सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका से
*सत्यार्थ प्रकाश भूमिका से*
*मेरा इस ग्रंथ ( सत्यार्थ प्रकाश ) बनाने का प्रयोजन सत्यार्थ का प्रकाश करना है, अर्थात जो सत्य है उसको सत्य और जो मिथ्या है उसको मिथ्या ही प्रतिपादित करना, सत्य अर्थ का प्रकाश समझा है*।
*वह सत्य नहीं कहाता, जो सत्य के स्थान में असत्य और असत्य और असत्य के स्थान में सत्य का प्रकाश किया जाए। किन्तु जो जैसा है उसको वैसा ही कहना, लिखना और मानना, सत्य कहाता है*।
*जो मनुष्य पक्षपाती होता है, वह अपने असत्य को भी सत्य और दूसरे विरोधी मत-वाले के सत्य को भी असत्य सिद्ध करने में प्रवृत्त रहता है, इसीलिए वह सत्य मत को प्राप्त नहीं हो सकता*।
*इसीलिए विद्वान आप्तों का यही मुख्य काम है कि उपदेश वा लेख द्वारा सब मनुष्यों के सामने सत्यासत्य का स्वरूप समर्पित कर देना, पश्चात् मनुष्य लोग स्वयं अपना हिताहित समझकर सत्यार्थ का ग्रहण और मिथ्यार्थ का परित्याग करके, सदा आनन्द में रहें*।
*मनुष्य का आत्मा सत्य सत्य का जाननेहारा है, तथापि अपने प्रायोजन की सिद्धि, हठ, दुराग्रह और अविद्यादि दोषों से सत्य को छोड़, असत्य पर झुक जाता है*।
*इस ग्रन्थ में ऐसी बात नहीं रखी है और ना किसी का मन दुखाना वा किसी की हानि पर तात्पर्य है किन्त जिससे मनुष्य जाति की उन्नति और उपकार हो, सत्यासत्य को मनुष्य लोग जानकर सत्य का ग्रहण और असत्य का परित्याग करें। अन्य कोई भी मनुष्य जाति की उन्नति का कारण नहीं है, विना सत्योपदेश के*।
*महर्षि दयानन्द सरस्वती*