजा बन गए जिससे नाराज होकर देवापि वन जाकर तपस्या में लीन हो गए। राजा शन्तनु के राज्य में 12 वर्ष तक वर्षा नहीं हुई। उन्होंने ब्राह्मणों से पूछा तो बताया की राज्य पर अधिकार देवापि का था जिस कारण वर्षा नहीं हुई। शन्तनु वन जाकर देवापि को बनाने की कोशिश करते है। वह मना कर देते पर यज्ञ का पुरोहित बनना स्वीकार करते है। जिससे वर्षा हो सके फिर शन्तनु ने देवापि को बुलाकर वृष्टि यज्ञ कराया।जिससे राज्य में पुष्कल वर्षा हुई।

निरुक्त[xix] के आधार पर शन्तनु शब्द का अर्थ होता है जो राजा ऐसा प्रयत्न करता हैं की उसके राज्य में सबको सुख प्राप्त हो, सब शरीर निरोग, प्रसन्न और सुखी रहे। उसी प्रकार प्रजा भी यह चाहती हो की हमारा राजा भी स्वस्थ, सुखी, निरोगी होता हुआ युगों युगों तक जीवित रहे, उस राजा को शन्तनु कहते है और देवापि अर्थात उस गुण वाले व्यक्ति को जिसमें देवता समान गुण हो उसे यज्ञ का पुरोहित बना कर वृष्टि यज्ञ करवाने से यज्ञ सफल होता हैं।

पंडित ब्रह्मदत्त जिज्ञासु[xx] इसी मंत्र का विशिष्ट अर्थ लिखते है। देवापि को विद्युत जो मरुतों से उत्पन्न होता है का है। उसका भ्राता शन्तनु (शरीर को शान्ति देनेवाला) उदक-जल है। यहाँ पर वर्षा कराने में विद्युत के महत्व को प्रकाशित करना हैं। इसे ऐतिहासिक कथा से जोड़ने से वेदों के सही अर्थ का लोप हो गया और एक निरर्थक कहानी प्रचलित हो गयी।

वेदों के सही अर्थ को न जानकर उससे इतिहास की कहानियां गढ़ लेने से वेदों की उच्च शिक्षा से हम वंचित हो जाते है। यही वेदों में इतिहास मानने का सबसे बड़ा दोष हैं।

शंका 5- वेदों में सरस्वती, गंगा, यमुना आदि नदियों का वर्णन मिलता हैं। सरस्वती आदि नदियां भूगोल का विषय है न कि इतिहास का विषय है। वेदों में नदियों के अस्तित्व को मानने में क्या कठिनाई हैं।

समाधान- वेद में सरस्वती, गंगा, यमुना, कृष्ण आदि ऐतिहासिक शब्द आते हैं। पर ये ऐतिहासिक वस्तुओं या व्यक्तियों के नाम नहीं हैं। वेद में इनके अर्थ कुछ और हैं। वेद के अर्थ समझने के लिए हमारे पास प्राचीन ऋषियों के प्रमाण हैं। निघण्टु में वाणी के 57 नाम हैं, उनमें से एक सरस्वती भी है। अर्थात् सरस्वती का अर्थ वेदवाणी है। ब्राह्मण ग्रंथ वेद व्याख्या के प्राचीनतम ग्रंथ है। वहाँ सरस्वती के अनेक अर्थ बताए गए हैं। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं-



1- वाक् सरस्वती।। वाणी सरस्वती है[xxi]

2- वाग् वै सरस्वती पावीरवी।। पावीरवी वाग् सरस्वती है[xxii]

3- जिह्वा सरस्वती।। जिह्ना को सरस्वती कहते हैं[xxiii]

4- सरस्वती हि गौः।। वृषा पूषा। गौ सरस्वती है[xxiv] अर्थात् वाणी, रश्मि, पृथिवी, इन्द्रिय आदि। अमावस्या सरस्वती है। स्त्री, आदित्य आदि का नाम सरस्वती है।

5- अथ यत् अक्ष्योः कृष्णं तत् सारस्वतम्।। आंखों का काला अंश सरस्वती का रूप है[xxv]

6- अथ यत् स्फूर्जयन् वाचमिव वदन् दहति। अग्नि जब जलता हुआ आवाज करता है, वह अग्नि का सारस्वत रूप है[xxvi]

7- सरस्वती पुष्टिः, पुष्टिपत्नी। सरस्वती पुष्टि है और पुष्टि को बढ़ाने वाली है[xxvii]

8-एषां वै अपां पृष्ठं यत् सरस्वती। जल का पृष्ठ सरस्वती है[xxviii]

9-ऋक्सामे वै सारस्वतौ उत्सौ। ऋक् और साम सरस्वती के स्रोत हैं।

10-सरस्वतीति तद् द्वितीयं वज्ररूपम्। सरस्वती वज्र का दूसरा रूप है[xxix]

ऋग्वेद के 6/61 सूक्त का देवता सरस्वती है। स्वामी दयानन्द ने यहाँ सरस्वती के अर्थ विदुषी, वेगवती नदी, विद्यायुक्त स्त्री, विज्ञानयुक्त वाणी, विज्ञानयुक्ता भार्या आदि किये हैं।

सरस्वती शब्द को एक विशेष नदी मानकर भाष्यकार किस प्रकार भ्रम में पड़े हैं, जैसे एक झूठ को सिद्ध करने के लिए हजार झूठ बोले जा रहे हों, इसका एक उदाहरण ऋग्वेद के इस मंत्र से समझा जा सकता है-

एका चेतत् सरस्वती नदीनां शुचिर्यती गिरिभ्यः आ समुद्रात्।

रायश्चेतन्ती भुवनस्य भूरेर्घृतं पयो दुदुहे नाहुषाय[xxx]।।

सायणाचार्य ने यहाँ सरस्वती को एक विशेष नदी माना और कल्पना के घोड़े पर सवार हो गए। वे इसका अर्थ करते हैं- (नदीनां शुचिः) नदियों में शुद्ध (गिरिभ्यः आसमुद्रात् यती) पर्वतों से समुद्र तक जाती हुई (एका सरस्वती) एक सरस्वती नदी ने (अचेतत्) नाहुष की प्रार्थना जान ली और (भुवनस्य भूरेः रायः चेतन्ती) प्राणियों को बहुत से धर्म सिखाती हुई (नाहुषाय घृतं पयो दुदुहे) नाहुष राजा के एक हजार वर्ष के यज्ञ के लिए पर्याप्त घी दूध दिया।



यहाँ नहुष के अर्थ पर विचार न करने के कारण इस इतिहास की कल्पना करनी पड़ी। निघण्टु[xxxi] के अनुसार मनुष्य के 25 पर्याय हैं उनमें एक नहुष भी है। घृतं, पयः भी वेद विद्या है[xxxii]

आर्ष वेदार्थ शैली के अनुसार इस मंत्र का अर्थ इस प्रकार है[xxxiii]-

(एका नदी शुचिः गिरिभ्यः आसमुद्रात् यती) जैसे एक नदी गिरियों से शुद्ध पवित्र जल वाली समुद्र तक जाती हुई जानी जाती है। उसी प्रकार (सरस्वती एका) एक अद्वितीय सर्वश्रेष्ठ उत्तम ज्ञानवाली प्रभु वाणी (गिरिभ्यः ) ज्ञानोपदेष्टा गुरुओं से (आ समुद्रात्) जनसमूहरूप सागर तक प्राप्त होती हुई जानी जाती है। अर्थात् उससे लोग ज्ञान प्राप्त करें। वह (भुवनस्य भूरे चेतन्ती) संसार और जन्तु जगत् को प्रभूत ऐश्वर्य का ज्ञान कराती हुई (नाहुषाय) मनुष्य मात्र को (घृतं पयः दुदुहे) प्रकाशमय, पान करने योग्य रस के तुल्य ज्ञान रस को बढ़ाती है।

प्रकरणवश एक मंत्र पर और विचार करना उचित होगा, जिसमें गंगा आदि दस नदियों के नाम बताए गए हैं।

इमं मेे गंगे यमुने सरस्वति शुतुद्रि स्तोमं सचता परुष्ण्या।

असिक्न्या मरुद्वृधे वितस्तयार्जीकीये शृणुह्या सुषोमया[xxxiv]।।

स्वामी दयानन्द के अनुसार इडा, पिंगला , सुषुम्णा और कूर्मनाड़ी आदि की गंगा आदि संज्ञा है। योग में धारणा आदि की सिद्धि के लिए और चित्त को स्थिर करने के लिए इनकी उपयोगिता स्वीकार की गई है। इन नामों से परमेश्वर का भी ग्रहण होता है। उसका ध्यान दुःखों का नाशक और मुक्ति को देने वाला होता है। इस मंत्र के प्रकरण में पूर्व से भी ईश्वर की अनुवृत्ति है।

इन प्रमाणों से यह सिद्ध होता हैं कि

1- वेद में सरस्वती नाम अनेक स्थानों पर आया है।

2- वेद में सरस्वती का उल्लेख नदी के रूप में भी आया है।

3- वेद में सरस्वती का उल्लेख धरती के किसी स्थान विशेष पर बहने वाली नदी के रूप में नहीं आया है। न ही वेद में सरस्वती से संबंधित किन्हीं व्यक्तियों का इतिहास है।

4- सरस्वती नदी की ऐतिहासिकता को वेद से प्रमाणित करने का प्रयास वेद का अवमूल्यन करना है।

यही नियम वेद में वर्णित विभिन्न नामों, विभिन्न स्थलों, नदियां आदि पर भी लागु होता हैं जिससे कुछ लोग वेदों में इतिहास होने की कल्पना कर लेते हैं।








[i] ऋग्वेद 1/32/6 में महावीर शब्द आया हैं जिसका अर्थ इन्द्र हैं जबकि जैन मत का पालन करने वाले उससे महावीर तीर्थंकर को दर्शाने की कोशिश करते है।


[ii] यजुर्वेद ३२/११ मंत्र में कविर्मनीषी शब्द से कबीरपंथी साकार परमेश्वर को दिखाने का प्रयास करते है जबकि इसी मंत्र में ईश्वर को शुक्रम (सर्वशक्तिमान), अकायम (स्थूल, सूक्षम और कारण शरीर रहित), अवर्णम (छिद्र रहित और नहीं छेद सकने योग्य), अस्नाविरम (नाड़ी आदि बंधन से रहित), शुद्धम (अविद्या आदि दोषों से रहित), परिअगात (सब और से व्याप्त), स्वयंभू (जिसके माता-पिता, गर्भवास, जन्म, वृद्धि और मरण आदि नहीं होते), शाश्र्वतिभ्य (उत्पत्ति और विनाश रहित) कहा गया हैं।


[iii] अथर्ववेद 20/127/1-13 मन्त्रों में नराशंस शब्द से मुहम्मद साहिब की कल्पना कुछ इस्लाम अनुयायी मानते है।


[iv] यजुर्वेद के 40वें अध्याय के ईशावास्यम मंत्र में ईशा से ईसा मसीह की तुलना कुछ ईसाई मत को मानने वाले करते है


[v] ऋग्वेद के सप्तम मण्डल के 95-96 सूक्तों में सरस्वती का उल्लेख मिलता है।


[vi] ऋग्वेद 8/75/6


[vii] ऋग्वेद 10/90/9, यजुर्वेद 31/7


[viii] मनुस्मृति 2/87


[ix] सत्यार्थप्रकाश सप्तम समुल्लास


[x] ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका- वेद संज्ञा विचार प्रकरण


[xi] यजुर्वेद 3/62


[xii] एक अन्य उदहारण में स्वामी दयानंद विश्वामित्र का व्यक्ति विशेष के स्थान पर सबके मित्रत्व का अर्थ प्रचलित करते है।


[xiii] ऋग्वेद 1/164/33 और ऋग्वेद 3/3/11


[xiv] ऋग्वेद 7/33/11


[xv] क्या वेदों में अश्लीलता हैं?


[xvi] ऋग्वेद 1/32/1-7


[xvii] ऋग्वेद 1/84/13


[xviii] ऋग्वेद 10/98/7


[xix] निरुक्त 2/12


[xx] देवापि और शन्तनु के वैदिक आख्यान का वास्तविक स्वरुप


[xxi] शतपथ 7/5/1/31


[xxii] शतपथ 7/3/39


[xxiii] शतपथ 12/9/1/14


[xxiv] शतपथ 2/5/1/11


[xxv] शतपथ 12/9/1/12


[xxvi] ऐतरेय 3/4


[xxvii] तै0 2/5/7/4


[xxviii] तै0 1/7/5/5


[xxix] कौ0 12/2


[xxx] ऋग्वेद 7/95/2


[xxxi] नि0 2/3


[xxxii] शतपथ ब्राह्मण 11/5/7/5


[xxxiii] श्री पं0 जयदेव शर्मा विद्यालंकार


[xxxiv] ऋग्वेद 10/75/5


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