विनायक दामोदर सावरकर
विनायक दामोदर सावरकर
विनायक दामोदर सावरकर उपाख्य वीर सावरकर भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के अग्रिम पंक्ति के सेनानी और प्रखर राष्ट्रवादी नेता थे। हिन्दू राष्ट्र की राजनीतिक विचारधारा (हिन्दुत्व) को विकसित करने का बहुत बडा श्रेय सावरकर को ही जाता है। वे न केवल स्वाधीनता संग्राम के एक तेजस्वी सेनानी थे, अपितु महान क्रान्तिकारी, चिन्तक, सिद्धहस्त लेखक, कवि, ओजस्वी वक्ता तथा दूरदर्शी राजनेता भी थे। वे एक ऐसे इतिहासकार भी थे जिन्होंने हिन्दू राष्ट्र की विजय के इतिहास को प्रामाणिक ढँग से लिपिबद्ध किया। उन्होंने 1857 के प्रथम स्वातंत्र्य समर का सनसनीखेज व खोजपूर्ण इतिहास लिखकर ब्रिटिश शासन को हिला कर रख दिया था।
8 जुलाई विश्व में तहलका मचानेवाली छलांग, इन्हीं वीर सावरकर की समुद्र में छलांग को स्मरण करने का दिन है| अंग्रेजों के विरुद्ध लड़े गये भारत के स्वाधीनता संग्राम में वीर विनायक दामोदर सावरकर का अद्वितीय योगदान है। उन्होंने अपनी जान जोखिम में डालकर देश ही नहीं, विदेशों में भी क्रांतिकारियों को तैयार किया। इससे अंग्रेजों की नाक में दम हो गया। अतः ब्रिटिश शासन ने उन्हें लंदन में गिरफ्तार कर मोरिया नामक पानी के जहाज से मुंबई भेजा, जिससे उन पर भारत में मुकदमा चलाकर दंड दिया जा सके। पर सावरकर बहुत जीवट के व्यक्ति थे। उन्होंने ब्रिटेन में ही अंतरराष्ट्रीय कानूनों का अध्ययन किया था। 8 जुलाई, 1910 को जब वह जहाज फ्रांस के मार्सेलिस बंदरगाह के पास लंगर डाले खड़ा था, तो उन्होंने एक साहसिक निर्णय लेकर जहाज के सुरक्षाकर्मी से शौच जाने की अनुमति मांगी।
अनुमति पाकर वे शौचालय में घुस गये तथा अपने कपड़ों से दरवाजे के शीशे को ढककर दरवाजा अंदर से अच्छी तरह बंद कर लिया। शौचालय से एक रोशनदान खुले समुद्र की ओर खुलता था। सावरकर ने रोशनदान और अपने शरीर के आकार का सटीक अनुमान किया और समुद्र में छलांग लगा दी। बहुत देर होने पर सुरक्षाकर्मी ने दरवाजा पीटा और कुछ उत्तर न आने पर दरवाजा तोड़ दिया; पर तब तक तो पंछी उड़ चुका था। सुरक्षाकर्मी ने समुद्र की ओर देखा, तो पाया कि सावरकर तैरते हुए फ्रांस के तट की ओर बढ़ रहे हैं। उसने शोर मचाकर अपने साथियों को बुलाया और गोलियां चलानी शुरू कर दीं।
कुछ सैनिक एक छोटी नौका लेकर उनका पीछा करने लगे; पर सावरकर उनकी चिन्ता न करते हुए तेजी से तैरते हुए मार्सेलिस के सागर तट की दीवार पर चढ़कर मार्सेलिस बंदरगाह पर पहुंच गये। उन्होंने स्वयं को फ्रांसीसी पुलिस के हवाले कर वहां राजनीतिक शरण मांगी। अंतरराष्ट्रीय कानून का जानकार होने के कारण उन्हें मालूम था कि उन्होंने फ्रांस में कोई अपराध नहीं किया है, इसलिए फ्रांस की पुलिस उन्हें गिरफ्तार तो कर सकती है; पर किसी अन्य देश की पुलिस को नहीं सौंप सकती। इसलिए उन्होंने यह साहसी पग उठाया था। उन्होंने फ्रांस के तट पर पहुंच कर स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया। तब तक ब्रिटिश पुलिसकर्मी भी वहां पहुंच गये और उन्होंने अपना बंदी वापस मांगा।
सावरकर ने अंतरराष्ट्रीय कानून की जानकारी फ्रांसीसी पुलिस को दी, पर दुर्भाग्य से फ्रांस की पुलिस दबाव में आ गयी। ब्रिटिश पुलिस वालों ने सम्भवतः उन्हें कुछ घूस भी खिला दी। अतः उन्होंने सावरकर को ब्रिटिश पुलिस को सौंप दिया। उन्हें कठोर पहरे में वापस जहाज पर ले जाकर हथकड़ी और बेड़ियों में कस दिया गया। मुंबई पहुंचकर उन पर मुकदमा चलाया गया, जिसमें उन्हें 50 वर्ष कालेपानी की सजा दी गयी।
सावरकर का समुद्र में छलांग लगाकर मार्सेलिस पहुँचने का उपक्रम ब्रिटिशों द्वारा उन्हें अवैध तरीके से पुनः हिरासत में लेने के कारण विफल भले ही रहा हो, फिर भी उनकी इस छलांग का ऐतिहासिक महत्व है और इसके कारण पूरे विश्व में तहलका मच गया। इसके फलस्वरूप जो तीव्र वैश्विक प्रतिक्रिया हुई, उसके चलते पूरे विश्व का ध्यान भारत में चल रहे स्वतंत्रता संग्राम की ओर आकर्षित हुआ। इसका फ्रांस की आंतरिक राजनीति पर दूरगामी परिणाम हुआ। फ्रांस की इस कार्यवाही की उनकी संसद के साथ ही विश्व भर में निंदा हुई और फ्रांस के राष्ट्रपति को त्यागपत्र देना पड़ा।
सावरकर को फिर से फ्रांस सरकार को सौंपा जाए, यह मांग पूरे फ्रांस ही नहीं अपितु पूरे विश्व में हुई। इस तीव्र प्रतिक्रिया से फ्रांस के सार्वभौमत्व को आंच पहुंची और और फ़्रांस में ब्रिटिश सरकार की कार्यवाही के विरोध में आन्दोलन शुरू हो गया जिसका समर्थन विश्व भर के जाने माने लोगों ने किया, जिनमें से कुछ प्रमुख हैं–
1. कार्ल मार्क्स के पौत्र जीन लांग्वे और उनका प्रचंड पाठक वर्ग वाले समाचार पत्र 'एल ह्यूमिनिटी'।
2. मार्सेलिस का महापौर और फ्रांस का महान समाजवादी नेता ज्वारे।
3. मानव अधिकार संघ के अध्यक्ष फ्रांसिस इ प्रेसेन्से।
4. फ्रांस के सभी छोटे-बडे समाचार पत्र।
5. इंग्लैंड के समाचार पत्र 'हेरल्ड ऑफ रिवोल्ट' और उसके युवा संपादक गाय-ए-अल्ड्रेड (इस संपादक को सावरकर की मुक्ति के लिए प्रचार और प्रयत्न करने के कारण डेढ़ वर्ष का कारावास भी भुगतना पडा)
6. सोशल डेमोक्रेटिक दल के प्रमुख हिंडमन और मुखपत्र 'जस्टिस' जिन्होंने ब्रिटिश सरकार की कठोर आलोचना शुरु कर दी। सावरकर को स्वतंत्र करने की मांग इंग्लैंड के 'द मार्निंग पोस्ट' और 'दे डेली न्यूज' ने भी की।
7. सावरकर मुक्तता समिति, लंदन।
8. स्पेन के ब्रिटेन स्थित उप राजदूत मॉनशूर पीएरॉ, लेटिन अमेरिका पेराग्वे देश के राजदूत मॉन्सूर जॉमबा और पुर्तगाल देश के राजदूत।
9. यूरोप के सभी बडे समाचार पत्र, जिनमें स्विट्ज़रलैंड से जर्मन भाषा में प्रकाशित 'डेर वाण्डरर' भी शामिल हैं।
10. यूरोप की सोशलिस्ट कांफ्रेन्स के सितंबर 1910 में कोपनहेगन में आयोजित अधिवेशन में सावरकर को स्वतंत्र कर फ्रांस भेजने का प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित किया गया। इसके प्रस्तावक थे विश्वविख्यात कम्यूनिस्ट क्रांति के महानायक ब्लादिमिर लेनिन। उन्होंने अपने भाषण में कहा कि ”हम मानव मात्र की स्वतंत्रता की मांग करते हैं; इस कारण भारत की स्वतंत्रता के लिए लडने के सावरकर के अधिकार को हमारा पूर्ण समर्थन है। फ्रेंच गणतंत्र को अपनी सार्वभौमिकता की रक्षा के लिए तो सावरकर की स्वतंत्रता का आग्रह करना चाहिए।”
10. जापान के संसद डाएट के सदस्य मोयो।
11. ब्रिटिश राजनेता सर हेनरी कॉटन। सर विपिनचंद्र पाल के घर में 1911 के नववर्ष समारोह में उन्होंने कहा कि 'सामने की दीवार पर सावरकर का चित्र है, सावरकरजी के बौद्धिक धैर्य और स्वदेश भक्ति की मैं प्रशंसा करता हूं। सावरकरजी को विदेश में आश्रय लेने का अधिकार है। मुझे आशा है कि ब्रिटिश सरकार सावरकर को फ्रेंच सरकार को सौंपेगी।” हेनरी कॉटन का यह भाषण जब ब्रिटेन के समाचार पत्रों में छपा तब 'लंदन टाईम्स' ने लिखा कि 'कॉटन की सर पदवी छिन ली जाना चाहिए और उनका निवृति वेतन भी बंद कर दिया जाना चाहिए।”
12. मॅडम कामा, पंडित श्यामजी कृष्ण वर्मा।
13. जर्मनी के सभी समाचार पत्रों ने भी सावरकरजी की अवैध हिरासत की तीव्र आलोचना की। 'बर्लिन पोस्ट' ने इसे अंतर्राष्ट्रीय कानून की बलि निरुपित किया।
14. बेल्जियम और अन्य राष्ट्र।
प्रख्यात व्यक्तियों और समाचार पत्रों द्वारा अनवरत तीव्र आलोचना के कारण ब्रिटेन को झुकना पडा और सावरकर की फ्रांस की भूमि पर किए गए अवैध हिरासत के मामले को अंतर्राष्ट्रीय हेग न्यायलय को सौंपने का करार करना पडा। वहां इसकी विस्तृत चर्चा हुई और ब्रिटिश कार्यवाही की निंदा की गयी; पर सावरकर तो तब तक मुंबई ले जाये जा चुके थे, इसलिए अब कुछ नहीं हो सकता था।
सावरकरजी के इस महान पराक्रम से पूरी दुनिया हिल उठी और भारत को भी विश्व प्रसिद्धि मिली। ऐसे महान पराक्रमी वीर सावरकर के 26 फरवरी 2003 के पुण्य स्मरण दिवस पर भारत की संसद में तैलचित्र को प्रतिष्ठित कर उनके प्रति समग्र राष्ट्र की श्रद्धा अर्पण करने के अवसर पर अत्यंत श्रद्धा एवं प्रसन्नता से तत्कालीन राष्ट्रपति श्री एपीजे कलाम जी ने वीर सावरकर की ऐतिहासिक समुद्र छलांग का उल्लेख कर एक अत्यंत महत्वपूर्ण विचार प्रकट करते हुए कहा था कि ”किसी व्यक्ति के द्वारा राष्ट्रहित महान कार्य किए जाने पर, राष्ट्र को चाहिए कि उस व्यक्ति द्वारा किए गए कार्य को देखें, उसके द्वारा किया गया छोटा काम भी यदि राष्ट्र की दृष्टि से बडा हो तो उस काम का सम्मान करना मेरा कर्तव्य है। अतः आज की मेरी उपस्थिति कर्तव्य के रुप में है।”
स्वाधीन भारत में सावरकर के प्रेमियों ने फ्रांस शासन से इस ऐतिहासिक घटना की स्मृति में बंदरगाह के पास एक स्मारक बनाने का आग्रह किया। सावरकर की इस अदभुत पराक्रमी और विश्व को चमत्कृत कर देनेवाली विश्व प्रसिद्ध छलांग की स्मृति चिरंतन रहे इसके लिए फ्रांस सरकार ने मार्सेलिस में स्मारक निर्माण के लिए स्थान भी 1998 में ही उपलब्ध करा दिया। सर्वप्रथम स्मारक निर्माण के मुद्दे को उठाने वाले थे मुंबई के महापौर रहे रमेश प्रभु और संघ के वयोवृद्ध कार्यकर्ता श्री रामभाऊ बर्वे, जिन्होनें इस संबंध में सावरकर सेवा केंद्र विलेपार्ले (मुंबई) के माध्यम से मार्सेलिस नगर के महापौर के साथ पत्राचार किया और सफलता पाई। मार्सेलिस नगर के महापौर श्री जीन क्लाऊडे ने उनका प्रस्ताव स्वीकारते हुए उन्हें उचित माध्यम यानी भारत सरकार के माध्यम से प्रस्ताव भेजने को कहा।
सावरकर सेवा केंद्र के श्री बर्वे और श्री प्रभु ने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल जी से इस संबंध में अनुरोध किया, जिन्होेंने यह मामला विदेश विभाग को सौंप दिया। परंतु, दुर्भाग्य कि भाजपानीत एनडीए ने एक पत्र भी इस सम्बन्ध में नहीं भेजा और मामला ठंडे बस्ते में चला गया। परंतु, विश्व में तहलका मचा देनेवाली इस छलांग के शताब्दी वर्ष 2010 में यह मुद्दा फिर से चर्चा में आ गया और लोकसभा में भी इस मुद्दे पर चर्चा हुई।
भाजपा ने सरकार से पूछा कि आखिर वह फ्रांस के मारसेल्स शहर में स्वतंत्रता सेनानी वीर सावरकर की प्रतिमा लगाने के लिए फ्रांस सरकार को इजाजत देनें में क्यों टालमटोल क्यों कर रही है। विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने लोकसभा में सरकार से जानना चाहा कि फ्रांस के मारसेल्स शहर के मेयर ने अपने यहां वीर सावरकर की प्रतिमा लगाने के बारे में भारत सरकार को जो पत्र लिखा है उस बारे में वस्तु स्थिति क्या है और इसपर सरकार का क्या रवैया है। यह बात अलग है कि अय्यर जैसे विघ्न संतोषी कुछ लोगों ने इस चर्चा तक का विरोध किया।
सावरकर स्मारक समिति भगूर, जिला नासिक (महाराष्ट्र) के पदाधिकारियों की विदेश मंत्री श्री एस.एम. कृष्णा के साथ इस संबंध में बैठकें भी हुईं पर धरातल पर कुछ हो नहीं पाया। जगह जगह गांधी जी की मूर्तियों का विमोचन कर रहे और गांधी को ही प्रेरणा पुरुष बना बैठे वर्तमान प्रधानमंत्री से भी इस सम्बन्ध में कोई आशा करना व्यर्थ ही दिखता है, क्योंकि गांधी वैश्विक ब्रांड हैं, सावरकर नहीं और वर्तमान प्रधानमंत्री मार्केटिंग के फंडों को बखूबी समझते हैं।
अफ़सोस, आज हम उस मुकाम पर खड़े हैं, जहाँ से इतिहास हमें चुनौती दे रहा है| आज की पीढ़ी सावरकर को लगभग बिसरा चुकी है। धर्मनिरपेक्षता का रोना रोने वालों ने देश में क्रांति का उदघोष करने वालों से अन्याय किया और उनका पूरा इतिहास सामने ही नहीं आने दिया| लाल रंग में रंगे, बिके हुए इतिहासकारों ने क्रांतिकारियों के इतिहास को पूरी तरह विकृत कर दिया | पाठ्य पुस्तकों से उनके जीवन सम्बन्धी लेख हटा दिए गए और हर वो प्रयास किया गया कि इन हुतात्माओं का नाम तक मिटाया जा सके। हमारा सत्ता तंत्र इस महान सेनानी को लोगों की स्मृति से दूर करने के अपने उद्देश्य में लगभग सफल हो गया है| हमारा कर्तव्य है कि हम स्वतंत्रता संग्राम के इस महान योद्धा की स्मृति को अक्षुण रखें| इस महान सेनानी को कोटिशः नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि।