ब्रिटिश बंदूक और भारतीय सन्यासी का सीना

ठीक आज से 100 वर्ष पहले साल 1919 मार्च का महीना था। देश पर विदेशी शासन था और भारतीय नागरिक गुलामी की जिन्दगी जीने को मजबूर थे। हालाँकि देश में जगह क्रांति के अंकुर फूट चुके थे पर अंग्रेजी सरकार उन अंकुरों को अपने विदेशी बूटों से कुचल भी रही थी। ऐसे माहौल में एक अंग्रेज अधिकारी जिनका नाम था सर सिडनी रौलेट उनकी अध्यक्षता वाली सेडिशन समिति की शिफारिशों के आधार पर काला कानून (रॉलेट ऐक्ट) बनाया गया। यह कानून देश में स्वतंत्रता के उभरते स्वर को दबाने के लिए था। इसके अनुसार अंग्रेजी सरकार को यह अधिकार प्राप्त हो गया था कि वह किसी भी भारतीय पर अदालत में बिना मुकदमा चलाए उसे जेल में बंद कर जो जुल्म चाहे कर सकती थी।


इस कानून के तहत अपराधी को उसके खिलाफ मुकदमा दर्ज करने वाले का नाम जानने का अधिकार भी समाप्त कर दिया गया था। यूँ तो इस कानून के विरोध में देशव्यापी हड़तालें, जूलूस और प्रदर्शन होने लगे। ये राजनीतिक, सामाजिक, शैक्षणिक और सांस्कृतिक उथल-पुथल का युग था। अधिकांश भारतीय मौन थे लेकिन आर्य समाज के सिपाही उस समय सीना ताने अंग्रेजी सरकार के सामने खड़े हो गये थे। इस आन्दोलन के सिपाही भारत माँ के एक बहादुर लाल का नाम था स्वामी श्रदानंद जो गुलामी के घनघोर अँधेरे में आजादी का पथ खोजने के लिए स्वामी दयानन्द जी महाराज से प्रेरणा लेकर आजादी की मशाल लेकर चल निकला था। तब गाँधी जी ने कहा था की आर्यसमाज हिमालय से टकरा रहा हैं। वो हिमालय था भारत में ब्रिटिश सरकार जिनके बारे में कहा जाता है कि उनके राज्य में सूरज भी नहीं डूबता । लेकिन चट्टानों से ज्यादा आर्य समाज के होसले कहीं ज्यादा बुलंद निकले।


30 मार्च 1919 ई. के दिन रौलट एक्ट के विरोध में आन्दोलन शुरु हुए। दिल्ली में इस सत्याग्रही सेना के प्रथम सैनिक और मार्गदर्शक स्वामी श्रद्धानन्द ही थे। सब यातायात बन्द हो गये। स्वयंसेवक पुलिस द्वारा पकड़ लिए गए। भीड़ ने साथियों की रिहाई के लिए प्रार्थना की तो पुलिस ने गोलियां चला दी। सांयकाल के समय बीस पच्चीस हजार की अपार भीड़ एक कतार में भारत माता की जय के नारे लगाती हुई घंटाघर की और स्वामी जी के नेतृत्व में चल पड़ी। अचानक कम्पनी बाग के गोरखा फौज के किसी सैनिक ने गोली चला दी जनता क्रोधित हो गई। लोगों को वहीं खडे़ रहने का आदेश देकर स्वामी जी आगे जा खडे़ हुए और धीर गम्भीर वाणी में पूछा- तुमने गोली क्यों चलाई?


सैनिकों ने बन्दुकों की संगीने आगे बढ़ाते हुए कहा- “हट जाओ नहीं तो हम तुम्हें छेद देंगे”। स्वामी जी एक कदम और आगे बढ़ गए अब संगीन की नोक स्वामी जी की छाती को छू रही थी। स्वामी जी शेर की भांति गरजते हुए बोले- “मेरी छाती खुली है हिम्मत है तो चलाओ गोली” अंग्रेज अधिकारी के आदेश से सैनिकों ने अपनी संगीने झुका ली और जलूस फिर चल पड़ा।


इस घटना के बाद सब और उत्साह का वातावरण बना। 4 अप्रैल को दोपहर बाद मौलाना अब्दुला चूड़ी वाले ने ऊँची आवाज में स्वामी श्रद्धानन्द की तकरीर (भाषण) होनी चाहिए। कुछ नौजवान स्वामी जी को उनके नया बाजार स्थित मकान से ले आए। स्वामी जी मस्जिद की वेदी पर खडे़ हुए। उन्होंने ऋग्वेद के मन्त्र 'त्वं हि नः पिता..... से अपना भाषण प्रारम्भ किया। भारत ही नहीं इस्लाम के इतिहास में यह प्रथम घटना थी कि किसी गैर मुस्लिम ने मस्जिद के मिम्बर से भाषण किया हो।


पर होनी को कुछ और मंजूर था 13 अप्रैल आते-आते भारत के पंजाब प्रान्त के अमृतसर में स्वर्ण मन्दिर के निकट जलियाँवाला बाग में 13 अप्रैल 1919 (बैसाखी के दिन) रौलेट एक्ट का विरोध करने के लिए एक सभा हो रही थी। जिसमें जनरल डायर नामक एक अँग्रेज ऑफिसर ने अकारण उस सभा में उपस्थित भीड़ पर गोलियाँ चलवा दीं जिसमें 1000 से अधिक व्यक्ति मरे और 2000 से अधिक घायल हुए। इस घटना के बाद स्वामी श्रद्धानन्द जी ने दिल्ली में आसन जमाया। उसी समय काँग्रेस का अधिवेशन अहमदाबाद में हुआ। इसकी अध्यक्षता स्वामी जी ने की। पंजाब सरकार स्वामी जी को गिरफ्तार करना चाहती थी। अमृतसर में अकालियों ने गुरु का बाग में सरकार से मोर्चा ले रखा था। स्वामी जी अमृतसर पहुंच गए। स्वर्ण मन्दिर में पहुंचकर 'अकाल तख्त' पर एक ओजस्वी भाषण दे डाला। 'गुरु का बाग' में पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर 1 वर्ष 4 मास की जेल की सजा दे दी। बाद में 15 दिन में ही रिहा कर दिया गया। इसके बाद मानो स्वामी जी क्रांति की एक ऐसी मशाल बन गये जो सोये भारत के युवाओं के रक्त अग्नि बनकर धधकने लगे। माना जाता है कि यह घटना ही भारत में ब्रिटिश शासन के अंत की शुरुआत बनी और देश को अंग्रेजी शाशन से मुक्ति मिली। इस महान सन्यासी स्वामी श्रद्धानन्द को उनके इस साहस और त्याग के 100 वर्ष पुरे होने पर आर्य समाज का नमन.


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