पापों का मूल मांसभक्षण

पापों का मूल मांसभक्षण



          मांसभक्षण से निरपराध प्राणियों का वध होता है जैसे – कराची जैसे नगर के लिये पांच हजार पशु प्रतिदिन मारे जाते हैं, इस प्रकार सारे पाकिस्तान के लिये प्रतिदिन की गणना १ लाख १० हजार पशुओं के मारे जाने की हुई । इस प्रकार १ वर्ष में ४ करोड़ से अधिक पशु मारे जाते हैं । और अण्डे इससे पृथक् हैं ।


         भारतवर्ष की जनसंख्या ५० करोड़ से क्या न्यून होगी । हमारी सरकार के मांसाहार के प्रचार से मांसाहारियों की संख्या बढ़ रही है । २०-२२ वर्ष में १०-१२ करोड़ से अधिक लोग मांसाहारी हो गये होंगे । अगर पाकिस्तान के अनुपात से संख्या लगायें तो ६ वा सात करोड़ पशुओं को भारत के लोग चट कर जाते हैं । पक्षी, अण्डे, मछली इनसे अलग हैं, जो इनसे कम नहीं हो सकते । इस प्रकार चौदह-पन्द्रह करोड़ निर्दोष जीवों की कब्रें मनुष्यों के पेट में बन जाती हैं । इसी कारण इतने प्राणियों की हत्या करने वाले देश के भाग्य में दरिद्रता, दुर्भिक्ष, अनावृष्टि, अतिवृष्टि, बाढ़, सूखा, भूचाल अनेक महामारियों की सदैव कृपा बनी रहती है । यदि यों ही मांसाहारियों की संख्या बढ़ती रही तो छः मास में सारे पशुओं को भोजन में खा जायेंगे । फिर मनुष्य परस्पर एक दूसरे को खाने लगेंगे । जैसे ऋषिवर दयानन्द ने लिखा, जो उद्धरण मैंने अन्यत्र दिया है । यदि ये गाय, बकरी, भेड़ आदि न मारें तो इनके दूध आदि से देश का अधिक लाभ हो । सभी पशु पक्षी भगवान् ने संसार के हितार्थ बनाये हैं । निम्नलिखित कविता इस पर अच्छा प्रकाश डालती है –


हाथियन के दातन के खिलोने भांति भांतियन के ।


मृग की खाल किसी योगी मन भावेगी ॥


शेर की भी खाल पै कोई बैठेंगे जति यति ।


बकरी की खाल कछु पानी भर लावेगी ॥


गैंडे हू की ढ़ाल से कोई लड़ेंगे सिपाही लोग ।


साबरे की खाल राजा राना मन भायेगी ॥


नेकी और बदी ये रह जावेंगी जगत बीच ।


मनुष्य तेरी खाल किसी काम नहीं आवेगी ॥


        यह ब्रजभाषा का कवित्त है, जिसको हरयाणे के स्वामी नित्यानन्द जी, स्वामी धर्मानन्द जी आदि सभी आर्योपदेशक गाते हैं।     


       यह मनुष्य जो अपने आपको सर्वश्रेष्ठ प्राणी मानता है, इसकी हड्डी, चमड़ा, बाल, नाखून आदि किसी कार्य में नहीं आते । पशुओं की हत्या करके संसार का बड़ा भारी अहित, हानि करते हैं, अतः महापापी हैं । जगत् का अहित ही महापाप कहलाता है । दूध-घी जो यथार्थ में मानव का भोजन है, उसके स्रोत गाय भैंस आदि, उनको मांसाहारी लोग खा गये । उनकी संख्या १९२८ में चौदह करोड़ छप्पन लाख थी । १९४१ में यह नौ करोड़ रह गई थी और १९६१ में ४ करोड़ हो गई । अब संभव है इनकी संख्या २ करोड़ ही हो । घी तो रहा नहीं, अब लोग मूंगफली, नारियल, वनस्पति तैल से पकाकर खाते हैं जिससे भिन्न-भिन्न प्रकार के रोगों की वृद्धि हो रही है । लोगों में अन्धे, बहरे, कोढ़ी, पागल और कैंसर के रोगी बढ़ते जा रहे हैं, जो मांसाहार का फल है । सर्वथा लोग शक्ति, बल से हीन हो रहे हैं । भारत का कद ३० वर्ष में २ इंच घट गया है और घी-दूध खाने वाले स्वीडन, हालैंड आदि देशों में ५ वा ६ इंच कद दो सौ वर्ष में बढ़ गया । महाभारत काल तक भी हमारा कद लम्बाई ६ वा ७ फीट से न्यून नहीं होती थी । क्योंकि महाभारत के बहुत पीछे मेगास्थनीज यूनानी यात्री आया था, उसने लिखा है कि मुझे भारत में किसी का कद ६ फीट से न्यून देखने में नहीं आया । महाभारत के समय तो ७ फीट से न्यून कद किसी का भी नहीं होना चाहिये । उस समय ३००-४०० वर्ष की आयु तक लोग जीवित रहते थे । १०० वर्ष से पूर्व तो कोई नहीं मरता था । १७६ वर्ष की आयु में राजर्षि भीष्म जी कौरव पक्ष के मुख्य सेनापति थे तथा सबसे बलवान् थे । महाराजा शान्तनु के भाई भीष्म पितामह के चचा वाह्लीक भी रणभूमि में लड़ रहे थे । उनके बेटे सोमदत्त, पौत्र महारथी भूरिश्रवा तथा उनके प्रपौत्र (भूरिश्रवा के पुत्र) भी युद्धभूमि में अपना रण-कौशल दिखा रहे थे । अर्थात् एक साथ ४ पीढ़ियां युद्ध में भाग ले रही थीं । ऐसी दशा में वे चार पीढियां युवा ही थीं । अब युवावस्था के दर्शन ही दुर्लभ हैं । किसी किसी भाग्यवान् को युवावस्था के दर्शनों का सौभाग्य मिलता है । बालक वा वृद्ध दो ही अवस्था के स्त्री-पुरुष अधिकतया देखने में आते हैं । बिना ब्रह्मचर्य पालन तथा अच्छे घी दुग्धयुक्त सात्विक आहार के कोई युवा नहीं होता । ब्रह्मचर्यपालन, बिना शुद्ध विचार तथा शुद्ध सात्विक आहार के असम्भव है । ब्रह्मचर्य ही सब शक्तियों का भण्डार है । सब सुधारों का सुधार, सब उन्नतियों की उन्नति और सब शुभकर्मों का शुभकर्म ब्रह्मचर्य जीवन ही है । मांसाहारी सात जन्म में भी ब्रह्मचारी नहीं रह सकता क्योंकि मांसाहार का उत्तेजक भोजन तो कामवासना की अग्नि को भड़काने वाला है । इसका इतिहास साक्षी है । भारतभूमि के तो ८८ हजार ऋषि सारी आयु अखण्ड ऊर्ध्वरेता ब्रह्मचारी रहे । भारत में प्रत्येक स्त्री-पुरुष १६ तथा २५ वर्ष की आयु तक ब्रह्मचारी रहते थे । कोई ब्रह्मचर्यरहित अथवा खण्डित ब्रह्मचर्य स्त्री-पुरुष गृहस्थ में भी प्रवेश नहीं कर सकता था । यह पवित्र देश ब्रह्मचारियों का देश था ।


       उधर मांसाहारियों का इतिहास क्या कह रहा है कि ९० वर्ष की आयु में भी महान् मुस्लिम फकीर मईउद्दीन चिश्ती अजमेरी विवाह करता है । अकबर महान् कहा जाने वाला इतिहास प्रसिद्ध मुगल बादशाह भी ५००० बेगमों की सेना का पति था, यह है पतन की पराकाष्ठा । छोटे-मोटे मांसाहारियों की बात जाने दें, वे क्या ब्रह्मचर्य का पालन करेंगे ? इस समय उन्नति के शिखर पर चढ़े हुये योरुप अमेरिका आदि मांसाहारी देशों का मानचित्र (नक्शा) हमारे सम्मुख है । सारे पाप अनाचारों के घर और प्रचारक यही देश हैं । इसका दिग्दर्शन आप श्री देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय जी द्वारा लिखित “महर्षि दयानन्द जी का जीवनचरित्र” में उन्हीं के शब्दों में कीजिये –


        क्या सारी पृथ्वी इस समय घोर अशान्ति से म्रियमाण दशा को प्राप्त नहीं हो रही है ? क्या नाना जाति, नाना जनपद, नाना राज्य, नाना देश, अनेक प्रकार की अशान्ति की अग्नि से जलकर छार खार नहीं हो रहे हैं ? क्या मनुष्य-संसार से शान्ति विदा नहीं हो गई है ? क्या कभी सभ्यता के नाम पर मनुष्यों ने इतने मनुष्यों के सिर काटे हैं ? क्या कभी उन्नति की पताका हाथ में लेकर मनुष्य ने वसुन्धरा को नर-रक्त से इतना रंगा है ? यदि पहले ऐसा कभी नहीं हुआ तो आज क्यों हो रहा है ? हम उत्तर देते हैं कि इसका कारण है – अनार्षशिक्षा और अनार्षज्ञान का विस्तार । इसका कारण यूरोप का पृथ्वीव्यापी प्रभाव और प्रतिष्ठा । यूरोप अनार्षज्ञान का गुरु और प्रचारक है, वही आज (कई शती तक) ससागर वसुन्धरा का अधीश्वर (रहा) है । छोटी-बड़ी, सभ्य-असभ्य, शिक्षित-अशिक्षित नाना जातियों और जनपदों में उसी यूरोप की शासन-पद्धति प्रतिष्ठित और प्रचलित है । इसलिये जो जाति वा राज्य यूरोप के संसर्ग में आ जाता है, उसमें अनार्षज्ञान का प्रचार और प्रतिष्ठा हो जाती है । इसी कारण से उस जाति वा राज्य के भीतर अनेक प्रकार की अशान्ति की अग्नि धक्-धक् करके जल उठती है । यूरोप के दो मुख्य सिद्धान्त हैं – क्रमोन्नति (Evolution) और दूसरा है योग्यतम का जय (Survival of the fittest); अर्थात् जिसकी लाठी उसकी भैंस । उपाध्याय जी लिखते हैं – इन दोनों अनार्ष सिद्धान्तों के द्वारा तूने जो संसार का अनिष्ट किया है, हम उसे कहना नहीं चाहते । योग्यतम का जय नाम लेकर तू सहज में ही दुर्बल के मुंह से भोजन का ग्रास निकाल लेता है । सैंकड़ों मनुष्यों को अन्न से वंचित कर देता है । एक एक करके सारी जाति को निगृहीत, निपीड़ित और निःसहाय कर देता है । जब तू बिजली से प्रकाशित कमरे में संगमरमर से मंडित मेज के चारों ओर अर्धनग्ना सुन्दरियों को लेकर बैठता है, उस समय यदि तेरे भोजन, सुख और संभाषण के लिए दस मनुष्यों के सिर काटने की भी आवश्यकता हो तो अनायास ही तू उन्हें काट डालेगा, क्योंकि तेरी शिक्षा यही है कि योग्यतम का जय होता है । यूरोप ! आसुरीय वा अनार्षशिक्षा तेरे रोम-रोम में भरी हुई है । अपनी अतर्पणीय धनलालसा को पूरी करने के लिये तू एक मनुष्य नहीं, दस मनुष्य नहीं, सौ मनुष्य नहीं, बल्कि बड़ी से बड़ी जाति को भी विध्वस्त कर डालता है । अपनी दुर्निवार्य भोगतृष्णा की तृप्ति के लिये तू केवल मनुष्य को ही नहीं, वरन् पशु-पक्षी और स्थावर-जंगम तक को अस्थिर और अधीर कर डालता है । अपनी भोग-विलासपिपासा की तृप्ति के लिये तू ललूखा मनुष्यों के सुख और स्वतन्त्रता को सहज में ही हरण कर लेता है । तेरे कारण सदा ही पृथ्वी अस्थिर और कम्पायमान रहती है । यूरोप ! तेरे पदार्पण मात्र से ही शान्ति देवी मुंह छिपाकर पलायमान हो जाती है । जिस स्थल पर तेरा अधिकार हो जाता है, वह राज्य सुखशून्य और शान्तिशून्य हो जाता है । जिस देश में तेरे शिक्षा-मन्दिर का स्कूल का द्वार खुलता है, तू उस देश को वञ्चना, प्रतारणा, कपट और मुकदमेबाजी के जाल में फांस देता है ।


        यूरोप ! तूने संसार का जितना अनिष्ट और अकल्याण किया है उस में सब से बड़ा अनिष्ट और अकल्याण यही है कि तूने मनुष्य जीवन की प्रगति को उलटा करने का यत्न किया है । जिस मनुष्य ने निरन्तर मुक्तिरूप शान्ति पाने के उद्देश्य से जन्म लिया था, उसे तूने धन का दास और दुर्निवार्य भोगेच्छा का क्रीत-किंकर बनाने के लिये शिक्षित और दीक्षित कर दिया है । तेरी शिक्षा का उद्देश्य धन-सञ्चय करना ही सबसे अधिक वाञ्छनीय है । तू भोगमय और भोग सर्वस्व है । तूने ब्रह्म-वृत्ति (परोपकार की भावना) का अपमान किया और उसे नीचे गिरा दिया और वैश्यवृत्ति (भोग वा स्वार्थभावना) का सम्मान किया और उसे सब से ऊंचा आसन दिया है । इसकी अपेक्षा और किस बात से मनुष्य का अधिकतर अनिष्टसाधन हो सकता है ? यह यथार्थ बात है “Eat, Drink and be Merry” खावो पीवो और मजे उड़ाओ यही यूरोप की अनार्षशिक्षा का निचोड़ वा निष्कर्ष है । यही रावण जैसे राक्षस और पिशाचों का सिद्धान्त था । इसी आसुरी अनार्ष संस्कृति का प्रचार यूरोप कर रहा है । अपनी जबान के स्वाद के लिये लाखों नहीं, करोड़ों प्राणी मनुष्य प्रतिदिन मारकर चट कर जाता है और अपने पेट में उनकी कब्रें बनाता रहता है । यह सब यूरोप की इस अनार्ष-वाममार्गी शिक्षा का प्रत्यक्षफल है । स्वार्थी मनुष्य जो भोग-विलास ले लिये पागल है, वह कैसे संयमी, ब्रह्मचारी, दयालु, न्यायकारी और परोपकारी हो सकता है? स्वार्थी दोषं न पश्यति के अनुसार स्वार्थी भयंकर पाप करने में भी कोई दोष नहीं देखता, इसलिये यूरोप तथा उससे प्रभावित सभी देशों में मानव दानव बन गया है । उसे मांसाहार के चटपटे भोजन के लिये निर्दोष प्राणियों की निर्मम हत्या करने में कोई अपराध नहीं दीखता । उसे तड़फते हुये प्राणियों पर कुछ भी दया नहीं आती । आज सारा संसार वाममार्गी बना हुआ है । मद्य, मांस, मीन, मुद्रा और मैथुन जो नरक के साक्षात् द्वार हैं, उनको स्वर्ग समझ बैठा है । ऋषियों के पवित्र भारत में जहां अश्वपति जैसे राजा छाती ठोककर यह कहने का साहस करते थे –


न मे स्तनो जनपदे न कदर्यो न मद्यपः ।


नानाहिताग्निर्नाविद्वान्न स्वैरी स्वैरिणी कुतः ॥


         अर्थात् मेरे राज्य में कोई चोर नहीं, कोई कञ्जूस नहीं और न ही कोई शराबी है । अग्निहोत्र किये बिना कोई भोजन नहीं करता । न कोई मूर्ख है तथा जब कोई व्यभिचारी नहीं तो व्यभिचारिणी कैसे हो सकती है !


        आज उसी भारत में योरुप की दूषित अनार्ष शिक्षा प्रणाली के कारण चोरी, जारी, मांस, मदिरा, हत्या-कत्ल, खून सभी पापों की भरमार है । इन रोगों की एकमात्र चिकित्सा आर्ष शिक्षा है जिसका पुनः प्रचार कृष्ण द्वैपायन, महर्षि व्यास के पीछे आचार्य दयानन्द ने किया है । वेद आर्ष ज्ञान का स्वरूप हैं क्योंकि दयानन्द के समान वेदसर्वस्व वा वेदप्राण मनुष्य दिखाया जा सकता है ।


        पाठको ! शायद आप हमारी बातों पर अच्छी प्रकार ध्यान नहीं देंगे । इसमें आपका अपराध नहीं है । “यथा राजा तथा प्रजा” – जैसा राजा होता है वैसी प्रजा भी हो जाती है । राजा अनार्ष विद्या का प्रचारक है । राजकीय शिक्षा पाने और उसका अभ्यास करने से आपके मस्तिष्क की अवस्था अन्यथा हो गई है और इसलिये हमारे कथन की आपके कानों में समाने की सम्भावना नहीं हो सकती । परन्तु आप सुनें वा न सुनें, हम बिना सन्देह और संकोच के घोषणा करते हैं कि वर्तमान युग में महर्षि दयानन्द ही एकमात्र वेदप्राण पुरुष और आर्षज्ञान का अद्वितीय प्रचारक हुआ है । आर्षज्ञान के विस्तार पर ही सारे विश्व की शान्ति निर्भर है । आर्षशिक्षा के साथ मनुष्य समाज की सर्व प्रकार की शान्ति अनुस्यूत है । जैसे और जिस प्रकार यह सत्य है कि एक और एक दो होते हैं, वैसे ही और उसी प्रकार यह भी सत्य है कि आर्ष ज्ञान ही मानवीय शान्ति का अनन्य हेतु है ।


        अतः मद्य, मांस, मैथुन आदि भयंकर दोषों से छुटकारा आर्ष शिक्षा से ही मिलेगा । आर्ष शिक्षा के केन्द्र हैं – केवल गुरुकुल । अतः अपने तथा संसार के कल्याणार्थ अपने बालक बालिकाओं को केवल गुरुकुलों में ही शिक्षा दिलावो । स्कूल कालिजों में न पढ़ावो, इसी से संसार सुख और शान्ति को प्राप्त कर सकेगा ।


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