यज्ञ का महत्व एवं संदेश
*यज्ञ का महत्व एवं संदेश-*
*- डा मुमुक्षु आर्य*
हमारे भारत देश की यह गौरवशाली परम्परा रही है कि यहाँ आज से लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व तक घर घर में प्रतिदिन यज्ञ होता था, राजे महाराजे व धनाड्य लोग शुभ अवसरों एवं पर्वो पर बड़े बड़े यज्ञ करते व करवाते थे । जिसके कारण हमारा देश सब प्रकार की आपदाओं, रोगों व कष्टों से मुक्त था। भगवान राम प्रतिदिन यज्ञ करते थे, माता सीता बाल्मीकि आश्रम में प्रतिदिन यज्ञ करती थी, भगवान कृष्ण प्रतिदिन यज्ञ करते थे, राजा जनक बड़े बड़े यज्ञ कराया करते थे। इसी कारण ये महापुरुष आर्य कहलाते थे और हमारे देश का नाम आर्यवर्त था। यज्ञ, योग, गायत्री व गौसेवा प्रत्येक व्यक्ति व राष्ट्र की सुख समृद्धि के लिए अत्यन्त आवश्यक अंग थे। आज ये सभी अंग लुप्त प्रायः हो चुके हैं यज्ञ का स्थान धूप, अगरबत्ती ने ले लिया है, योग का स्थान अवैदिक परम्पराओं ने ले लिया है, गायत्री का स्थान अन्य काल्पनिक मन्त्रों ने ले लिया है, गौ का स्थान भैंसों व कुत्तों ने ले लिया है। जब तक ये चारों अंग पुनः प्रठिष्ठित नहीं होगें विश्व में एकता, प्रेम, स्वास्थय व सद्भावना की स्थापना होनी असंभव है।
उद्योगों, वाहनों, परमाणु परीक्षणों, दाह संस्कारों, आतिशबाजी एवं मल-मूत्र आदि के त्याग से हम अपने वायुमण्डल को विषैला करते रहते हैं। विश्व के सामने पर्यावरण प्रदूषण एक भंयकर समस्या बन कर रह गयी है। बीमारियाँ दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं। हम कितने भी अस्पतालों व सुख साधनों को जुटा लें परन्तु यदि नाना प्रकार की जहरीली गैसों से युक्त वायु में हम सांस लेते हैं तो सब व्यर्थ है। इसका एक मात्र समाधान यज्ञ ही है। न्यूयार्क, पौलैंड, जर्मनी में इस पर अनुसंधान हो रहा है। यज्ञ से परिवार में, समाज में मेल मिलाप बढता है, यज्ञ की अग्नि हमें उर्ध्वगमन, ज्ञान का प्रकाश फैलाने व अपने दोषों व शत्रुओं का नाश करने की प्रेरणा देती है, यज्ञ से परमात्मा की अमर वाणी वेद मन्त्रों की रक्षा होती है, मनुष्य तुच्छ से महान् बन जाता है, वामन से विष्णु बन जाता है। बड़े भाग्य से मिलने वाला मनुष्य जन्म सहज से ही प्राप्त हो जाता है। थोड़ा खर्च कर व थोड़ा समय लगाकर प्रतिदिन एक महान पुण्य कार्य हम से हो जाता है। यज्ञ से योग में गति होती है, समय पर वर्षा होती है, अन्न, फल, सब्जियों आदि की पौष्टिकता में वद्धि होती है। घर के चारों ओर एक सुरक्षा कवच बन जाता है। दिसम्बर 1984 के भोपाल गैस कांड में यज्ञ करने वाले परिवार का बचना चमत्कार से कम न था। यज्ञ की सामग्री में शक्कर, मुनक्का, गुग्गल, गिलोय, चन्दन बूरा, इलायची, अजवायन, शहद आदि मिलाने से प्लेग, टी०बी०, टाइफाइड, मलेरिया, डेंगू, दमा व हृदय आदि रोगों का नाश होता है। फ्रांस के डाक्टर हेफकीन का कथन है कि यज्ञ में घी डालने से चेचक व टायफायड के कीटाणु कुछ ही मिन्टों में मर जाते हैं। जबलपुर के डॉ० एफ.एम. अग्निहोत्री ने विशेष प्रकार की सामिग्री व घी से हवन द्वारा टी.वी. के अनेक रोगियों का उपचार किया। मध्य प्रदेश सरकार व भारत सरकार ने उन्हें इस खोज पूर्ण कार्य के लिए सम्मानित किया। यज्ञ करने से एसीटिलीन, फारमैल्डीहाइड आदि गैसें बनती हैं जो जहराली गैसों को छिन्न-भिन्न कर शुद्ध वायु में परिवर्तित कर देती हैं। जैसे पीने वाले जल स्रोतों, तालाबों, कुंओं आदि में विष मिलाना पाप है वैसे ही साँस लेने वाली वायु में वाहनों व मलमूत्र आदि से विष मिलाना महापाप है। यज्ञ करने से हम इस पाप से बचते हैं। श्रद्धापूर्वक यज्ञ करने से शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा चारों पवित्र होते हैं- ऐसा पवित्र व्यक्ति कभी भ्रष्टाचार व राष्ट्रद्रोह में लिप्त नहीं हो सकता। यज्ञ की राख चमड़ी के रोगों का उपचार करने व खाद के रुप में काम आती है। यज्ञ करना न कठिन है न साम्प्रदायिक है।
यह सरासर गलत धारणा है कि यज्ञ में घी डालना घी को नष्ट करना है। जो लोग ऐसा सोचते हैं वे वास्तव में पदार्थ विद्या को नहीं जानते। विज्ञान के अनुसार पदार्थ का सर्वथा नाश कभी नही होता उसका केवल रुपान्तरण होता है। कुछ लोग प्रश्न करते हैं कि चन्दनादि घिस के किसी को लगावे वा घृतादि खाने को देवे तो बड़ा उपकार हो,अग्नि में डाल के व्यर्थ नष्ट करना बुद्धिमानों का काम नहीं, ऋषि दयानंद इसके उत्तर में लिखते हैं कि जो तुम पदार्थविद्या जानते तो कभी ऐसी बात न कहते। क्योंकि किसी द्रव्य का अभाव नहीं होता। देखो! जहां होम होता है वहां से दूर देश में स्थित पुरुष के नासिका से सुगन्ध का ग्रहण होता है वैसे दुर्गन्ध का भी। इतने ही से समझ लो कि अग्नि में डाला हुआ पदार्थ सूक्ष्म हो के फैल के वायु के साथ दूर देश में जाकर दुर्गन्ध की निवृत्ति करता है। यज्ञ की अग्नि घी व जड़ी बूटियों से युक्त सामिग्री को सुक्ष्म रुप देकर लाखों लोगों तक उसका लाभ पहुंचा देती है। यज्ञ के नाम पर पशुबली देना बहुत बडा अपराध है। ऋग्वेद में वेद भगवान ने कहा है कि यज्ञ करने वाले महिमाशाली स्थान को प्राप्त होते हैं। ऋग्वेद के प्रथम मंत्र - *अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवं ऋत्विजम् होतारम रत्नधातमम*. में अग्नि व यज्ञ का ही वर्णन है । यजुर्वेद में आया है *यज्ञों वै श्रेष्ठतमम् कर्म* *यज्ञों वै विष्णु*- अर्थात यज्ञ सब कर्मों से श्रेष्ठ कर्म है, यज्ञ करने से मनुष्य का यश चहुँ ओर फैलता है। अथर्ववेद में कहा है यज्ञ से उत्तम गति होती है परन्तु यज्ञ न करने वाले का तेज नष्ट हो जाता है। सामवेद के 114 मत्रों में स्थान-स्थान पर यज्ञ का वर्णन है। भगवान राम व उनके भाईयों का जन्म ही पुत्रेष्टि यज्ञ से हुआ था, महाभारत में कहा है कि जो यज्ञ किये बिना खाता है, वह मल खाता है, चाणक्य ने तो यहाँ तक कहा है कि जिन घरों में हवन नहीं होता वे शमशान के तुल्य हैं। महर्षि दयानन्द ने अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में लिखा है कि यज्ञ न करने वाला पापी है और दण्ड का पात्र है। अग्रेजी का हैवन (Heaven) शब्द हवन का ही अपभ्रंश है। मनु महाराज ने उपदेश किया है कि अन्तकाल आने पर धन भूमि पर, पशु वाडे पर, पत्नी द्वार तक, मित्र शमशान घाट तक, शरीर चिता तक साथ देता हैं परन्तु यज्ञादिशुभ कर्म परलोक में भी साथ देते है । स्वर्गकामो यजेत, पुत्रकामो यजेत, धनकामो यजेत- अर्थात स्वर्ग चाहते हो तो यज्ञ करो, पुत्र चाहते हो तो यज्ञ करो, धन चाहते हो तो यज्ञ करो।
*आओ हम सब मिकल कर संकल्प करें कि-*
हम प्रतिदिन अपने अपने घरों में गायत्री आदि वेद मंत्रों से यज्ञ किया करेंगे। जन्म दिन, वर्षगांठ, नवसंवत्सर, होली, दशहरा, दिवाली आदि पर्वो पर बड़े-बड़े यज्ञ किया और करवाया करेंगे। पटाखों, आतिशबाजी व मोमबत्तियों से हवा में जहर नहीं मिलायेंगे। यज्ञ व घी के दियों से वायु में सुगन्ध फैलाएगें। राष्ट्र में सिर उठा रही आसुरी शक्तियों, अन्धविश्वासों व पाखंडो को जलाकर राख कर देगें । ईश्वर करे ! हर नगर, हर सैक्टर व हर गाँव में वेद यज्ञशाला,गौशाला व गुरुकुल हो ! परमेश्वर हमें बडे बडे यज्ञों के लिए प्रेरित करता रहे!
अग्नि पर जब जड़ी बूटी, अनाज, मेवा, घी डाला जाता है तो वह यज्ञ बन जाता है,उसी अग्नि पर जब मुर्दा, हड्डी, मांस का शरीर रखा जाता है तो वो चिता बन जाती है । ऐसे ही भूख लगने पर जब जठराग्नि प्रज्जवलित होती तब उस में चिकन, मटन या मांस का कुछ भी डालते हैं तो वो चिता बन जाती है और अगर हम उसमे फल, अनाज, दूध, दहीं, घी, तेल डालते हैं तो वो यज्ञ बन जाता है !!
*जुहोत प्र च तिष्ठत* ( ऋग्वेद १\१५\९ )
ईश्वर आज्ञा है कि तुम यज्ञ करो और प्रगति करो।"
*प्र यज्ञमन्सा वृजनं तिराते* ( ऋग्वेद ७\६१\४)
अर्थात् यज्ञ की ओर प्रवृत्ति परिवार को दु :खों से पार लगाती है।
*यज्ञो हि त इन्द्र वर्धन:*( ऋग्वेद ३\३२\१२ )
अर्थात् यज्ञ ही वृद्धि और सम्पन्नता का सूचक हैं।