ईश्वर की कृपा कैसे होगी, जब धर्मयुक्त व्यवहार नहीं।
ईश्वर की कृपा कैसे होगी, जब धर्मयुक्त व्यवहार नहीं।
सदाचार नही उपकार नही, करता वेदों से प्यार नही।।
वह अजर अमर जगका स्वामी, कण कण व्यापक अंतर्यामी,
कभी प्रीत प्रभु की ना जानी, विषयों में खो की मनमानी ।।
छल कपट से भरा हुआ तन मन, दिल मे बैठा करतार नही।।
शुभकर्म नही दुष्कर्म किया, पशुवत जीवन भ्रम में ही जिया ;
अमृत सा समझ विष को ही पिया,नही दान धर्म कुछ भी तो किया।
सही राह बताये कौन भला ,जब वेद ज्ञान आधार नही।
संध्या सत्संग तू कर तो जरा, दुख दीनजनों के हर तो जरा।
तप त्याग हृदय में धर तो जरा,जीने के खातिर मर तो जरा।
क्या देता लोभ सभी उसका ,संग उसके कर व्यापार नही।
वैदिक पथ चल होके निश्छल,सत्कर्म का कमा मिलेगा फल।
मन है चंचल कर वश हर पल, हो जाये तेरा जीवन ये सफल।
निश्चय ही कृपा हो जाएगी, 'हित' रूठे कभी दातार नही।।
तर्ज: सुखधाम सदा तेरा नाम सदा