आत्मा और परमात्मा

आत्मा और परमात्मा


अन्ति सन्तं न जहात्यन्ति सन्तं न पश्यति ।
देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीर्यति ॥


        भावार्थ :- मनुष्य समीप रहनेवाले परमात्मा अथवा अपने आत्मा को नहीं देखता है । उस पास रहनेवाले को छोड़ भी नहीं सकता । हे मनुष्य ! ईश्वर के काव्य वेद को देख , वह न पुराना होता है और न मरता है । आत्मा और परमात्मा इतने सूक्ष्म हैं कि बिना विशेष ज्ञान के उनके दर्शन होने असम्भव हैं , किन्तु अदृश्य होने से कोई उनका त्याग भी नहीं कर सकता । उनका ज्ञान प्राप्त करने के लिए परमगुरु परमात्मा की रचना वेद को पढ़ना - विचारना चाहिए ।


         विशेष:- प्रभु का यह काव्य ( रसमय उपदेश ) सदा बना रहता है , कभी विनष्ट नहीं होता , कभी पुराना नहीं होता , अर्थात् वेद परिवर्तन - परिवर्धन न्यूनाधिकता से रहित है और उसका लोप कभी नहीं होता । वह सदा नया बना रहता है।आर्यसमाज का मूलाधार धर्म पुस्तक ईश्वरीय ज्ञान वेद है, जैसा कि आर्यसमाज के तीसरे नियम में स्पष्ट है- ' वेद सब सत्यविद्याओं का पुस्तक है , वेद का पढ़ना पढ़ाना और सुनना सुनाना सब आायों का परम धर्म है ।' अत : आर्यसमाज भी ईश्वरीय ज्ञान वेद के साथ साथ सदा ही अमर है ।


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