स्वराज्य का महत्त्व

 


आ य्द्वामीयचक्षसा मित्र वयं च सूरयः |
व्यचिष्ठे बहुपाय्ये यतेमहि स्वराज्ये ||


( ऋग्वेद ५-६६-६ )


शब्दार्थ -- हे ईयक्षसा = प्राप्तव्य ज्ञानवाले , मित्रा = प्रीतियुक्त स्त्री-पुरुषों ! , वाम् = आप दोनों के , सूरयः = विद्वान् , च = और , वयम् = हम मिलकर , व्यचिष्ठे = अति विशाल , बहुपाय्ये = अनेक मनुष्यों से रक्षणीय , स्वराज्ये = स्वराज्य में , आ+यतेमहि = सब ओर से यत्न करें ।


व्याख्या -- संसार में क्षुद्र से क्षुद्र कोई ऐसा प्राणी न मिलेगा , जो अपनी गतिविधि में प्रतिबन्ध को पसन्द करे । सभी चाहते हैं कि उनकी गति निर्बाध रहे । वेद में मार्ग के सम्बन्ध में प्रार्थना है की वह 'अनृक्षरः' काँटों से रहित हो । काँटे मार्ग की बाधा है । बाधा से रहित मार्ग प्रशस्त माना जाता है , और प्रशस्त होता भी है । ऐसी स्थिति में स्वराज्य की कामना अस्वाभाविक नहीं , अतएव अपराध भी नहीं । जो दूसरे की गतिविधि में प्रतिबन्ध लगाता है , जब कभी उसकी गतिविधि पर प्रतिबन्ध लगता है तब उसे ज्ञात होता है कि स्वाधीनत = स्वतन्त्रता = स्वराज्य क्या वस्तु है । वेद स्वराज्य का सबसे अधिक समर्थक है । वेद में एक समूचा का समूचा सूक्त ( ऋग्वेद १-८० ) स्वराज्य - प्रतिपादक है । इस स्वराज्य-सूक्त के प्रत्येक मन्त्र की टेक है - "अर्चनन्नु स्वराज्यम्" - ( स्वराज्य के अनुकूल कार्य करता हुआ )
"स्वराज्य" के सम्बन्ध में दो-एक निर्देश इस मन्त्र में हैं , जो मनन करने योग्य हैं --


१ ) "स्वराज्य" में तथा स्वराज्यप्राप्ति के लिए विद्वानों का सहयोग अत्यन्त आवश्यक है । विद्वानों के बिना स्वराज्य का सम्भालना दुष्कर हो जाता है ।


२ ) स्वराज्य "बहुपाय्य" है । अनेक जन मिलकर ही इसकी रक्षा कर सकते हैं । स्वराज्य तभी स्वराज्य हो सकता है , जब सभी को यह प्रतीत हो की यह अपना राज्य है । किसी का एक-छत्र राज्य उसके लिए भले ही राज्य हो , किन्तु उस राज्य में रहनेवाले सभी का राज्य नहीं हो सकता । स्वराज्य में सभी स्वराज्य अनुभव करें ।


३ ) स्वराज्य "व्यचिष्ठ" विशाल होना चाहिए । क्षुद्र स्वराज्य के अपहृत और नष्ट होने की सम्भावना का भय बना रहता है । विशाल राज्य में उसके रक्षक बहुत होंगे , अतः उसके विनाश की सम्भावना भी कम होती है ।


४ ) स्वराज्य के लिए जब सबको ममता होगी , तो सभी उसके लिए "यतेमहि" पुरुषार्थ करेंगे और सब प्रकार का पुरुषार्थ करेंगे ।


स्वराज्य का महत्त्व ऋषि में शब्दों में लिखा है ---


"कोई कितना ही करे , परन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है , वह सर्वोपरि उत्तम होता है । अथवा मत-मतान्तर के आग्रहरहित अपने और पराये का पक्षपातशून्य , प्रजा पर पिता-माता के समान कृपा , न्याय और दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है । "


-- सत्यार्थप्रकाश , अष्टमसमुल्लास


आद्य और आज के ऋषि का भाव कितना समान है । स्वराज्य की भावना का विरोध अस्वभाविक है ।


(--साभार :-स्वामी वेदानन्द तीर्थ की पुस्तक "स्वाध्याय - सन्दोह" से )


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