आशीर्वाद
भारतवर्ष में प्राय: माता-पिता, गुरुओं, अपने से बड़ों, विद्वानों आदि से आशीर्वाद लेने की प्रथा है। मनुष्य प्रकृति में भी यह भावना है। जिसे वह श्रद्धेय पूज्य मानता है, जिसे अपने से ज्यादा ज्ञानवान मानता है, धार्मिक जनता है, उसके मुख से अपने लिए, अपनी सन्तान के लिये, अपने परिवार के लिए, अपने सम्बन्धियों के लिए आशीर्वाद के वचन चाहता है। यदि किसी अवसर विशेष पर उन वृद्ध पुरुषों को भोजनादि खिलाया जाता है तो भी कुछ आशीर्वाद की आशा की जाती है।
प्राय: जब हम किसी वृद्ध की सेवा नि:स्वार्थ भाव से करते है तो वे हमें हमारे लिए जीवन में सुख-शान्ति, धन दौलत इत्यादि बातों की भावना का विचार करके हमें आशीर्वाद देते है।
वेद के एक मन्त्र में अभिवादन और आशीर्वाद के विषय में आता है-
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।
चत्वारि तस्य वथ्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्।।
सामान्य रूप से जब कोई व्यक्ति अपने बड़ों को श्रद्धा और विनम्रता पूर्वक अभिवादन व सम्मान करता है, तथा अपने बुजुर्गो की सेवा करने वाला होता है। उनकी आयु ,विद्या, यश और बल, इन चारों में सदैव वृद्धि होती रहती हैं।
प्राचीन समय से ही परम्परा चली आ रही है कि जब भी हम किसी विद्वान, व्यक्ति या उम्र में बड़े व्यक्ति से मिलते हैं तो उनके पैर छूते हैं। इस परम्परा को मान-सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। और इसके फलस्वरूप वे विद्वान या अन्य व्यक्ति हमारी मंगल कामना और भावी जीवन के लिए आशीर्वाद देते है जो कि वास्तव में आगे चलकर हमारे जीवन में इसका प्रभाव पड़ता है। यदि हम अपने किसी छोटे को आशीर्वाद देते है तो वह आशीर्वाद नि:स्वार्थ भावना से हमें देना चाहिए। हमारा व्यवहार भी छल से रहित और प्यार भरा होना चाहिए।
उसी प्रकार से यदि हम परमपिता परमात्मा का आशीर्वाद प्राप्त करना चाहते है तो परमात्मा का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए हमें अपने जीवन में शुभकर्म करते हुए परमात्मा के आशीर्वाद रूपी कृपा का पात्र बनना होगा।
आत्मा ओर परमात्मा के विषय का एक प्रसंग है कि एक बार आत्मा परमात्मा से कहती है –
आत्मा – परमपिता परमात्मा मैं आपके अमृतमयी आशीर्वाद को प्राप्त करना चाहती हूँ अर्थात् मैं मोक्ष प्राप्त करना चाहती हूँ।
परमात्मा – मेरे आशीर्वाद के लिये अर्थात् मोक्ष प्राप्ति के लिए तुझे (आत्मा)कुछ प्रयत्न करने होगें, एक शरीर रूपी चोला जो की मानव का होगा उसके अन्दर जाकर अपने जीवन के कार्यकाल में शुभ कर्म करने होगें। संसार के श्रेष्ठ कर्म करने होगें।
आत्मा – मैं तैयार हूँ परमपिता परमात्मा।
परन्तु यह आत्मा मानव के शरीर में आकर इस भौतिक संसार में रहते हुए अपने जीवन के कार्यकाल में शुभ कर्म करना भूल जाती है और संसार की इस चकाचौंध में रहकर इसी को जीवन समझ बैठती है और उस परमपिता परमात्मा के मोक्ष रूपी आशीर्वाद के लेने की पात्रता को भूल जाती है। इसी कारण परमपिता परमात्मा के आनन्द रूपी आशीर्वाद से वंचित रह जाती है और जन्म-मरण के चक्कर में फसी रह जाती है।
अगर हम किसी व्यक्ति से आशीर्वाद को चाहते है और फिर उस आशीर्वाद के फल को प्राप्त करना चाहते है तो उसके लिए हमें सबसे पहले सच्चे ह्रदय से उस आशीर्वाद के लिए उचित पात्र बनना होगा। तभी आशीर्वाद हमारे जीवन के लिए सार्थक होगा। ओ३म् शान्ति
--विकास आर्य (वैदिक वाटिका से चुनें पुष्प)