लाला हरदयाल
लाला हरदयाल
आज स्वतंत्रता संग्राम के प्रंमुख सेनानी लाला हरदयाल जी का जन्मदिवस है, जिनके बारे में लोग कम ही जानते है। उसका एक प्रमुख कारण यह भी है कि उनकी वैचारिक एवं व्यवहारिक गतिविधियों का प्रमुख केंद्र देश से बाहर विदेश में, खासकर अमेरिका में रहा। लाला जी में प्रचण्ड बौद्धिक क्षमता के साथ आत्म त्याग की और राष्ट्रसेवा तथा जनसेवा की भावना भी अत्यन्त प्रबल थी। यही कारण है कि उनकी विलक्षण बौद्धिक क्षमता, उनके निजी जीवन के उत्थान का सोपान कभी नही बनी। उन्होंने ऐसे हर अवसर को दृढ़ता के साथ ठुकरा दिया, जिसमें उनके व्यक्तिगत जीवन को राष्ट्रीय चेतना से अधिक महत्व मिल रहा था। लाला हरदयाल का जीवन राष्ट्रवादी-क्रांतिकारी तथा आध्यात्मिक, वैचारिक एवं व्यवहारिक क्रियाकलापों का एक अजीब सा मिश्रण है, पर उनके हर क्रियाकलाप में राष्ट्र व मानव समाज की मुक्ति का लक्ष्य समाहित था।
महान राष्ट्रवादी, विलक्षण विद्वान्, दृढनिश्चयी, संघर्षशील तथा आध्यात्मिक व्यक्तित्व के पर्याय लाला हरदयाल का जन्म पेशकार गौरीदयाल माथुर के पुत्र रत्न रूप में 14 अक्टूबर 1884 को लाला हरदयाल का जन्म दिल्ली में हुआ था। उन्होंने दिल्ली के सेंट स्टीफन कालेज से बी. ए. किया। उसके पश्चात उन्होंने लाहौर के राजकीय कालेज से अंग्रेजी साहित्य में और फिर संस्कृत व इतिहास में मास्टर डिग्री ली। उनकी शैक्षणिक उपलब्धियाँ साबित करती है कि वे विलक्षण बौद्धिक प्रतिभा से सम्पन्न थे और अपनी इस प्रतिभा के चलते लन्दन के आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय द्वारा उच्च शिक्षा के लिए छात्रवृत्ति मिली। वहाँ के प्राध्यापक उनकी तीक्ष्ण बौद्धिकता से अत्यंत प्रभावित हुए। लन्दन में ही उनका परिचय श्यामजी कृष्ण वर्मा से हुआ जो अपने 'इंडिया हाउस' के माध्यम से भारत की स्वतंत्रता के लिए अथक प्रयास कर रहे थे। लाला हरदयाल यहीं पर विनायक दामोदर सावरकर, मैडम भीकाजी कामा तथा अन्य राष्ट्रवादी क्रान्तिकारियो के सम्पर्क में आये और उनसे प्रभावित भी हुए। उन्होंने श्याम कृष्ण वर्मा के सहयोग से 'पॉलिटिकल मिशनरी' नाम की एक संस्था बनाई। इसके द्वारा भारतीय विद्यार्थियों को राष्ट्र की मुख्यधारा में लाने का प्रयत्न करते रहे। दो वर्ष उन्होंने लंदन के सेंट जोंस कॉलेज में बिताए और फिर भारत वापस आ गए।
लाला हरदयाल पटियाला, दिल्ली होते हुए लाहौर पहुंचे और 'पंजाब' नामक अंग्रेजी पत्र के सम्पादक बन गए। उनका प्रभाव बढ़ता देखकर सरकारी हल्कों में जब उनकी गिरफ्तारी की चर्चा होने लगी तो लाला लाजपत राय ने आग्रह करके उन्हें विदेश भेज दिया। वे पेरिस पहुंचे, जहाँ श्यामजी कृष्ण वर्मा और भीकाजी कामा पहले से ही थे। लाला हरदयाल ने वहां जाकर 'वन्दे मातरम्' और 'तलवार' नामक पत्रों का सम्पादन किया। वन्दे मातरम् का प्रथम अंक मदनलाल ढींगरा की स्मृति को समर्पित किया गया| 1910 में वे सेनफ्रांसिस्को, अमेरिका पहुंचे, जहाँ उन्होंने भारत से गए मजदूरों को संगठित किया और 'गदर' नामक पत्र निकाला।
गदर पार्टी की स्थापना 25 जून, 1913 में की गई थी। पार्टी का जन्म अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को के 'एस्टोरिया' में अंग्रेजी साम्राज्य को जड़ से उखाड़ फेंकने के उद्देश्य से हुआ। गदर पार्टी के संस्थापक अध्यक्ष सोहन सिंह भकना थे। इसके अतिरिक्त केसर सिंह थथगढ (उपाध्यक्ष), लाला हरदयाल (महामंत्री), लाला ठाकुरदास धुरी (संयुक्त सचिव) और पण्डित कांशीराम मदरोली (कोषाध्यक्ष) थे। 'गदर' नामक पत्र के आधार पर ही पार्टी का नाम भी 'गदर पार्टी' रखा गया था। 'गदर' पत्र ने संसार का ध्यान भारत में अंग्रेजों के द्वारा किए जा रहे अत्याचार की ओर दिलाया।
संपूर्ण अमेरिका में लाला हरदयाल की छवि एक भारतीय ऋषि की हो गयी थी। अपनी लोकप्रियता का उपयोग उन्होंने क्रन्तिकार्य को आगे बढ़ाने में किया। 23 दिसंबर 1912 को दिल्ली में लार्ड हार्डिंग्ज पर बम फैंका गया। खबर सुनकर लाला हरदयाल और विद्यार्थियो ने अमेरिका में वन्देमातरम और भारत माता की जय के नारे लगाये। सार्वजनिक सभा में जय घोष हुआ। युगांतर सर्कुलर नामक पत्र में छपे लाला हरदयाल के लेखो का दुनिया भर में बमविस्फोट से ज्यादा प्रभाव हुआ।
प्रथम विश्वयुद्ध आरम्भ होने पर लाला हरदयाल ने भारत में सशस्त्र क्रान्ति को प्रोत्साहित करने के लिए कदम उठाए। जून 1915 में जर्मनी से दो जहाजों में भरकर बन्दूके बंगाल भेजी गईं, परन्तु मुखबिरों के सूचना पर दोनों जहाज जब्त कर लिए गए। हरदयाल ने भारत का पक्ष प्रचार करने के लिए स्विट्जरलैण्ड, तुर्की आदि देशों की भी यात्रा की। जर्मनी में उन्हें कुछ समय तक नजरबन्द कर लिया गया था। वहां से वे स्वीडन चले गए, जहा उन्होंने अपने जीवन के 15 वर्ष बिताए। हरदयाल अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए कहीं से सहयोग न मिलने पर व्याख्यान देने के लिए वे फिलाडेलफिया गए थे।
1939 में वे भारत आने के लिए उत्सुक थे। सर तेज़ बहादुर सप्रू और सी. ऍफ़. एंड्रूज के प्रयत्नों से ब्रिटिश सरकार से उन्हें भारत आने की अनुमति मिल गयी | उस समय लाला हरदयाल अमेरिका में थे | स्वदेश वापसी की अनुमति के बाबजूद लाला हरदयाल हिन्दुस्तान कभी नही पहुँच सके | अमेरिका के फिलाडेलिफया नामक स्थान पर 4 मार्च 1939 को उनकी अकस्मात मृत्यु हो गयी | मृत्यु से पहले वे पूरी तरह स्वस्थ थे| हमेशा की तरह 3 मार्च की रात को वे सोये और दूसरे दिन उन्हें मृत पाया गया| माना जाता है कि वो अंग्रेजी सरकार के किसी षड़यंत्र का शिकार हो गए।
लाला हरदयाल व उनके साथी क्रांतिकारी युद्ध के माध्यम से भारत को स्वतंत्र कराना चाहते थे | पर वे अपने उद्देश्य में सफल न हो सके| लेकिन राष्ट्र की स्वतंत्रता के उनके उद्देश्य और उसके लिए किए गये अथक प्रयास देश वासियों के लिए स्मरणीय है| लाला हरदयाल विलक्षण प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तित्व थे, वे कुशल वक्ता और उच्च कोटि के लेखक भी थे| उन्होंने अनेक ग्रंथो की रचना की| इसमें कोई सन्देह नही की अगर जीवन ने उन्हें और मौक़ा दिया होता तो वे अपनी विलक्षण बौद्धिक प्रतिभा और सांगठनिक क्षमता का उपयोग आश्चर्यजनक कार्यो के लिए कर जाते| उनके जन्मदिवस पर उन्हें कोटिशः नमन।