महर्षि दयानन्द का राष्ट्र-चिन्तन
महर्षि दयानन्द का राष्ट्र-चिन्तन
१९ वीं शताब्दी के पुनर्जागरण आन्दोलन मे महर्षि दयानन्द सरस्वती का राष्ट्र चिन्तन परवर्ती भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के चिन्तन की आधारशिला बना। महर्षि दयानन्द के राष्ट्र-चिन्तन का आधार वेद था, जिन्हें महर्षि ने सभी सत्यविद्याओं की पुस्तक घोषित किया। किसी भी विषय के व्यापक विचार-विमर्श के बाद ही उसके क्रियान्वयन और उसके परिणाम की अभिव्यक्ति होती है और यही चिन्तन अन्त:वैश्वीकरण के रूप में युगानुरूप राष्ट्रीय आन्दोलन की बहुआयामी प्रवृत्तियों को अभिव्यक्त करता रहा है। महर्षि दयानन्द सरस्वती के समक्ष विभिन्न प्रकार की चुनौतियाँ थीं। एक ओर ब्रिटिश साम्राज्य की आधीनता, तो दूसरी ओर भारतीय समाज में आई सामाजिक और धार्मिक विकृतियाँ। महर्षि दयानन्द सरस्वती को दुधारी तलवार से सामना करना था। यह कार्य निश्चय ही एक ओर अधार्मिक, अमानवीय और अंधविश्वासी परम्पराओं केा ध्वस्त करना था तो दूसरी ओर नवनिर्माण की आधारशिला पर विश्वग्राम की आधारशिला की संकल्पना को पूर्ण करना था।
महर्षि दयानन्द सरस्वती की राष्ट्रदृष्टि कालजयी तथा सकारात्मक सोच के साथ प्रतिरोध-प्रतिकार के बाद भी नवसंरचना की बुिनयाद पर टिकी थी, यही कारण था कि १८७५ में आर्य समाज की स्थापना के बाद महर्षि दयानन्द ने स्वराज्य, स्वदेश और स्वभाषा का शंखनाद किया था। यद्यपि काँग्रेस की स्थापना उपर्युक्त तीनों मान्यताओं के लिए नहीं हुई थी, तथापि १९०५ में गोपाल कृष्ण गोखले ने काँग्रेस के प्रस्ताव में स्वदेशी को स्वीकार किया और १९०६ में स्वराज्य दादा भाई नौरोजी की अध्यक्षता में स्वीकार किया गया। 'स्वभाषा' (आर्य भाषा या हिन्दी) को महात्मा गाँधी ने कालांतर में काँग्रेस के प्रस्ताव में स्वीकार किया। महर्षि दयानन्द सरस्वती का यह कथन स्वदेश के प्रति उनकी तीव्र उत्कंठा को स्पष्ट करता है कि 'छ: पैसे का चाकू वही काम करता है तो सवा रुपये का विदेशी चाकू क्यों खरीदा जाये' यह कथन परवर्ती भारतीय राष्ट्रीय एवं स्वदेशी आन्दोलन का प्रबल उद्घोष बना।
महर्षि दयानन्द सरस्वती का राष्ट्र-चिन्तन आज भी उतना ही प्रासंगिक है, क्योंकि यह धर्म या सम्प्रदाय का नहीं है अपितु यह वेदों से नि:सृत मानव कल्याण का राष्ट्रशास्त्र है। जिसमें मतवाद का दुराग्रह नहीं है। जातिवाद का विध्वंसकारी मतवाद नहीं है, अपितु यह लोकतंत्र की स्वत: उद्भुत विचार-पद्धति है, जिसके विमर्श की आज महती आवश्यकता है।
आर्यसमाज के सभासदों, संन्यासियों, गुरुकुल के आचार्यों, छात्रों सभी ने राष्ट्रयज्ञ में सक्रिय भाग लिया। उन्होंने जहाँ एक ओर क्रान्तिकारी आन्दोलनों में भाग लिया, वहीं दूसरी ओर गाँधी के नेतृत्व में उनके सभी आन्दोलनों में भाग लिया।
आर्यसमाज स्वतन्त्रता से पूर्व जिन उद्देश्यों के लिए समर्पित था, स्वतन्त्रता के बाद भी उनकी महत्त्वपूर्ण आवश्यकता थी। आर्यसमाज एक सशक्त राजनैतिक संगठन के रूप में अन्य राजनैतिक दलों की तरह भले ही प्रस्तुत ना हुआ हो, लेकिन देश के विभिन्न क्षेत्रों में आर्यजन अपनी उल्लेखनीय कार्यक्षमता का परिचय दे रहे हैं।
परन्तु वर्तमान में चुनावों के समय महर्षि दयानन्द सरस्वती का राष्ट्र-चिन्तन, जिसका उल्लेख 'सत्यार्थप्रकाश' जैसी कालजयी रचना में किया गया है, के अनुरूप ही आर्यजनों को मताधिकार का प्रयोग करना चाहिये। धर्म, जाति, समुदाय या भाषा के आधार पर मत ना देने का प्रावधान जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा १०३ (३) में दिया गया है। यदि इनके आधार पर मत देने का आग्रह किया जाता है तो उसे भ्रष्ट आचरण में रखा जाता है। अभी हाल ही में पांच राज्यों पंजाब, गोवा, उत्तरप्रदेश, उत्तराखण्ड और मणिपुर के चुनावों के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने चुनाव को पंथनिर्पेक्ष प्रक्रिया मानते हुए धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्रवाद इत्यादि के आधार पर मत देने को भ्रष्ट आचरण घोषित किया और उसे छ: वर्ष तक चुनाव लडऩे के अयोग्य करार देने का फैसला दिया गया।
महर्षि दयानन्द सरस्वती का राष्ट्र-चिन्तन हमारे मत देने के मौलिक अधिकारों को पुष्ट करता है, जिसमें वेद, भारतीय संस्कृति, भाषा, जातिविहीन समाज-व्यवस्था, छुआछूत का विरोध, भ्रष्टाचार, वंशवाद के विरुद्ध जिस राजनैतिक दल की निष्ठायें हैं, उसी दल को आर्यजन स्वविवेक से अपना मतदान करते हैं। महर्षि दयानन्द सरस्वती राजधर्म को एकांगी नहीं मानते थे अपितु उन्होंने संस्कृति के संरक्षणीय मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में राजनीति को विवेचित किया है। पृथ्वी और स्वयं को उसका पुत्र भाव रूपी राष्ट्रधर्म की व्याख्या अथर्ववेद के शब्दों में निम्र प्रकार की गई:-
माता भूमि:पुत्रोऽहं पृथिव्या:।
पर्जन्य: पिता स उ न: पिपर्तृ।
सांस्कृतिक उत्थान अक्षत राष्ट्रवाद के मूल में ही संरक्षित एवं पल्लवित होता है। यही आज आर्यजनों को अभीष्ट है।