सरदार अजीतसिंह
सरदार अजीतसिंह
सशस्त्र क्रान्ति की बात हो और उसमें शहीद-ए-आजम भगतसिंह का नाम ना आये, ये असंभव है क्योंकि केवल भारत ही नहीं बल्कि विश्व इतिहास में भी बहुत कम आयु में ही क्रान्तिपथ के राही के रूप में वो अपना एक अलग स्थान बना गए। पर कितने लोग जानते हैं कि भगतसिंह को क्रान्तिपथ को चुनने की प्रेरणा कहीं और से नहीं बल्कि अपने पिता सरदार किशनसिंह और दो चाचाओं सरदार अजीतसिंह और सरदार स्वर्णसिंह से मिली थी। इनमें भी विशेषकर सरदार अजीतसिंह के जीवन, देश की आज़ादी के लिए किये गए उनके संघर्ष और उनके अथक कार्यों ने दादी और माँ के लाडले भगतसिंह को वो क्रांतिधर्मा भगतसिंह बनाया जो युवाओं के आदर्श बन गए और जिनका नाम लेते ही मन में स्वयं को देश के लिए बलिदान करने की भावना हिलोरें मारने लगती है। जी हां, ये सरदार अजीतसिंह ही थे जो भगतसिंह की प्रेरणा थे जिनके आदर्शों पर चलकर ही भगतसिंह ने स्वयं को देश के लिए कुर्बान कर दिया। सच कहा जाये तो भगतसिंह के क्रांतिकारी जीवन की नींव ही सरदार अजीतसिंह के हाथ से पड़ी।
भगत सिंह ने अपने होश संभालते हुए तीन बातें खास तौर पर सुनी थीं। वह थीं–अपने चाचा अजीतसिंह के निर्वासित होने की, भारत से फरार होकर विदेश चले जाने की एंव अंग्रेजों के खिलाफ उनके द्वारा की गई बगावत की । भगतसिंह ने सबसे पहले सरदार अजीतसिंह का ही साहित्य पढ़ा और उसी ने उनके मन में देश के लिए समर्पण का भाव जगाया। उन्होंने आगे चलकर अपनी चाची हरनाम कौर (सरदार अजीतसिंह की धर्मपत्नी) की आँखों से आसुँओं की बहती धारा देखी। भगतसिंह ने बाल्यकाल में उन्हें हर रोज पूछते सुना था, ''भागोंवाले, तुम्हारे चाचाजी का कोई पत्र आया?'' ये सब बातें ऐसी थी, जो भगत सिंह के मानसपटल पर अंकित हो गई और बिना अपने चाचा से मिले ही वो उनके घनघोर प्रशंसक हो गए। हालांकि उन्हें गिरफ्तार होने तक यही मालूम न था कि सरदार अजीतसिंह जीवित भी है या नहीं ।
भगतसिंह के मन मस्तिष्क में अपने चाचा सरदार अजीतसिंह का क्या स्थान था, इसे उनकी उन भावनाओं से समझा जा सकता है जो फाँसी की प्रतीक्षा करते हुए भी भगतसिंह के मन में भारत की आज़ादी के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले अपने चाचा के लिए थीं। हम सब जानते हैं कि धन-संपदा की वसीयत करना तो आम बात हैं, पर भावनाओं की वसीयत के उदाहरण बिरले ही देखने को मिलते हैं और भगतसिंह ने अपने स्वनामधन्य चाचा के मामले में भावनाओं की ही वसीयत की थी। सरदार भगत सिंह के होश सँभालने से पहले ही उनके चाचा सरदार अजीतसिंह अंग्रेजी सरकार से विद्रोह करने के सिलसिले में फरार हो चुके थे और भगतसिंह को उसके बाद उनके दर्शन कभी न हो सके। भगत सिंह अपने प्रिय चाचा के पदचिन्हों पर चलकर ही देश के लिए मर मिटे और मरते दम तक उनकी ख्वाहिश रही कि उनको अपने उन चाचा के एक बार दर्शन हो जाते, जिन्होनें देशभक्ति की प्रबल उमंगे अनदेखे सूत्रों से उन्हे सौंप दी थीं।
जिस समय भगतसिंह और उनके साथी क्रांतिकारी लाहौर जेल में अदालत और जेल में अपने साथियों के साथ किये गये दुर्व्यवहार और राजनैतिक कैदियों के साथ अपराधियों की तरह बर्ताव करने के विरुद्ध प्रतिवाद स्वरूप भूख हड़ताल कर रहे थे, उसी समय लाहौर में ही होने के कारण पंडित जवाहरलाल नेहरु इन सब क्रांतिकारियों से मिलने जेल में गए थे। भगतसिंह द्वारा अपने चाचा के बारे में जानने की इच्छा का वर्णन उन्होंने अपनी आत्मकथा में इस प्रकार किया है–
मैं लाहौर में ही था, जब भूख-हड़ताल एक महीने की हो चुकी थी। मुझे जेल में कुछ बन्दियों से मुलाकात की अनुमति दी गयी और मैं मिलने गया। मैंने पहली बार भगत सिंह, यतीन्द्रनाथ दास तथा कुछ दूसरे लोगों को देखा| भगतसिंह का चेहरा आकर्षक और बुद्धिजीवियों जैसा था–खूब शान्त। उसमें कोई क्रोध प्रतीत नहीं हुआ। उन्होंने अतीव सज्जनतापूर्वक निहारा तथा बातें की| भगतसिंह की मुख्य इच्छा अपने चाचा सरदार अजीतसिंह को देखना या कम से कम उनका समाचार जान लेना प्रतीत हुई, जिनको 1907 में लाला लाजपत राय के साथ देश-निकाला दिया गया था| अनेक वर्षों तक वह विदेशों में निर्वासित रहे थे| कुछ अनिश्चित रिपोर्टें थीं कि वह दक्षिणी अमेरिका में बस गये थे, मगर मैं नहीं सोचता कि उनके बारे में कोई निश्चित जानकारी है| मैं यह भी नहीं जानता कि वह जीवित हैं या मर गये|
भगतसिंह को क्रांतिपथ का राही बनाने में अग्रणी भूमिका निभाने वाले लाला पिंडीदास लिखते हैं, मैं भगतसिंह से आखिरी बार मिला तो पूछा–''कहो भगत कोई आखिरी ख्वाहिश, कोई आखिरी पयाम?'' भगतसिंह ने जवाब दिया, ''चाचाजी, सिर्फ और सिर्फ एक ख्वाहिश है कि काश कोई मरने से पहले मेरे चाचा (स॰ अजीतसिंह) से मिला दे, देखूँ उन्हें, मैं जिनका आशिक बना, जिनके नक्शे कदम पर चलकर मैंने इस अश्क की वादी में कदम रखा और जिनके प्यार ने मुझे मंजिल तक पहुँचा दिया।” “आँखों पर रूमाल रखे मैं लौट आया।” मुनासिब मुकाम तक इस ख्वाहिश को पहुँचाया भी गया पर कोई कामायाबी न मिली और मेरा भगत अपनी आखिरी ख्वाहिश दिल में लिए ही इस जहाँ से रुखसत हो गया।
सरदार अजीतसिंह, ये वो नाम है जिनके बारे में एक बार प्रख्यात स्वतंत्रता सेनानी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में गर्म दल के अगुआ माने जाने वाले लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने कहा था कि, “वो स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति बनने योग्य हैं”। जब तिलक ने इन शब्दों से सरदार अजीतसिंह के संघर्ष, बलिदान और देश के लिए उनके समर्पण का प्रशस्तिगान किया था तब अजीतसिंह की आयु मात्र २५ वर्ष थी। तब तिलक कहाँ जानते होंगे कि देश को आज़ादी मिलने के साथ ही आयेगी विभाजन की त्रासदी, जिस कष्ट को ना सह पाने की वजह से अंग्रेजों की नाक में दम कर देने वाला ये योद्धा स्वतंत्रता के समाराहों और चहल-पहल से कहीं दूर इस संसार से विदाई ले लेगा।
शहीद-ए-आजम भगतसिंह के चाचा और ब्रिटिश सत्ता को चुनौती देने वाले पंजाब के आरम्भिक विप्लवियों में से एक सरदार अजीतसिंह का जन्म पंजाब के जालंधर जिले की नवाँनगर तहसील के बंगा थाने के एक छोटे से गाँव खटकरकलां में 23 जनवरी 1881 को सरदार अर्जनसिंह के द्वितीय पुत्र के रूप में हुआ था। उनके बड़े भाई शहीद भगतसिंह के पिता सरदार किशनसिंह थे, जबकि छोटे भाई सरदार स्वर्णसिंह थे। जिस जमींदार की जमींदारी में ये गाँव आता था, उसके इस गाँव में स्थित किले के अलावा भी अन्य गांवों में कई छोटे छोटे किले थे, जिस कारण इस बड़े किले के नाम पर इस जगह को गढ़ कलां (बड़ा किला) कहने लगे थे। सरदार अजीतसिंह के पूर्वज मूलतः लाहौर के नारली गाँव के रहने वाले थे। ये उन दिनों की बात है, जब भारत में मुग़ल शासन था। सरदार अजीत सिंह जी के एक पूर्वज अपनी युवाववस्था में अपने उन पारिवारिक सदस्यों का अस्थिकलश लेकर, जिनका अंतिम संस्कार नारली में ही किया गया था, हरिद्वार में गंगा में प्रवाहित करने के लिए नारली से हरिद्वार की तरफ चले। मार्ग में एक रात विश्राम करने के लिए उन्होंने गढ़ कलां के चौकीदार से रात भर ठहरने की अनुमति मांगी। विधि का विधान कि वो चौकीदार जमींदार साहब के पास अनुमति के वास्ते चला गया, जिन्होंने उस युवा को अपने अपने कक्ष में बुला लिया , जहाँ वह अपनी पत्नी और युवा पुत्री के साथ बैठे बातचीत कर रहे थे। उस युवा से हुयी ढेर सारी बातों से ये पूरा परिवार, विशेषकर वह युवती, अत्यंत प्रभावित हुयी और अगले दिन विदा करने से पूर्व ये जानने के बाद कि उस युवा का अभी विवाह नहीं हुआ है, उन जमींदार साहब ने हरिद्वार से वापस लौटते समय भी उस युवा से पुनः उनके किले में ठहरने का अनुरोध किया। वह युवा भी उनके मंतव्य को समझ गया था और जब वह हरिद्वार में अस्थिविसर्जन कर वापस लौटा, जमींदार साहब ने अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ अत्यंत धूमधाम से करते हुए अपने इस बड़े किले को भी दहेज़ के रूप में इस नवविवाहित दंपत्ति को निवास करने के लिए सौंप दिया। इसी के बाद से वह किला गढ़ कलां (बड़ा किला) के स्थान पर खट गढ़ कलां (दहेज़ बड़ा किला) कहलाने लगा, जो कालांतर में अपभ्रंश होकर खटकरकलां हो गया। इसी युवा दंपत्ति के वंशजों के परिवार में जन्म हुआ था, हमारे नायक सरदार अजीतसिंह जी का।
विवाहोपरांत इस किले और आसपास के क्षेत्रों की जमींदारी मिलने के बाद से सरदार अजीतसिंह के पूर्वज इस इलाके के जमींदार माने जाने लगे और वे मुगलों के विरुद्ध संघर्षों में प्रांत के शासकों को एक निश्चित संख्या में सैनिकों की खेप भेजा करते थे और विशेषकर महाराज रणजीत सिंह जी के शासनकाल में तो वो तन मन धन से उनका सहयोग करने लगे। सिखों का आन बान शान का प्रतीक उनका राष्ट्रीय धवज सरदार अजीतसिंह के पूर्वजों की सरपरस्ती में ही बनाया और फहराया गया था जिसके लिए एक विशेष भवन का निर्माण किया गया था, जहाँ ये ध्वज दिन रात फहराता था और जिसके सम्मान में दूर दूर से लोग वहां एकत्रित होते थे। ये स्थान झंडा जी के नाम से जाना जाता है। अजीतसिंह जी के पूर्वज इस ध्वज को इतना ऊंचा स्थान देते थे कि जब उनके मूल निवास नारोली से लोग उन्हें वापस लौट चलने के लिए प्रार्थना करने आये तो उन्होंने कहा कि ये ध्वज उन्हें अपने जीवन से भी प्यारा है और इसे छोड़कर कहीं जाने की वो सोच भी नहीं सकते। इस परिवार में अपने देश धर्म के लिए भावनाएं इतनी प्रबल थीं कि जब महाराज रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद पंजाब पर अंग्रेजों की गिद्ध दृष्टि जमने लगी तो सरदार अजीतसिंह के पितामह सरदार फ़तेहसिंह ने अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष करने के की शपथ लेते हुए स्वयं को पूरी तरह अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध में झोंक दिया। उन्होंने प्रथम अंग्रेज-सिख युद्ध के 18 दिसंबर 1845 को फिरोजपुर से लगभग 20 मील दूर स्थित छोटे से गाँव मुदकी में हुए प्रारंभिक युद्ध, 28 जनवरी 1846 को अलीवाल में हुयी झड़प और 10 फरवरी 1846 को सतलुज नदी के किनारे स्थित गाँव सबरान में हुए निर्णायक युद्ध में वीरतापूर्वक भाग लिया था।
अंग्रेजों के विरुद्ध इन युद्धों में भाग लेने का परिणाम ये हुआ कि सरदार फ़तेहसिंह की जमींदारी का अधिकांश भाग जब्त कर लिया गया और उनके परिवार को अत्यंत कष्ट उठाने पड़े, पर उन्होंने कभी भी अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। बाद में जब 1857 की क्रान्ति के समय कई राजाओं, सामंतों और जमीदारों ने अपने ही उन लोगों के विरुद्ध, जो अंग्रेजों से स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे थे, अंग्रेजों का साथ दिया, तब एक धनवान जागीरदार और अंग्रेजों द्वारा नियुक्त आनरेरी मजिस्ट्रेट मजीठिया सरदार सूरतसिंह ने, जिसे 1857 में अंग्रेजों की सहायता करने के बदले अंग्रेजों से बड़ी बड़ी जागीरें प्राप्त हुयी थीं, सरदार फ़तेहसिंह को भी अंग्रेजों की सहायता के लिए ये कहते हुए आमंत्रित किया कि इसके ऐवज में उन्हें अंग्रेज-सिख युद्ध में भाग लेने के कारण जब्त की गयी सारी जमींदारी वापस मिल जाएगी। पर अपने परिवार की परम्परा के अनुरूप सरदार फ़तेहसिंह ने बिना एक क्षण लगाये अपने ही देशवासियों के विरुद्ध अंग्रेजों की सहायता करने से साफ़ इनकार कर दिया। इस सबने सरदार फ़तेहसिंह में जो विद्रोही घृणा जगा दी थी, वह पारिवारिक धरोहर के रूप में उनके पुत्र सरदार अर्जुनसिंह को मिली। यह धरोहर ही थी जो परिवर्तन की प्यास बनकर उन्हें सामाजिक क्रान्ति के यज्ञ-मण्डप में ले आई।
उस दौर में अधिकांश भारतीय सोचते थे कि हम कमजोर हैं, अलग-अलग हैं, निहत्थे हैं। इसके विरुद्ध अंग्रेज शक्तिशाली हैं; संगठित हैं, इसलिए हम उनका कुछ नहीं कर सकते, कुछ बिगाड़ नहीं सकते। 1857 में प्रयत्न करके तो हमने देख लिया, पर क्या हुआ सिवाय इसके कि हम और पिटे, पिसे और अपमानित हुए। वे अब शासक हैं और हम अब शासित हैं। उन्हें अब शासक रहना है, हमें अब शासित रहना है। गुलामी और गुलामी, बस यही हमारा भाग्य है और यही हमारा भविष्य है। देश की परिस्थितियों और अंग्रेजों की कूटनीति चालों से जब हमारा देश हीनता के इस अवसाद में डूबा हुआ था, तो देश के पुनरुत्थान की सब आशाएं समाप्त हो गई थीं। कोई देश गिरकर उठता है स्वदेशाभिमान और जातीय गर्व के प्रकाश में पनपे आत्मगौरव से, पर हीनता की उस घनी आंधी में स्वदेशाभिमान और जातीय गौरव के दीपक कहां जल सकते थे? ऋषि दयानन्द के आत्मतेज की बलिहारी कि उन्होंने नई पृष्ठभूमि की खोज की और अतीत गौरव की उपजाऊ भूमि में स्वाभिमान और स्वदेशाभिमान के वृक्ष रोपे।
शीघ्र ही इन पर जागरण और उद्बोधन के पुष्प महके और देश विचार-क्रान्ति से उद्बुद्ध हो उठा। सरदार अर्जुनसिंह ने ऋषि दयानन्द को देखा तो आकर्षित हुए, उनका भाषण सुना तो प्रभावित हुए और बातचीत की तो पूरी तरह उनके हो गए। सरदार अर्जुनसिंह इस विशाल देश के पहले सिख नागरिक थे, जो इस विचार क्रान्ति में भागीदार हुए। उनमें धुन थी, देशभक्ति की, आस्था की, कर्मठता थी; वे शीघ्र ही अपने क्षेत्र में इस विचार क्रान्ति का यज्ञ-मण्डप बन गए। सरदार अर्जुनसिंह के घर में तीन पुत्र जन्मे—सरदार किशनसिंह, सरदार अजीतसिंह, सरदार स्वर्णसिंह। सरदार किशनसिंह का व्यक्तित्व समुद्र की तरह विस्तृत और गहरा था। लोकमान्य तिलक से लेकर महात्मा गांधी के सब आन्दोलनों में उन्होंने पूरे जोश से हिस्सा लिया। उनपर भारत की स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों के विरुद्ध आंदोलन में सरकार ने 42 बार राजनीतिक मुकदमे चलाये। उन्हें अपने जीवन में लगभग ढाई वर्ष की कैद की सजा हुई तथा दो वर्ष नजरबन्द रखा गया। दूसरी दिशा में जो विद्रोह और क्रान्ति के तूफान उठे, चाहे वह लार्ड हार्डिग पर फेंके गए बम का मुकदमा था, चाहे 'पगड़ी संभाल जट्टा' की पहली किसान-क्रान्ति, चाहे जेलों में मानवीय अधिकारों का संघर्ष और चाहे गदर-आन्दोलन, वे उन सब के भी सहयोगी-सलाहकार रहे।
सरदार अजीतसिंह ने अपना सार्वजिनक जीवन आरम्भ तो किया कांग्रेस के आन्दोलन से, पर शीघ्र ही उनका विकास एक नई दिशा में बदल गया। देश में चाफेकर-बन्धुओं के द्वारा पूना में 22 जून 1917 को प्लेग-कमिश्नर रैण्ड और लैफ्टीनैण्ट मिस्टर आयर्स की हत्या कर सशस्त्र विद्रोह की नींव रखी गई थी। सरदार अजीतसिंह ने उस धारा से स्वतन्त्र देशव्यापी जन-क्रान्ति (1857 के गदर की पूर्णता) की नींव रखी। उनका व्यक्तित्व इतना प्रचण्ड था कि यह नींव शीघ्र ही एक भवन का रूप लेने लगी। इस भवन का नक्शा कितना विशाल था, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि सरदार अजीतसिंह ने अपनी क्रांति-संस्था 'भारतमाता सोसायटी' के द्वारा प्रथम विश्वयुद्ध का (जब किसी दूसरे के स्वप्न में भी वह न आया था) यथार्थ अनुमान कर अपने सहकर्मी लाला हरदयाल को अमेरिका, सूफी अम्बाप्रसाद को अफगानिस्तान-ईरान, सरदार निरंजन सिंह को ब्राजील और इसी तरह कई दूसरे साथियों को दूसरे देशों में भेजने का निश्चय किया कि ये लोग विदेशों में सशस्त्रशक्ति का संगठन करें, जो युद्ध के समय भारत के भीतर उभरी शक्ति से आ मिलें। स्वयं सरदार अजीतसिंह भारत में ही रहे और यहीं सेनाओं और राजनेताओं के साथ लेकर जन-क्रान्ति की तैयारी करें। परिस्थितियां ऐसी हुई कि सरदार अजीतसिंह को भी विदेश जाना पड़ा। वहां उन्होंने 39 साल तक भारतीय क्रान्ति की ज्वाला जलाई और दोनों विश्वयुद्धों में सबसे पहले आज़ाद हिन्द सेना का संगठन किया।
सरदार स्वर्ण सिंह भारतमाता के द्वारा क्रान्ति की रोशनी घर-घर पहुंचाने वाले मशालची थे। वाणी और कलम दोनों उनके अस्त्र थे। जेल की यातनाओं ने उन्हें तोड़ दिया और वे 23 वर्ष की भरी जवानी में शहीद हो गए। सरदार किशनसिंह के घर में जन्में भगतसिंह। उनकी मृत्युंजयी वीरता का जन-मानस पर ऐसा सिक्का बैठा कि उग्रक्रांति की धारा को अपने चाचा सरदार अजीतसिंह द्वारा स्थापित जन-क्रान्ति की धारा में बदल देने का उनका ऐतिहासिक कार्य सबकी आंखों से ओझल ही रह गया। देश की नयी पीढ़ी को यह बताया ही नहीं गया कि भारत का प्रथम संविधान सरदार अजीतसिंह ने ही लिखा था और देश की नई पीढ़ी को यह भी नहीं बताया गया कि सरदार भगतसिंह ही इस देश में समाजवाद के प्रथम उद्घोषक थे|
ये कहना अतिश्योक्ति ना होगी कि महर्षि दयानंद की शिक्षाओं से प्रभावित होकर सरदार अर्जुनसिंह ने साहस कर अन्धविश्वास और परम्परावाद की जड़ता से बन्द अपने घर के द्वार खोल दिए और ऊबड़-खाबड़ मार्ग को साफ कर अपने आंगन में यज्ञवेदी बना दी। सरदार किशनसिंह ने उस द्वार के आंगन तक के क्षेत्र को लीप-पोत कर उस यज्ञवेदी पर एक विशाल हवन-कुण्ड प्रतिष्ठित कर दिया। सरदार अजीतसिंह ने उस हवन-कुण्ड में समधाएं सजा कर एक दहकता अंगारा रख दिया। सरदार स्वर्णसिंह ने उसे झपटकर लपट में बदल दिया। बस फिर क्या था, लपटें उठीं और खूब उठीं। सरदार अजीतसिंह उन लपटों के लिए ईंधन की तलाश में दूर चले गए और जल्दी लौट न सके। वे लपटें बुझ जातीं, पर सरदार किशनसिंह उनके अंगरक्षक बने रहे, उन्हें बचाए रहे। भगतसिंह ने इधर-उधर ईंधन की तलाश न कर अपने जीवन को ही ईंधन बना झोंका और लपटों को पूरी तरह उभारकर इस तरह उछाल दिया कि वे देश-भर में फैल गईं, देश का हर आंगन एक हवन-कुण्ड बन गया।
सरदार अजीतसिंह की प्रारंभिक शिक्षा गाँव में ही हुयी और उन्हें फ़ारसी, उर्दू और अरबी भाषाओँ का ज्ञान अपने पिता से प्राप्त हुआ जो इन भाषाओँ के अच्छे जानकार थे और साथ भी यूनानी चिकित्सा पद्धति के भी अच्छे ज्ञाता थे। मिडिल की परीक्षा अजीत सिंह जी ने बंगा के एक विद्यालय से प्राप्त की। जब वह मिडिल में थे, तभी एक दिन आर्य समाज के प्रशंसक उनके पिता जी उन्हें स्थानीय आर्यसमाज के वार्षिकोत्सव में ले गए, जहाँ एक वक्ता ने स्वदेशी के मह्त्व पर अत्यंत सारगर्भित भाषण दिया। इसका परिणाम ये हुआ कि गाँव वापस लौटते ही पूरे परिवार ने विदेशी वस्त्रों को तिलांजलि दे दी और स्वदेशी को पूरी तरह अपने जीवन में उतार लिया। इस बात का अजीतसिंह पर गहरा प्रभाव पड़ा और उनके मन में ये विश्वास दृढ हो गया कि बिना अंग्रेजी दासता से मुक्त हुए देश की तरक्की और इसके निवासियों की ख़ुशी का कोई और उपाय नहीं।
अजीतसिंह के चचेरे भाई एक मिशन स्कूल में पढ़ते थे, जहाँ भारतीयों को नीची निगाह से देखा जाता था और उनकी धर्म-संस्कृति का उपहास किया जाता था। जब इस बात की चर्चा घर पर होती तो अजीतसिंह को इससे अत्यंत क्लेश होता और इसीलिए उन्होंने अपने चाचा से आग्रह किया कि हमें जालंधर में अपना विद्यालय आरम्भ करना चाहिए जहाँ के शिक्षक देशभक्त हों और छात्रों में राष्ट्रप्रेम की भावनाएं जागृत करें। जालंधर के स्थानीय आर्यसमाजी भी वहां एक विद्यालय शुरू करने के इच्छुक थे, अतः सरदार अजीतसिंह के चाचा ने स्थानीय लोगों के सहयोग से जालंधर में एक विद्यालय की स्थापना की, जिसके प्रधानाध्यापक के रूप में वहां के प्रमुख आर्य समाजी विद्वान् और प्रखर देशभक्त सुन्दरदास ने कार्यभार संभाला। देश के प्राचीन इतिहास और वीरों के बारे में लिखी उनकी पुस्तकें पढ़ कर विद्यार्थियों में देश के लिए कुछ कर गुजरने की भावना बलवती होती थी और ऐसे में पहले से इस तरह के संस्कारों वाले अजीतसिंह पर इन सबका प्रभाव कैसे ना पड़ता। I893 में इस स्कूल से मैट्रिक पास करने के बाद उन्होंने डी.ए.वी. कालेज लाहौर में प्रवेश लिया जहाँ के प्रधानाचार्य श्री हंसराज के विचारों को सुनने से, पुस्तकालय में गैरीबाल्डी और मैजिनी की जीवनियों को पढने से और मुल्कराज भल्ला लिखित शहीदों की कहानियां नामक पुस्तक के अध्ययन से उनके विचार देशसेवा के प्रति और दृढ होते गए। यहाँ से अध्ययन समाप्त करने के बाद वो लॉ कालेज बरेली से कानून के अध्ययन के लिए गए परन्तु बीच में ही पिता के पदचिन्हों पर चलकर समाज सेवा के कार्यों में संलग्न हो जाने के कारण वो ये पढाई पूरी नहीं कर सके|
उस समय देश अतिवृष्टि और अनावृष्टि की विभीषिका से जूझ रहा था। अपने बड़े भाई सरदार किशनसिंह के साथ मिलकर अजीतसिंह ने बरार (मध्य प्रदेश, 1898), अहमदाबाद और अन्य क्षेत्र (गुजरात, 1900) के अकाल प्रभावित क्षेत्रों, श्रीनगर (कश्मीर, 1904) के बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों और कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश, 1905) के भूकंप प्रभावित क्षेत्रों का सघन दौरा किया और बीमार, असहाय और भूखे-प्यासे लोगों की दिल-ओ-जान से सेवा की। इन सब स्थानों पर उनके अनुभवों ने उन्हें इतना अच्छे से समझा दिया कि इन सब समस्याओं का कोई स्थायी समाधान तब तक नहीं निकाला जा सकता, जब तक भारत से ब्रिटिश राज ख़त्म नहीं होता और देश में एक सच्चे लोकतंत्र की स्थापना नहीं होती। यहीं से उन्होंने देश की स्वतंत्रता को अपने जीवन का मिशन बना लिया। अपने इन्हीं सेवा कार्यों के दौरान 1903 में उनकी मुलाक़ात अकाल की व्जह से अनाथ हो गयी नमो (बाद में हरनाम कौर) से हुयी और जाति-पाँति और ऊँच-नीच के भेदभाव से बहुत ऊपर उठकर उन्होंने नमो के साथ विवाह कर समाज के समक्ष एक प्रेरक उदाहरण प्रस्तुत किया।
बरेली में रहते हुए अजीतसिंह जी ने क्रांतिकारी गतिविधियों को ठोस आधार प्रदान करने के लिए अपने बड़े भाई सरदार किशनसिंह के साथ मिलकर नेपाल के राजा से सम्बन्ध बनाने और नेपाल-भारत सीमा पर जमीन खरीदने का विचार किया ताकि क्रांति की घटनाओं को अंजाम देने के बाद क्रांतिकारी नेपाल में शरण ले सकें। इसी समय जनवरी 1903 में तत्कालीन वायसराय लार्ड कर्जन ने एक दरबार का आयोजन किया जिसमें सभी भारतीय राजाओं-रजवाड़ों को आमंत्रित किया गया। अजीतसिंह भी अपने बड़े भाई किशनसिंह जी के साथ इस दरबार में इस उद्देश्य के साथ गए कि अंग्रेजों के विरुद्ध उन सभी का एक सशक्त संयुक्त मोर्चा खडा किया जा सके। कश्मीर और जोधपुर रियासतों के मंत्रियों से और बड़ोदा के महाराज से दरबार शुरू के पहले ही अजीतसिंह ने अच्छे सम्बन्ध बना लिए और इस बात के लिए तैयार कर लिया कि वो सभी रियासतों के प्रमुखों को इस बात के लिए तैयार करें कि वो एक दूसरे के साथ निकट के सम्बन्ध बनायें और रोटी-बेटी के सम्बन्ध करें। इस के पीछे सोच ये थी कि सभी रियासतों को एकजुट कर अंग्रेजों के विरुद्ध 1857 की तर्ज पर एक सशक्त विद्रोह खडा किया जा सके।
इस दरबार में अजीतसिंह जी और किशनसिंह जी को अपेक्षानुरूप सफलता मिली। बाद में आर्यसमाजी सन्यासियों स्वामी प्रकाशानंद और स्वामी शंकरानंद ने वैदिक धर्म प्रचारकों के रूप में पूरे देश में घूम घूम कर इस कार्य में अजीतसिंह की बहुत सहायता की। कई रियासतों से क्रांतिकारियों को अस्त्र-शस्त्र मुहैया कराने को लेकर भी उन्हें ठोस आश्वासन मिल गया। इन सारे प्रयासों के बारे में जो कुछेक लोग ही जानते थे, उनमें आनंद बाज़ार पत्रिका के प्रोप्राइटर मोतीलाल घोष और ट्राइब्यून के सम्पादक कालीचरण चटर्जी मुख्य थे। इस विद्रोह के पहले अजीतसिंह जी अंग्रेजों की मानसिकता और उनके बारे में अच्छे से जान लेना चाहते थे और इसी बात को ध्यान में रखकर उन्होंने ब्रिटिश अधिकारीयों, मिशनरियों आदि को उर्दू और पंजाबी सिखाने के काम शुरू कर दिया, जिसने उन्हें अंग्रेजों और मिशनरियों के दिमाग को पढने में बहुत सहायता की।
1906 में कलकत्ता में कांग्रेस का एक विशाल अधिवेशन हुआ, जिसमें अजीतसिंह जी भी ये सोचकर गए कि अंग्रेजो के सामने भीख मांगने की कांग्रेस की नीति से असंतुष्ट लोगों को एक मंच पर लाने में संभवतः वहां कुछ सहायता मिल सके। वहां जाने पर उनका बंगाल में अंग्रेजों के विरुद्ध काम कर रही कई संस्थाओं से संपर्क हुआ, जिनसे प्रभावित होकर उन्हें पंजाब में भी इसी प्रकार की एक संस्था के गठन का निर्णय किया। पंजाब वापस आते ही उन्होंने सरदार किशनसिंह, स्वर्णसिंह, लाला घसीटाराम और सूफी अम्बा प्रसाद के साथ मिलकर भारतमाता सोसाइटी की स्थापना की, जो एक गुप्त संगठन था और जिसका उद्देश्य भारत को पराधीनता की बेड़ियों से किसी भी तरह से मुक्त कराना था| इस संस्था के दो प्रमुख अस्त्र थे–भाषण और प्रकाशन। इस हेतु अजीतसिंह ने भारतमाता बुक एजेंसी की स्थापना की थी, जो सरकार विरोधी साहित्य के प्रकाशन का प्रमुख केंद्र थी। इसके पीछे के प्रमुख व्यक्ति थे महान देशभक्त और क्रांतिकारियों में बौद्धिकता के स्तम्भ माने जाने वाले सूफी अम्बाप्रसाद। भारतमाता (हिंदी), इंडिया (अंग्रेजी), पेशवा (उर्दू) और पंजाबी (अंग्रेजी), वो समाचार पत्र थे जो इस संस्था के बैनर तले प्रकाशित होते थे। इसके अतिरिक्त ना जाने कितने ही पत्रक और पुस्तकें भी सोसाइटी द्वारा प्रकाशित की गयीं जिनमें से अधिकांश में सशस्त्र विद्रोह की आवाज थी। हालाँकि सरकार इन्हें जब्त करती थी पर इससे इनकी प्रसिद्धि और ज्यादा फैलती थी। सरकारी तंत्र में तो भारतमाता सोसाइटी की गतिविधियों को 'छोटा 1857' कहा जाने लगा था।
इसी समय पंजाब में ब्रिटिश शासन द्वारा अतिशय भूमिकर लगाने और गलत नीतियाँ अपनाने के कारण किसानों में जबरदस्त असंतोष फैलने लगा, जिसे अजीतसिंह ने अंग्रेजी शासन के विरुद्ध लोगों को खड़ा करने का एक सुनहरा अवसर समझा और शीघ्र ही वो इस विद्रोह के सेनानायक बन कर सामने आये क्योंकि लाला लाजपतराय ने ये कहकर उन किसानों को, जो उनसे अपने आन्दोलन का नेतृत्व करने का अनुरोध करने गए थे, निराश कर दिया कि चूँकि अब बिल पास हो चूका है तो कांग्रेस इसमें कुछ भी नहीं कर सकती है। पूरे क्षेत्र में सरकर विरोधी माहौल बनाने के बाद और लोगों को सरकारी बिलों का उनकी खेती पर पड़ने वाला दुष्परिणाम समझाने के बाद 3 मार्च 1907 को लायलपुर में अजीतसिंह ने सरकार के विरुद्ध एक बहुत बड़ी रैली का आयोजन किया जिसमें अखबार 'झांग सयाल' के सम्पादक बांकेदयाल ने पगड़ी सम्हाल जट्टा, पगली सम्हाल नामक गीत प्रस्तुत किया| इस गीत की प्रसिद्धि इतनी फैली कि ये संघर्ष कर रहे किसानों के लिए मंत्र बन गया और सरदार अजीतसिंह का ये आन्दोलन पगड़ी सम्हाल जट्टा आन्दोलन के नाम से जाना जाने लगा|
यूँ लाला जी इस आन्दोलन में शामिल नहीं हुए थे पर अजीतसिंह चाहते थे कि वो इसमें शामिल हों और इस हेतु उन्होंने रामभज दत्त नामक व्यक्ति के जरिये लाला जी और उनके साथियों को इस रैली में आने का निमंत्रण उन्हें बिना ये बताये भिजवाया कि इस रैली के मुख्य कर्ताधर्ता अजीतसिंह हैं। लाला जी इस रैली में शामिल हुए और और अपने ओजस्वी भाषण से लोगों को अन्दर तक झकझोर दिया। चूँकि ये वर्ष 1907 था अर्थात 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की पचासवीं वर्षगाँठ, इसलिए अंग्रेजी सरकार बहुत ज्यादा डरी हुयी थी कि कहीं ये आन्दोलन उसके लिए समस्याएं ना खड़ी कर दे, अतः एक सर्कुलर जारी कर सेना में शामिल भारतीय जवानों को हिदायत दी गयी कि वो अजीतसिंह की बातों को कतई ना सुने पर इसने उनकी प्रसिद्धि और ज्यादा फैला दी। लायलपुर की रैली के बाद उन्होंने पंजाब के लगभग सभी प्रमुख नगरों का दौरा किया और लोगों को अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध खड़े होने के लिए प्रेरित किया। उनका प्रभाव इस हद तक बढ़ गया था कि सेना में शामिल भारतीय जवान उनके पास आकर उन्हें पूर्ण समर्थन का वचन देते थे।
2 अप्रैल को रावलपिंडी में एक बड़ी रैली का आयोजन किया गया, जिसमें भाग लेने के लिए अजीतसिंह और लाला जी दोनों ही वहां गए पर प्रशासन ने रैली पर प्रतिबन्ध लगा दिया। लाला जी इस बारे में कार्यवाही हेतु कोर्ट चले गए जबकि अजीतसिंह जी ने एकत्रित जनसमूह को संबोधित करना शुरू कर दिया। ये देख मिलिट्री कमांडर ने लोगों को तितिर हो जाने का आदेश दिया और ना मानने पर सैनिकों को गोलियां चलाने का आदेश दिया। पर पासा उलटा पड़ गया और भारतीय सैनिकों ने ये कहते हुए बंदूकें उसकी तरफ घुमा दीं कि दोबारा ऐसा आदेश मिलने पर वो उस पर गोलियां चला देंगे। स्थिति बिगड़ते देख वो कमांडर तो लौट गया पर सैनिकों को अपने साथ देख लोगों के हौसले बुलंद हो गए। नतीजा ये हुआ कि लोगों ने अंग्रेजों को परेशान करना, सरकारी कार्यालयों और चर्चों को जलाना, और पटरियों और तारों को उखाड़ना शुरू कर दिया और स्थिति यहाँ तक बिगड़ गयी कि लगभग समस्त पंजाब में अंग्रेजों के लिए स्थिति नियंत्रण करना असंभव सा हो गया। पंजाब के गवर्नर लार्ड लाब्टसन ने लार्ड हार्डिंग को भेजे अर्जेंट टेलीग्राम में लिखा कि पंजाब अजीतसिंह और उनके साथियों के नेतृत्व में विद्रोह की कगार पर है और इसे रोकने के लिए तुरंत कुछ करना आवश्यक है। इसके पहले 29 अगस्त 1906 को लार्ड मिंटो भारत मंत्री लार्ड मारले को पत्र लिख कर बता चुका था कि ये सारा उपद्रव कहने को किसान आन्दोलन के नाम पर है पर इसका असल मकसद भारतीय सैनिकों की सहायता से सशस्त्र विद्रोह करना है।
इन सब स्थितियों और विद्रोह की आशंका से घबरा कर सरकार ने सरदार किशन सिंह, सरदार स्वर्णसिंह, लाला घसीटाराम, लाला गोवर्धनदास और पंडित रामचन्द्र पेशावरी आदि को गिरफ्तार कर लिया और 4 मई 1907 को सरदार अजीतसिंह और लाला लाजपत राय के विरुद्ध वारंट जारी कर दिया। लाला जी को 9 मई को गिरफ्तार कर लिया गया पर अजीतसिंह फरार हो गए और सोसाइटी से सम्बंधित आवश्यक काम निपटाने के बाद ही उन्होंने 2 जून को आत्मसमर्पण किया। लालाजी की तरह की उन्हें भी बर्मा की उसी मांडले जेल में निर्वासित कर दिया गया, जहाँ 1857 के संग्राम के बाद बहादुरशाह ज़फर और 1882 के कूका विद्रोह के बाद बाबा रामसिंह कूका को निर्वासित किया गया था। इस निर्वासन के बाद जहाँ कांग्रेस ने लाला जी का मुक्त कराने के लिए हर संभव प्रयास किया, वहीँ अजीतसिंह जी को उनके हाल पर छोड़ दिया गया। कांग्रेस लालाजी के बचाव में इस हद तक नीचे चली गयी कि उसने लालाजी को सरदार अजीतसिंह के साथ सम्बंधित करने को लालाजी का अपमान माना। कांग्रेस के दवाब में लालाजी को तो रिहा कर दिया गया पर सरकार अजीतसिंह को रिहा करने के पक्ष में कतई नहीं थी पर थोड़े ही दिन में उसे अनुभव हुआ कि मुक्त अजीतसिंह उसके खिलाफ जितना आक्रोश खड़ा नहीं कर, पाएंगे उससे ज्यादा बंदी अजीतसिंह कर रहे हैं, क्योंकि उनके द्वारा खड़ा किया 'पगड़ी संभाल आन्दोलन' फैलता ही जा रहा है। ऐसे में जार्ज पंचम के राज्यारोहण के अवसर पर ख़ुशी प्रकट करने का बहाना करते हुए सरकार ने उन्हें भी छोड़ दिया।
ये वो समय था, जब सरदार अर्जुनसिंह के तीनों पुत्र जेल में बंद थे, सरदार किशनसिंह स्वतंत्रता की लड़ाई में भाग लेने के कारण सेंट्रल जेल में बन्द थे, सरदार अजीतसिंह मांडले जेल में तथा सरदार स्वर्णसिंह अपने बड़े भाई सरदार किशनसिंह के साथ ही सजा भुगत रहे थे। ऐसे में ही उनके घर पर उनकी बड़ी पुत्रवधू यानि सरदार किशनसिंह की पत्नी ने 27 सितंबर 1907 अपने दूसरे पुत्र को जन्म दिया। इस बच्चे के जन्म के समय घर में केवल उसकी माँ श्रीमती विद्यावती, दादा अर्जुनसिंह तथा दादी जयकौर ही थे। किन्तु पता नहीं इस बालक का जन्म ही शुभ था अथवा दिन ही अच्छे आ गये थे कि उनके जन्म के तीसरे ही दिन उसके पिता सरदार किशनसिंह तथा चाचा सरदार स्वर्णसिंह जमानत पर छूट कर घर आ गये तथा लगभग इसी समय दूसरे चाचा सरदार अजीतसिंह भी रिहा कर दिये गये। इस प्रकार उनके जन्म लेते ही घर में यकायक खुशियों की बाहर आ गयी, अत: उनके जन्म को शुभ समझा गया। इस भाग्यशाली बालक का नाम उनकी दादी ने भागा वाला अर्थात् अच्छे भाग्य वाला रखा। इसी नाम के आधार पर बाद में यह बालक भगत सिंह कहा जाने लगा।
अपनी मुक्ति के थोड़े ही दिन बाद अजीतसिंह ने दिसंबर के अंत में सूरत में हुए कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में भाग लिया और उदारवादियों के विरुद्ध तिलक के गर्म विचारों का समर्थन किया। उनके क्रांतिकारी विचारों और कार्यशैली से प्रभावित होकर ही तिलक ने उनके बारे में वो कथन कहा था, जिसका जिक्र ऊपर एक जगह आया है। पंजाब लौटकर अजीतसिंह ने भारतमाता सोसाइटी और भारतमाता बुक एजेंसी पर फिर से ध्यान देना शुरू किया और थोड़े ही दिन में उर्दू में प्रकाशित होने वाले 'पेशवा' को जागरूक पंजाबियों के जीवन का भाग जैसा बना दिया। ख़ुफ़िया पुलिस की नज़रों से बचने के लिए अजीतसिंह ने कार्य को गुप्त और मुक्त दो भागों में बाँट कर गुप्त कार्य का जिम्मा हरदयाल सिंह को सौंपा और मुक्त कार्य अपने पास रखा ताकि बिना किसी विघ्न के कार्य संपन्न हो सके। दिल्ली-लाहौर षड्यंत्र मामले में फांसी की सजा पाने वाले मास्टर अमीरचंद को उनकी अद्भुत लेखकीय क्षमता के कारण क्रांतिकारी साहित्य को लिखने और प्रकाशित करने का कार्य अजीतसिंह जी ने ही सौंपा था।
उनके कार्यों, पत्रकों, सम्पादकीयों, भाषणों और वक्तव्यों के धारदार क्रांतिकारी पुट ने फिर से अंग्रेजी सरकार को उनके प्रति सशंकित कर दिया और ऐसी ख़बरें उड़ने लगीं कि इस बार उन्हें गिरफ्तार कर मृत्युदंड ही दिया जायेगा।
इसकी भनक लगते ही भारत की आज़ादी के अपने संकल्प को पूरा करने के लिए मिर्ज़ा हसन खान नाम से वो अपने साथियों सूफी अम्बाप्रसाद, जिया-उल-हक और हरकेश लाठा के साथ वो 1908 के अंतिम दिनों में कराची होते हुए इरान पहुँच गए और अपने प्रयासों से इसे ब्रिटिश सत्ता के विरोध में भारतीयों का केंद्र बना दिया। 1910 तक इनकी गतिविधियाँ और समाचार पत्र 'हयात' ब्रिटिश सरकार की आँखों में कांटे की तरह चुभने लगे और ब्रिटिश शासन के दबाव में इरानी सरकार ने कार्यवाही करते हुए सभी गतिविधियों को बंद करा दिया, क्योंकि ब्रिटिश सरकार को अंदेशा था कि जर्मनी तुर्की और इरान को एकजुट कर अफगानिस्तान के रास्ते भारत की तरफ बढ़ सकता है जो अंग्रेजी सरकर के लिए बहुत बड़ा सरदर्द हो जाता। ऐसी परिस्थिति में वहां रहने को औचित्यहीन समझ अपने सबसे भरोसेमंद साथी सूफी अम्बाप्रसाद को शिराज़ में क्रांतिकारी गतिविधियाँ करते रहने के लिए छोड़ बाकू (रूस), तुर्की और जर्मन होते हुए पेरिस पहुंचे और इंडियन रिव्ल्युशनरी एसोशियेशन की स्थापना की।
शीघ्र ही उन्होंने विदेशों में भारत की स्वतंत्रता के लिए कार्य कर रहे श्यामजी कृष्ण वर्मा, मैडम भीखा जी कामा, वीर सावरकर, वीरेन्द्रनाथ चटोपाध्याय (सरोजिनी नायडू के भाई) और महादेव राव (रासबिहारी बोस के अत्यंत निकटस्थ सहयोगी) जैसे महानुभावो और संगठनों के साथ सम्बन्ध बना लिए। पेरिस से वो स्विट्जरलैंड गए जहाँ उन्होंने एक अंतर्राष्ट्रीय क्रांतिकारी संगठन के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध बना लिए जिसमें दुनिया भर के देशों के क्रांतिकारी शामिल थे और जो एकजुट होकर साम्राज्यवादों शक्तियों के विरुद्ध संघर्ष का सशक्त मंच था। 1913 तक स्विट्जरलैंड में रहने के बाद वो जर्मनी में निवास करने लगे। इस सबके बीच उन्होंने लेनिन और ट्रोटोस्की जैसे साम्यवादी नेताओं और बाद में फासिज्म का प्रतीक बन कर उभरे मुसोलिनी जैसे नेताओं से सम्बन्ध बनाकर भारत की आज़ादी के लिए अपने प्रयास जारी रखे। प्रथम विश्व युद्ध में यूरोप के हालात बिगड़ने लगे थे, इसलिए अपने लक्ष्य के प्रति पूर्ण समर्पण के उद्देश्य से वे ब्राज़ील चले गए। सूफी अम्बाप्रसाद बाद में प्रथम विश्व युद्ध में इरानी राष्ट्रवादियों के साथ अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध करते हुए शहीद हो गए। आज भी उनकी समाधि इरानी नगर शिराज़ में इस प्रतीक्षा में है कि कोई उनके पार्थिव अवशेषों को भारत लाकर भारतमाता के उस वीर पुत्र का माँ से मिलन कराएगा पर अफ़सोस, जिस देश में लोग सूफी अम्बाप्रसाद का नाम ही ना जानते हों, वहां ये अपेक्षा करना भी व्यर्थ है।
ब्राजील में रहते हुए 1918 में वो ग़दर पार्टी के संपर्क में आये और इसके साथ जुड़ कर अहर्निश काम किया| इसी दौरान उन्होंने भगतसिंह को एक पत्र भी लिखा था जिसमें उन्होंने युवा भगत को ब्राजील आकर विभिन्न देशों के क्रांतिकारी संघर्षों के अध्ययन का सुझाव दिया था। भगतसिंह ने उन्हें प्रत्युत्तर में उनसे ये कहते हुए भारत लौटने का आग्रह किया था कि चूँकि देश क्रान्ति के लिए तैयार है, इसलिए उन्हें भारत आकर इस संघर्ष की बागडोर संभालनी चाहिए। 1939 में वे पुनः यूरोप लौटे और क्रान्ति के प्रयासों में संलग्न हो गए। इसी दौरान उनकी भेंट नेताजी सुभाष चन्द्र बोस से हुयी, जिनको उन्होंने हिटलर से मिलवाया और भारत की आज़ादी की लड़ाई में सहायता का आग्रह किया पर बाद में दोनों महानुभावों द्वारा ये अनुभव करने पर कि हिटलर केवल भारतीयों को अंग्रेजों के विरुद्ध इस्तेमाल करना चाहता है, इन्होनें उससे सम्बन्ध समाप्त कर लिए।
इसके बाद वे इटली आये और फ्रेंड्स ऑफ़ इंडिया सोसाइटी की स्थापना की, जिसका उद्देश्य भारत की आज़ादी की लड़ाई में इटली का सहयोग प्राप्त करना था। वो हिन्दुस्तानी और फ़ारसी में रोम रेडियो, जिसे वो आजाद हिन्द रेडियो कहते थे, के जरिये भाषण और कार्यक्रमों का प्रसरण करते थे और श्रोताओं, विशेषकर सैनिकों से अंग्रेजी राज के विरुद्ध खड़े होने का आव्हान करते थे। इसी बीच मोहम्मद शैदाई नामक भारतीय राष्ट्रवादी की सहायता से अजीतसिंह ने इटली द्वारा गिरफ्तार अंग्रेजी सेना के भारतीय सैनिकों को नेता जी की आज़ाद हिन्द फ़ौज की तरफ से अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ने के लिए तैयार करने का बड़ा काम शुरू कर दिया था। उनके संगठनात्मक कौशल, प्रभावी भाषण और जबरदस्त प्रचार के चलते 10,000 से अधिक भारतीय सैनिक अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ने के लिए जी जान से तैयार हो गए। इटली सरकार और अजीतसिंह के बीच ये तय हुआ था कि ये सैनिक अंग्रेजों के विरुद्ध केवल भारत की आज़ादी के लिए भारतीय जमीन पर ही लड़ेंगे और उनका कहीं और उपयोग नहीं किया जायेगा पर राजनैतिक अस्थिरता और इटली की हार के चलते ये योजना असफल हो गयी।
द्वितीय विश्व युद्ध में इटली की हार के बाद मित्र राष्ट्रों की सेनाओं ने 2 मई 1945 को अजीतसिंह को गिरफ्तार कर लिया और मई 1945 से दिसंबर 1946 तक इटली और जर्मनी की विभिन्न जेलों में बंदी जीवन व्यतीत करते हुए उन्हें अंत में लन्दन लाया गया। उनका स्वास्थ्य अनवरत गिरता जा रहा था और जैसे ही ये समाचार भारत पहुंचा, उन्हें मुक्त करने और भारत लाने की आवाजों ने जोर पकड़ना शुरू कर दिया। स्वतंत्रता अब निकट ही थी, 2 सितम्बर 1946 को अंतरिम सरकार कामकाज संभाल चुकी थी, इसलिये अजीतसिंह के पुराने साथियों और कई कांग्रेसी नेताओं ने नेहरु पर उनकी मुक्ति के लिए दवाब बनाना शुरू कर दिया। परिणामतः उन्हें लन्दन में भारतीय दूतावास के अधिकारियों के सुपुर्द कर दिया गया पर नेहरु से प्राप्त निर्देशों के चलते दूतवास ने उन्हें उनके सम्मान में आयोजित कार्यक्रमों और समारोहों में भाग लेने से रोक दिया। अंत में वह दिन भी आ गया जब पूरे 38 वर्ष बाद अजीतसिंह उसी कराची वापस लौटे जिसे वे 1908 में अंग्रेजों के दमनचक्र से बचने के लिए छोड़ गए थे। रेल कर्मचारियों और सामान्य जनता ने उनका भव्य स्वागत किया।
पर उन्होंने अनुभव कर लिया कि उनकी पत्नी हरनाम कौर को अब भी यकीन नहीं है कि वो ही उनके पति हैं। ये स्वाभाविक भी था क्योंकि जब अजीतसिंह देश छोड़ कर गए थे, तब वे मात्र 28 वर्ष के थे और जब वे वापस लौटे, उनकी आयु हो चुकी थी 66 वर्ष। वक़्त तो क्या कुछ नहीं बदल देता, फिर यहाँ तो 38 वर्ष का अन्तराल हो चुका था। इन वर्षों में 40 भाषाओं के ज्ञानी हो चुके थे और यह पहचानना बहुत ही मुश्किल था कि ये वही अजीतसिंह है या कोई और। विश्वास न कर पाने पर हरनाम कौर ने पहचान के लिए कई सवाल पूछे, जिनका सही जवाब मिलने के बाद भी उनकी पत्नी को विश्वास नही हो पाया। होता भी कैसे, लगभाग 40 वर्षों तक जिस व्यक्ति की उन्होंने रात दिन प्रतीक्षा की हो और जिसकी स्मृतियों के सहारे एकाकी और तपस्वी जीवन बिताया हो, वो कैसे मान ले कि उसका वो पति उसके पास आ चुका है। इतिहास उन्हें तो याद रखता है जो उसके प्रमुख पात्र होते हैं पर वह उन पात्रों को बिसरा देता है जिनके सहारे ही प्रमुख पात्र अपना भाग पूरा करते हैं। जब तक हरनाम कौर जी के समर्पण को याद नहीं किया जायेगा, सरदार अजीतसिंह की स्मृति भी अधूरी है क्योंकि ठीक है कि सबकों दूर से क्रान्ति की मशाल दिखाई देती है और वे हाथ भी, जो मशाल को थामे रहते हैं, पर उस मशाल को रौशन तो रखते हैं तिल-सरसों के वे दाने ही, जो कोल्हू में पिस कर उस मशाल की लौ को प्रदीप्त रखने के लिए अपना तेल दे, अपने को निःसत्व कर लेते हैं।
अजीतसिंह भी इस बात को बखूबी जानते थे और इसीलिए एक दिन उन्होंने हरनाम कौर के पैर छूकर उनके प्रति अपना सम्मान व्यक्त किया था। हरनाम कौर ने लगभग पूरा जीवन एकाकी ही बिता दिया, जेठानी के पुत्रों जगतसिंह (जिसकी 11 वर्ष की आयु में मृत्यु हो गयी थी) और भगत सिंह पर अपना प्यार दुलार लुटा कर। वो रोज पूछती थीं कि जगत तेरे चाचा की कोई चिठ्ठी आई है क्या और रोज जगतसिंह अपने सीने पर हाथ मार कर कहता, चाची तू चिंता ना कर, चाचा को ढूंढ़ कर मैं लाऊंगा। पर क्रूर काल का घात हुआ और चाची को दिलासा देने वाला जगतसिंह सबको रोते बिलखते छोड़ कर चला गया। दिन बीते और चाची का सवाल अब अब भगतसिंह से होता कि क्यों भागोवाले, तेरे चाचा का कोई ख़त आया क्या और भगत भी अपने भाई की तरह सीने पर हाथ मार कर कहता, चाची तू चिंता न कर, चाचा को मैं ले कर आऊंगा। ये बच्चे ही उनका सहारा थे वरना वो पहले भी अकेली थीं और पति के लौट कर आने के कुछ दिनों बाद फिर से अकेली हो गयीं। उनकी मृत्यु के बाद उनकी इच्छा के अनुरूप उनका अंतिम संस्कार भगतसिंह की समाधि के पास ही किया गया। उनका बलिदान भी कभी बिसराया नहीं जा सकता।
खैर, हम लोग बात कर रहे थे अजीतसिंह जी की जो कराची के बाद कुछ समय के लिए देहली गए, जहाँ उन्होंने देश के भविष्य के बारे में नेहरु से वार्तालाप किया। 9 अप्रैल 1947 को वो लाहौर गए जहाँ समाज के सभी वर्गों के लोगों द्वारा उनका भावभीना स्वागत किया गया। पर तब तक भारत विभाजन के बीज विषैला वृक्ष बन कर खड़े हो गए थे और हर तरफ हिंसा और मारकाट का बाजार गर्म था। इस सबने उन्हें अन्दर तक तोड़ दिया क्योंकि ये वो भारत नहीं था, ये वो आज़ादी नहीं थी, जिसके लिए उन्होंने और उनके साथियों ने अपने आप को गलाया था और अपना सब कुछ अर्पण कर दिया था। इस सदमें ने उनके ख़राब स्वास्थ्य को और बिगड़ दिया। उन्हें आराम के लिए हिमाचल के पहाड़ी इलाके डलहौजी ले जाया गया, पर स्वास्थ्य बिगड़ता ही गया। 15 अगस्त 1947 को जब सारा भारत आज़ादी की खुशियाँ मना रहा था, स्वतंत्रता की देवी अपने नेत्रों को खोल रही थी, आज़ादी की लड़ाई का ये सेनानी इन शब्दों के साथ अपनी आँखें मूँद रहा था कि भगवान तेरा शुक्रिया, मेरा लक्ष्य पूरा हुआ| डलहौजी के नजदीक पंजपुला में बनी उनकी समाधि हमें हमेशा प्रेरणा देती रहेगी| आश्चर्य कि भारतीयों को पीड़ित करने वाले डलहौजी का नाम अब भी एक स्थान के रूप इस देश में अमर है और अपने को तिल तिल कर गला देने वाले सरदार अजीतसिंह गुमनाम हो गए। जिस देश में सेल्युलर जेल से कोई वास्ता ना होने वाले गाँधी जी के नाम पर वहां पट्टिका लगायी जा सकती है, केदारनाथ जैसे स्थान के सरोवर का नाम गाँधी सरोवर किया जा सकता है, क्या वहां इस डलहौजी का नाम बदलकर अजीतसिंह नगर नहीं होना चाहिए था?
इन पंक्तियों के साथ इस हुतात्मा को कोटि कोटि नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि–
ये क्या समझेंगे कीमत इस आज़ादी की,
इन सबने तो घर पर बैठे आज़ादी पाई है।
कैसे समझाऊँ इन्हें कि तुमने खुद को गला दिया,
तभी अँधेरा मिटा था और नयी रौशनी आई है।