विश्व सम्राट की शरण में
यद् ग्रामे यदरण्ये यत् सभायां यदिन्द्रिये। यदेनश्चकृमा व्यमिदं तदवेयजामहे स्वाहा ॥ -यजु० ३ | ४५ (यद्) जो (ग्रामे) ग्राम में, (यद्) जो (अरण्ये) जङ्गल में, (यत्) जो (सभायां) सभा में, (यत्) जो (इन्द्रिये) चक्षु, श्रोत्र आदि इन्द्रियों के विषय में, (यद्) जो अन्य किसी के विषय में भी (एनः) पाप या अपराध (वयं चकृम) हम करते हैं (तत्) उसे (इदं) यह (अ वयजामहे) हम दूर कर रहे हैं, (स्वाहा) यह कैसा उत्तम व्रत है। हम जाने या अनजाने कुछ न कुछ पाप या अपराध करते ही रहते हैं। कभी हम ग्रामविषयक अपराध करते हैं। ग्राम के मुखिया का कहना नहीं मानते, ग्राम-पञ्चायत के निर्णयों की उपेक्षा करते हैं, ग्राम को स्वच्छ, साफ-सुथरा नहीं रखते, ग्राम की पवित्र नैतिकता को कलङ्क लगाते हैं, ग्रामवासियों के साथ दुर्व्यवहार करते हैं, ग्राम की बहू-बेटियों के साथ शिष्ट व्यवहार नहीं करते, ग्राम की आदर्श स्वायत्त शासनव्यवस्था भङ्ग करते हैं, ग्राम के अतिथियों के साथ अभद्रता करते हैं, ग्राम के बुजुर्गों का अनादर करते हैं, ग्राम के कूपों-जलाशयों को मलिन करते हैं, ग्राम के पशुओं को कष्ट देते हैं। कभी हम वन-विषयक अपराध या पाप करते हैं। वृक्ष हमारे वनों की बहुमूल्य सम्पदा हैं। वे वनभूमि को सुदृढ़ रखते हैं, वर्षा में कारण बनते हैं, फल-फूल आदि देते हैं, वायुमण्डल को सरस, सुगन्धित, शीतल बनाते हैं। उन्हें हम यदि काट कर नष्ट करते हैं, तो पाप करते हैं। इसी प्रकार वन-विषयक राजनियमों की उपेक्षा करके वन के पशुओं को मारना, चोरी से वन का सामान लाना, वन के सौन्दर्य को नष्ट करना आदि भी वन सम्बन्धी अपराध हैं। कभी हम सभा-विषयक अपराध करते हैं। सभा में सभापति के आदेश का उल्लङ्घन करना, सदस्यों के साथ अनुचित व्यवहार करना, सभा में अहितकर परामर्श देना, सभा को शान्ति से न चलने देना आदि सभा के अपराध हैं। कभी हम चक्षु, श्रोत्र आदि इन्द्रियों से सम्बद्ध अपराध करते हैं। आँख से अभद्र देखना, कान से अभद्र सुनना, रसना से अभक्ष्य पदार्थ चखना, नासिका से अभद्र सँघना, त्वचा से अभद्र स्पर्श करना, हाथों से अभद्र कार्य करना, इन्द्रियों को दुर्बल करना, इन्द्रियों के रुग्ण हो जाने पर उन्हें पुनः स्वस्थ करने के उपाय न करना आदि इन्द्रियापराध हैं। ग्राम, जङ्गल, सभा और इन्द्रियों के विषय में ही नहीं, अपितु माता, पिता, गुरुजन, अतिथिजन, समाज, राष्ट्र आदि के प्रति भी हम बहुत से अपराध या पाप करते रहते हैं। परन्तु आज से हम यह व्रत लेते हैं कि सभी पापों और अपराधों से हम स्वयं को बचायेंगे। व्रत दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचायक होता है। दृढ़ सङ्कल्प-बल द्वारा हम निश्चय ही समस्त अपराधों से बचे रहेंगे। प्रजापति प्रभु की कृपा से हमारा व्रत सफल हो और हम निष्पाप एवं निरपराध जीवन जी सकें।
पाप – मोचन – रामनाथ विद्यालंकार