स्वामी आत्मानंद: एक वीतराग सन्यासी
स्वामी आत्मानंद: एक वीतराग सन्यासी
स्वामी आत्मानंद आर्यसमाज के श्रेष्ठ वीतराग सन्यासियों में से एक थे। उनका समस्त जीवन लोकहित में बिता। आपका गहन वेदाध्ययन, दर्शनों और व्याकरण आदि अंगों पर पूर्ण अधिकार, अखंड ब्रह्मचर्य, महान तप, अद्वितीय उदारता, विरक्तता, दयालुता, अक्रोध, क्षमा जैसे गुणों से अनेक लोग आपकी और सहज रूप से आकर्षित हो जाते थे। स्वामी जी ने ऋषि दयानन्द के सिद्धांतों का न केवल विस्तीर्त अध्ययन किया अपितु उन्हें अपने जीवन में व्यवहार में भी अपनाया। आपका योग में गंभीर परिशीलन अनेक योगियों को प्रेरणा देने वाला था।
प्रारंभिक जीवन
स्वामी जी का जन्म मेरठ जिले के अंछाड़ नामक ग्राम में 1879 में पं दीनदयालु जी के यहाँ हुआ था। आपका नामकरण मुख्तयार के रूप में हुआ, फिर मुक्तिराम बना और अंत में आत्मानंद बन गए। आप जैन दर्शन की पुस्तकों के विद्वान थे। आपको उन्हीं का स्वाध्याय करते हुए सत्यार्थ प्रकाश पढ़ने को मिला। आप उसे पढ़कर आर्यसमाज में स्वामी दर्शनानन्द जी के पास बनारस आ गए। बनारस में अध्ययन करते समय 12 वर्ष तक जो भी पत्र आपके पास घर से आते थे। आप उन्हें एक मटकी में डालते रहे। 12 वर्ष के पश्चात आपने उन पत्रों को पढ़ा तब आपको ज्ञात हुआ कि कौन कौन सम्बन्धी अब जीवित नहीं है। स्वामी जी इन समाचारों को पढ़कर कहते कि परमात्मा ने इस बंधन से मुक्त कर दिया।
स्वामी जी का प्रेरणादायक व्यक्तित्व
स्वामी जी अल्पभाषी थे। आप वाणी में माधुर्य, प्रेम और सबके हित की भावना रखते थे। आप कहते थे कि संसार के हर प्राणी के लिए उपकारी और संतुलित वाणी बोलनी चाहिए। विद्वान्, उपदेशक, समाज सेवी और वक्ताओं को तो वाणी पर पूर्ण संयम होना चाहिए। आप अपने भाषण में स्वामी दर्शनानंद और पंडित रामचंद्र दहेलवी जी के शास्त्रार्थों के ऐतिहासिक प्रमाण देते थे। आप कहते थे कि शास्त्रार्थ समर में विपक्षी की तीखें बाणों के समक्ष बड़े बड़े योध्या संयम खो देते थे मगर स्वामी दर्शनानंद और पंडित रामचंद्र दहेलवी जी की वाणी पर तो विरोधी भी मुग्ध थे। एक बार एक शास्त्रार्थ के मुस्लिम अध्यक्ष ने स्वामी जी से कहा, " वह स्वामी जी आपने तो तुम्हारा ही सिर और तुम्हारी ही जूती" उक्ति को चरित्रार्थ कर दिया तब स्वामी जी ने उत्तर दिया कि नहीं, बिलकुल नहीं, हम तो आपकी ही माला और आपका ही कंठ, इस उक्ति में विश्वास रखते हैं।
एक बार गुरुकुल के उत्सव पर किसी के पैर लगने से घड़ा टूट गया और दूध बह गया। महाशय क्रोध के मारे गलियां देने लगे। स्वामी जी अपने कक्ष से बाहर निकल कर उस सज्जन को बोले। प्रिय! दूध तो फिर से वापिस आ सकता है। लेकिन याद रखना। गालियां देने से जो मन बिगड़ जाता है। वह दूसरा नहीं मिल सकता। गुस्सा मन को विकृत कर देता है और सदा दुःख देता हैं। इसलिए क्रोध से अपने मन को बिगड़ने मत दो। वह व्यक्ति स्वामी जी के चरणों में गिर पड़ा और बोला कि यह मन अच्छा कैसे बनता है? स्वामी जी ने उत्तर दिया कि स्वाध्याय, साधना और सत्संग से।
गुरुकुल यमुनानगर में मुख्यमंत्री कैरों से लेकर अन्य नेता आते रहते थे। आप उनसे केवल 3 बातें पूछते थे। आप स्वस्थ है। आपको यहाँ आने में कोई कष्ट तो नहीं हुआ। आपके ठहरने का प्रबंध हो गया क्या? आप सदा संक्षिप्त ही बोलते थे। कोई फरियाद, कोई शिकायत कुछ नहीं। स्वामी जी कहते थे अगर किसी व्यक्ति की योग गति की परीक्षा लेनी हो तो उसके आगे दूसरे योगी की प्रशंसा कर दो। अगर वह सुनकर प्रसन्न हो तो समझों उसकी योग में गति हैं। अगर अप्रसन्न हो तो समझो अभी उसे अधिक अभ्यास की आवश्यकता हैं।
स्वामी जी प्रशंसा अथवा शोक दोनों स्थितियों में स्थितप्रज्ञ रहते थे। आपकी एक पुस्तक प्रकाशित हुई तो उसमें केवल दानदाता का चित्र था। आपका नहीं। एक ब्रह्मचारी ने आपके समक्ष ऐसी शिकायत कर दी। आप पुस्तक देखकर बोले कि यह सारी पुस्तक मेरा चित्र नहीं तो किसका हैं? दानदाता का तो केवल एक चित्र है।
स्वामी जी और रावलपिंडी का गुरुकुल
स्वामी दर्शनानन्द जी द्वारा स्थापित चोहा भक्तां गुरुकुल के आप वर्षों आचार्य रहे। फिर इस गुरुकुल को रावलपिंडी से 13 किलोमीटर दूर रावल गांव के समीप पोठोहार ले गए। इस गुरुकुल की ख्याति उस मुस्लिम बहुल क्षेत्र में भी दूर दूर तक फैल गई थी। उनका विश्वास था कि जहाँ स्वामी जी है, उनका गुरुकुल है, वहां वहां उनकी बहन, बेटियां सुरक्षित है। एक बार उनके गुरुकुल में एक मुसलमान अपने दो बच्चों को प्रविष्ट करवाने आया। स्वामी जी ने गुरुकुल में पढ़ने वाले बच्चों को वैदिक प्रचारक बनाया जाता हैं। ऐसा बताया तो वह बोला कि मैं यह जानता हूँ कि अगर मुसलमान भाइयों को पता चला तो मुझे इस कारण मौत के घाट न उतार दे। हिन्दू मुझे न पचा पायें। पर मैं यह जानता हूँ कि यहाँ मुक्तिराम नबी रहता है, जो रात्रि को 12 या 2 बजे घोड़े पर बैठकर 20-30 मील जाकर उपचार करता है। जो यह नहीं देखता कि रोगी हिन्दू है या मुसलमान हैं। ऐसे महापुरुष के गुरुकुल में ये बच्चे इंसान अवश्य बनेंगे। 1947 के पश्चात यह गुरुकुल वैदिक आश्रम यमुनागर के रूप में स्थानांतरित हो गया।
स्वामी जी और आर्यसमाज के आंदोलन
स्वामी जी ने हैदराबाद आंदोलन में भाग लिया। निज़ाम की जेलों में आटे में रेत-बजरी मिलकर कैदियों को भोजन दिया जाता था। जिससे स्वामी जी रोगी बन गए। आप उच्च रक्तचाप से इसी कारण पीड़ित रहे। हिंदी आंदोलन के समय स्वामी जी का कुशल नेतृत्व देखने को मिला। जिसका परिणाम हरियाणा राज्य की स्थापना के रूप में कालांतर में निकला।
स्वामी जी द्वारा रचित साहित्य
स्वामी जी ने संध्या के तीन अंग के नाम से पुस्तक लिखी थी जिसमें प्राणायाम, अघमर्षण तथा मनसा परिक्रमा मन्त्रों की व्याख्या थी। संध्या अष्टांग योग के नाम से आपने इसी पुस्तक के परिवर्द्धित संस्करण को प्रकाशित किया था जिसमें पतंजलि योग को अष्टांग योग के तुल्य बताया गया था। वैदिक गीता के नाम से आपने गीता के वैदिक सिद्धांतनुकूल श्लोकों की व्याख्या की थी। मनोविज्ञान और शिवसंकल्प के नाम से यजुर्वेद के शिवसंकल्प मन्त्रों की विशद व्याख्या आपने की थी। गोमेध यज्ञ पद्यति, आदर्श ब्रह्मचारी आपकी अन्य कृति हैं। स्वामी जी के लेखों के संग्रह को आत्मानंद लेखमाला के नाम से आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब द्वारा प्रकाशित किया गया था। आपका अभिनन्दन ग्रन्थ गुरुकुल झज्जर से प्रकाशित हुआ था।
अंतिम यात्रा
स्वामी जी वृद्धावस्था में रोगी हो गए। स्वामी ओमानंद उन्हें उपचार के लिए गुरुकुल झज्जर ले आये। स्वामी जी का निधन 16 दिसंबर, 1960 को गुरुकुल झज्जर में हुआ। अगले दिन उनका पार्थिव शरीर दिवान हाल आर्यसमाज में दर्शनार्थ रखा गया। शव यात्रा यही से आरम्भ होकर निगम बोध घाट पर अंतेष्टि के रूप में संपन्न हुई।
स्वामी जी वेद की शिक्षा कि जो मनुष्य अपनी दृढ़ता से सत्य विद्या का अनुष्ठान और नियम से ईश्वर की आज्ञा का पालन करता है। उसकी आत्मा में से अविद्या रूपी अन्धकार का नाश अंतर्यामी परमेश्वर कर देता है, जिससे वह पुरुष धर्म और पुरुषार्थ को कभी नहीं छोड़ता। स्वामी जी वेद के इसी पावन उपदेश का अनुसरण करते हुए आदर्श महापुरुष कहलाए।