वेदाऽमृतम्

वेदाऽमृतम्



संकल्प शुभ हो 


यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति।


दूरंगमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु॥


विनय- यह मन बड़ा प्रबल है। यह सोते-जागते कभी भी चैन नहीं लेता। जितनी देर मैं जागता रहता हूँ उतनी देर यह कुछ-न-कुछ सोचता हुआ प्रतिक्षण भटकता ही रहता है, कभी भूत की, कभी भविष्यत् की, कभी यहाँ की, कभी वहां की, बड़ी दूर-दूर की, किन्हीं-न-किन्हीं बातों के विषय में लगातार संकल्प-विकल्प करता है और जब मैं सो जाताहूँ, मेरी सब जाग्रत् क्रियाएँ बन्द हो जाती हैं, तब भीयहमन अपने में ही उसी प्रकार काम करता रहता है, कहीं-कहीं के दूर-दूर के स्वप्न देखता-फिरता रहता है, सुषप्तिकाल में भी इसकी वृत्ति बन्द नहीं होती। सचमुच यह कथानक के 'भूत' की तरफचौबीसों घण्टे बड़े वेगसे कुछ-न-कुछ करताही रहता है। अगलेहीक्षण में यह नजाने कितनी दूर जा पहुँचता है। बाह्य प्रकाशका प्रसिद्ध अतितीव्र गतिवेगभीइसके गतिवेग के सामने तुच्छ है । यह आन्तर प्रकाश तो एक क्षण में चाहे कितनी दूर, असंख्यात मील दूर पहुँच सकता है। उस 'भूत' की तरह यह भी क्षण में बड़े-बड़े कार्य पूरे कर सकने वाली एक महान् शक्ति है, परन्तु यह दैव शक्ति है, प्रकाशमय, ज्योतिर्मय शक्ति है। यह आन्तर ज्योति है। बाहर का केवल रुप का प्रकाश ही नहीं, किन्तु शब्द, स्पर्श, गन्ध आदि सभी का प्रकाश हमें हमारे जिन बाह्यकरणों द्वारा हो रहा है, उन सब इन्द्रियरुप ज्योतियों का भी एक ज्योति यह मन है। यह अन्दर का करण है। सबके-सब ज्ञानप्रकाश के साधन इस आन्तर ज्योति में-इस मन में एक हो जाते हैं। यह मन महाशक्ति है, दिव्य ज्योतिर्मय महाशक्ति है। मुझे तो हे प्रभो ! जब इस मन का, इस संकल्पमय दिव्य महाशक्ति का ज्ञान हुआ है तब से मेरा तुमसे अन्य कुछ प्रार्थना करना समाप्त हो गया है, तब से मेरी तुमसे केवल एक प्रार्थनारह गई है, "तुम मुझे इतना बल दो कि मेरा यह मन केवल शुभ-कल्याण-संकल्पों का ही करनेवाला हो जाए।" यह जो मन मुझमें चौबीसों घण्टे कुछ-न-कुछ संकल्पन करता रहता है, उस संकल्प-प्रवाह में एक भी बुरा या अशुभ संकल्प मुझमें न उठे। बस, इतना हो जाएगा तो शेष सब-कुछ स्वयमेव हो जाएगा। तूने इस दिव्य शक्ति को प्रदान करके मुझे सब-कुछ प्रदान कर दिया है। बस, मुझे इतनी शक्ति और दे दे कि मैं तेरे इस यंत्र की दिव्यता को स्थिर रख सकूँ, इस मन द्वारा निरन्तर और दिव्य, शुभ, कल्याणकारी संकल्पों का ही प्रवाह चला सकूँ, कभी अहित चाहनेवाले, गिरानेवाले, अपवित्र, अशिवसंकल्पों को न उठने दूं। बस, हे प्रभो ! तू मेरे मन को इस तरह शिवसंकल्पमय बना दे, इस महाशक्ति को शिव-संकल्पमयी कर दे, फिर मुझे और कुछ नहीं चाहिए और कुछ नहीं चाहिए।


शब्दार्थ-यत्-जो दैवम्-दिव्यशक्तिरुप [मेरामन] जाग्रत:- मेरे जागते हुए दूरं उदैति- दूर-दूर फिरता है और सप्तस्य-मेरे सोते हए उ=भी तत्- जो वह तथैव एति- उसी प्रकार दूर-दूर जाता है, तत्= वह दूरंगमम्-दूरदूर पहुँचनेवाला ज्योतिषां एकं ज्योति:- ज्योतियों की एक ज्योति मे मन:- मेरामन शिव-संकल्पम् सदाशुभही संकल्प करनेवाला अस्तु हो जाए।


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