संगठन के मंत्र कोईले गया
संगठन के मंत्र कोईले गया
संगठन के सूक्त हम पढ़ते रहे,
संगठन के मंत्र कोई ले गया।
संगठन के गीत हम गाते रहे,
संगठन का तंत्र कोई ले गया।।
प्रेम से मिलकर के चलना था हमें,
हम अकेले स्वार्थ वश चलते रहे।
सम्पदा की लालसा मन में लिए,
द्वेष की दावाग्नि में जलते रहे।
बन न पाए आर्य सच्चे हम कभी,
बुद्धि से सुविचार कोई ले गया।।
एक जैसा ज्ञान था हमको मिला,
चित्त-मन भी एक जैसे थे मिले।
किन्तु रख मतभेद मन-मस्तिष्क में,
हम बढ़ाते ही रहे शिकवे-गिले।
एक-सा संकल्प बन पाया नहीं,
एकता के सूत्र कोई ले गया।।
संगठन की रीति कुछ ऐसी गढ़ी,
पूर्वजों का पंथ ही बिसरा दिया।
कलह और कटुता बढ़ाई इस तरह,
पास आए मीत को ठुकरा दिया।
संगठन का ज्ञान फैलाते रहे,
संगठन का श्रेय कोई ले गया।।
आर्य हम करने चले थे विश्व को,
भग्न माला सी बिखर के रह गए।
ओम के बदरंग झंडे के तले, हाय !
हम खुद ही सिमट के रह गए।
छिप गया सत्यार्थ रवि जब भाग्य से,
'वेद' की पहचान कोई ले गया।।