फैज़, इस्लाम और बुतपरस्ती
फैज़, इस्लाम और बुतपरस्ती आर्यवीर पूर्वनाम मुहम्मद अली
आईआईटी कानपुर में CAA और NRC के विरोध में मुस्लिम छात्रों ने प्रदर्शन किया। एक मुसलमान छात्र के द्वारा कथित फैज अहमद फैज की एक नज़्म को गीत गाया गया। इसका मुस्लिम छात्र- छात्राओं ने ताली बजाकर कर समर्थन किया । लेकिन कुछ शेर हिन्दू आज भी जिंदा है , उन्होंने इसका जबरदस्त विरोध दर्ज किया । नमन उन छात्रों को जो कम से कम गलत को गलत तो कह सकते है।
नज़्म इस प्रकार है ...
जब अर्ज-ए-ख़ुदा के काबे से सब बुत उठवाए जाएँगे
हम अहल-ए-सफ़ा, मरदूद-ए-हरम मसनद पे बिठाए जाएँगे
सब ताज उछाले जाएँगे सब तख़्त गिराए जाएँगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का जो ग़ायब भी है हाज़िर भी
जो मंज़र भी है नाज़िर भी उट्ठेगा अन-अल-हक़ का नारा ।
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो और राज़ करेगी खुल्क-ए-ख़ुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो ।
अब मुनव्वर राना और जावेद अख्तर जैसे जिहादी फैज के समर्थन में आ गए है , कह रहे है कि यहां बुत को बुराई और अल्लाह को मन कि अच्छाई के रूपक के रूप इस्तेमाल किया गया है , फैज कम्यूनिस्ट थे । वैसे कम्यूनिस्ट पार्टी कोई हिन्दू त्यौहार नहीं बनाती मगर उनके कार्यालयों में रोजा इफ्तार से लेकर नमाज सब पढ़ी जाती है।
इस नज़्म में काबे से बूत (मूर्ति) उठाने की बात कही गई है। ऐसा कहा जाता है कि काबा एक शिव मंदिर था जिसमें अनेक शिवलिंग थे। मुहम्मद साहिब के पूर्वज उन मूर्तियों के पूजक थे। जबकि उन्होंने बुतपरस्ती के विरोध में अभियान चलाया और सभी मूर्तियां उठवा दी। यह नज़्म उसी ओर ईशारा कर रही है। स्वामी दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश के 14 वें समुल्लास में इस्लाम और मूर्तिपूजा की तर्कपूर्ण समीक्षा करते हुए लिखा
" यदि बुतों के तोड़नेहारे हो तो उस मस्जिद किबले बड़े बुत् को क्यों न तोड़ा?"
"तुम बड़े बुत्परस्त और ये छोटे हैं। क्योंकि जब तक कोई मनुष्य अपने घर में से प्रविष्ट हुई बिल्ली को निकालने लगे तब तक उस के घर में ऊंट प्रविष्ट हो जाय वैसे ही मुहम्मद साहेब ने छोटे बुत् को मुसलमानों के मत से निकाला परन्तु बड़ा बुत् जो कि पहाड़ सदृश मक्के की मस्जिद है वह सब मुसलमानों के मत में प्रविष्ट करा दी; क्या यह छोटी बुत्परस्ती है? हां! जो हम वैदिक हैं वैसे ही तुम लोग भी वैदिक हो जाओ तो बुत्परस्ती आदि बुराइयों से बच सको; अन्यथा नहीं। तुम को जब तक अपनी बड़ी बुत्परस्ती को न निकाल दो तब तक दूसरे छोटे बुत्परस्तों के खण्डन से लज्जित होके निवृत्त रहना चाहिये और अपने को बुत्परस्ती से पृथक् करके पवित्र करना चाहिये। -सन्दर्भ समीक्षा संख्या 31, सत्यार्थ प्रकाश, 14 वां समुल्लास
140 वर्ष पहले पूछे गए इस प्रश्न के उत्तर की आज भी हमें प्रतीक्षा है। संग-ए-अस्वद (काला पत्थर) का बोसा (चुम्मन) लेने, क़िब्ले की परिक्रमा करने, मक्का की ओर मुख कर नमाज़ पढ़ने। क्या यह बड़ी बुतपरस्ती नहीं है?
इसलिए हर बात पर हिन्दुओं की मान्यताओं पर आक्षेप करने वालों पहले अपने गिरेबान में तो झांकों!!