कैसे बनाए बच्चों को सृजनशील
कैसे बनाए बच्चों को सृजनशील
बच्चे माता-पिता के लिए सर्वोत्तम उपहार होते हैं, इसलिए वे किसी शिक्षण संस्था में भेजकर निश्चिन्त हो जाते हैं कि हमने अच्छी जगह प्रवेश करा दिया किन्तु इतना ही पर्याप्त नहीं है उसे उपयोगी बनाने के लिए और भी आवश्यक कदम उठाने जरुरी हैं। क्यों कि बच्चों को समय एवं उद्देश्यानुसार बगैर ढाले उनसे वाञ्छित लाभ के बजाय हानि ही होगी। बच्चे स्वभाव से ही सृजनशील होते हैं। उनके सामने जो कुछ भी है वह सब कुछ उनके लिये कौतूहल की चीज है। बच्चे सभी चीजों के विषय में जल्दी से जल्दी, अधिक से अधिक जानकारी हासिल करलेना चाहते हैं। उनकी जिज्ञासा ही है जो उन्हें हरदम सचेत रखती है। सफर में जब आप ऊँचते हैं उस समय बच्चा खिड़कियों से बाहर का दृश्य देख रहा होता है। इन दृश्यों को देखते हुए उसके मन में अनेकानेक सवाल उठते जाते हैं। यदि उसके अभिभावक बाल मनोविज्ञान के जानकार है, बच्चे की जिज्ञासा में रुचि लेते हैं तो बच्चा अभिभावक से सवाल करता है । इस तरह उसकी जानकारी बढ़ती जाती है और उसके मस्तिष्क का स्वाभाविक विकास होता है।
इसके विपरीत ज्यादातर बच्चों को ऐसा माहौल नहीं मिलता, जहां वे अपनी शंकाओं का समाधान कर सकें। ऐसे बच्चे अपनी जिज्ञासाओं को मन ही मन खाते जाते हैं और फिर आगे चलकर उनके मस्तिष्क में जिज्ञासाएँ जन्म लेना ही बन्द कर देती है ऐसे बच्चों का स्वाभाविक मानसिक विकास सम्भव नहीं है। यही नहीं उनमें अन्वेषण और खोजपरक दृष्टि का अभाव हो जाता है।
बच्चों की शिक्षा की आधुनिक मांटेसरी और किंडरगार्टन पद्धति का विकास इसी परिप्रेक्ष्य में हुआ है। पद्धतियों में बच्चा कक्षा में निष्क्रिय श्रोता नहीं होता। अध्यापक कक्षा का वातावरण कुछ इस तरह बनाता है कि बच्चा अधिक से अधिक सक्रिय रहे। बच्चा अधिक से अधिक सवाल करता है। यह शिक्षक का कौशल होता है कि बच्चों के सवालों का जवाब भी खोजते हैं। शिक्षक की भूमिका गाइड की होती है।
अभिभावक और शिक्षक को बच्चों की इस तरह की प्रवृत्तियों की जानकारी होनी चाहिए। एकाकी खेलने वाले बच्चों को समूह में नहीं रखना चाहिए। बल्कि उन्हें इस तरह के खिलौने दिये जाते हैं जिससे वे एक ही स्थान पर खिलौनों से खेल सके। इसके विपरीत बड़े बच्चे खेल-कूद एवं अन्य काम समूह में करना पसंद करते हैं। इस प्रवृत्ति को न जानने वाले कई बार बच्चों को एकाकी रहने, खेलने और पढ़ने की सलाह देते हैं। जो कि अनुचित है। कई बार बच्चों के छोटे मोटे झगड़ों को लेकर अभिभावकों में खूनी संघर्ष तक हो जाते हैं। जबकि वही बच्चे कुछ ही देर बाद फिर से आपस में मिलजुलकर खेलना कूदना शुरु कर देते हैं। इस तरह बच्चों की प्रवृत्ति को न जानकर लोग बच्चों के लिये व्यर्थ ही परेशानी मोल ले लेते हैं।