अदीन होकर जिएँ
अदीन होकर जिएँ
यजुर्वेद में एक मन्त्र आया है जिसका चिन्तन हम उपस्थान मन्त्रों के अन्तर्गत सन्ध्या में भी करते हैं-तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छक्रमुच्चरत्। पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं शृणुयाम शरदः शतं प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात्॥ (यजु० 36-24) (तत्) वह (चक्षुः) सब पदार्थों के तत्त्व का दर्शक वेदज्ञान, जो (देवहितम्) देवों में निहित होता है और देवों के लिए हितकर होता है, जो (शुक्रम्) सर्वतः देदीप्यमान है, शुद्ध है, निर्धान्त है, वह वेदज्ञान (पुरस्तात्) सृष्टि के आरंभ में (उच्चरत) उच्चारण किया गया। (पुरस्तात्) वेदज्ञान के सृष्टि के आरंभ में दिए जाने की आवश्यकता स्पष्ट है। मनुष्य का ज्ञान नैमित्तिक है-'यदि उसे ज्ञान न दिया जाए तो वह उसे स्वयं विकसित कर लेगा' ऐसी संभावना नहीं है। गूंगी-बहरी दासियों के वन में पाले गए बच्चे केवल मैं-मैं करना ही सीखे, क्योंकि उनके समीप बकरियां बन्धी थीं। वेद से प्राचीन कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। इन दोनों तथ्यों से यही परिणाम प्राप्त होता है कि 'वेदज्ञान सृष्टि के आरंभ में दिया गया।' (देवहितम्) प्रभु ने इस वेदज्ञान को देवों के हृदय में स्थापित किया जो श्रेष्ठ व निर्दोष थे, उन्हीं के हदयों में वेदज्ञान का प्रादुर्भाव हुआ। यह वेदज्ञान देवों को ही हितकर होता है। जो उस वेदज्ञान को प्राप्त करते हैं-उन्हीं देवों को इसका लाभ प्राप्त होता है। हम (शरदः शतम) सौ के सौ वर्ष पर्यन्त (पश्येम) इस वेदज्ञान को देखें। हम वेदों को पढ़ें, इनका नियमित स्वाध्याय करें। (शरदः शतम) सौ के सौ वर्ष पर्यन्त (जीवेम्) इन वेदों ही के अनुसार जीने का प्रयत्न करें, अर्थात् अपने जीवन को वेदानुसार बनाने के लिए यत्नशील हों। वेद को अपने जीवन में घटाने की कोशिश करना ही अपने जीवन को वेद पढ़ाना है। वेद को जीने का प्रयत्न करेंगे तभी लाभ होगा। (शरदः शतम्) सौ वर्ष पर्यन्त (शणुयाम) हम इन वेदों को सुनें तथा (शरदः शतम) सौ वर्ष पर्यन्त इन वेदों का ही (प्रब्रवाम) प्रवचन करें अर्थात वेदोपदेश को सुनें आर सुनाए। शुभ की कथा शभ पभाव को उत्पन्न करेगी हो। महर्षि ने इन्हीं शब्दों को ध्यान में रखते हुए इसे परमधर्म माना कि वे वेद पढ़ें (पश्येम) पढ़ाएं (जीवेम) सुनें (शृणुयाम) सुनाएं (प्रब्रवाम) इस प्रकार वेदज्ञान का हमारे जीवनों पर यह परिणाम हो कि हम (शरदः शतम्) सौ के सौ वर्ष पर्यन्त (अदीनाः स्याम) अदीन हो। हम में हीनता की भावना न हो। हम कृपण व अनात्मज्ञ न हो। अपनी महिमा को अनुभव करें। व्यवहारिक जगत् में न दबें, न दबाएँ, न खुशामद करें और न ही खुशामद पसन्द हों (शरदः शतात् भूय: च) सौ से अधिक वर्ष भी हमार जीवन इसी प्रकार वेद के पढ़ने-पढ़ाने व सुनने-सुनाने में व्यतीत हों और हम अदीन बने रहें। हमें सच्ची शान्ति इसी प्रकार प्राप्त होगी। वेदज्ञान ही मौलिक शान्ति देने वाला है।
यहां इस मन्त्र का मुख्यतः यही भाव लिया गया है कि हम वेद को पढ़ें और फिर उसी का उपदेश करें और उसी को पढ़ाएं....ब्रम्हचारी जब अपनी शिक्षा पूरी करके गुरुकुल से निकलता था तो आचार्य उसे बहुत से महत्त्वपूर्ण आदेश देता था, उसी में से एक आदेश है कि-स्वाध्यप्रवचनाभ्याम् न प्रमदितव्यम्। अर्थात् वेद को पढ़ने में और उसका उपदेश देने में कभी प्रमाद न करे। यही अपनी वाणी का सबसे अच्छा उपयोग है कि भद्रं प्रववाम् हम अपनी वाणी का भद्रतापूर्ण उपयोग करें। अपने जीवन को भद्र बनाएं और फिर उसी भद्रता का प्रचार-प्रसार भी करें। वेदाज्ञा के विपरीत जीवन जीना तथा वेद के विपरीत उपदेश देना अपराध है। उससे वाणी तो दूषित होती ही है मगर साथ ही व्यक्ति पापी हो जाता है-अनृतं तद् वाचः छिद्रम्। अनृत बोलने वाला अपवित्र हो जाता है, वह तेजरहित हो जाता है, वह पापी हो जाता है। वेद वाणी को जब हम अपने जीवन में आत्मसात् करेंगे तो हमारा जीवन सुमहान् बनेगा। वेद का आदेश है कि हम सौ वर्ष जीने की कामना करें। वह कामना हमारी तभी पूरी होगी यदि हम अपना जीवन वेद की शिक्षाओं के अनुरूप बनाएंगे। वेद का आदेश भी यही है कि हम उसके विपरीत कर्म न करें-संश्रुतेन गमेमहि मा श्रुतेन विराधिसी०
वह व्यक्ति निश्चित ही अदीन होकर ही जीवन व्यतीत करेगा जिसका जीवन वेदानुसार नहीं होगा। अतः प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए कि वह वेदानुसार अपना जीवन व्यतीत करने का संकल्प ले, क्योंकि वेद-स्वाध्याय से उसका जीवन आत्मविश्वास से परिपूर्ण होगा तथा वह स्वयं को दीन-हीन नहीं समझेगा। उसे अपनी सामर्थ्य आदि का पता चलेगा कि आत्मा कितनी बलवान् एवं सामर्थ्यवान् है। ऐसा व्यक्ति जीवन में कभी किसी से भी दबेगा नहीं, क्योंकि उसका जीवन पावनता से परिपूर्ण होगा। संसार में व्यक्ति चार दोषों के कारण किसी से दबता है-अज्ञान दोष से, अभाव दोष से अर्थात् जिसका अपने मन पर संयम न हो, चरित्र दोष से या फिर स्वार्थ दोष से, जिसने वेदानुसार अपना जीवन व्यतीत किया हो, उसमें निश्चित ये चारों दोष नहीं आ सकते हैं। वह अपनी कर्मेन्द्रियों, ज्ञानेन्द्रियों तथा मन, बुद्धि और आदि का सदुपयोग करके अपने भीतर श्रेष्ठता का आधान करेगा। वह दैविक सम्पदा से परिपूर्ण हो जाएगा, वह पूर्णतः सुक्रतु बन जाएगा। वह तो प्रभु से यही कामना करेगा कि-पृष्ठेषु रयिं एरयत्। मुझे ऐसी श्रेष्ठ सम्पदा दें जिससे मेरा तेज बढ़े और मैं यशस्वी बनूँ तथा ब्रह्मवर्चस् को प्राप्त करूँ। यद् वीळाविन्द्र यत् स्थिरे यत्पर्शाने पराभृतम्। वसु स्पार्ह तदा भर।। (ऋ० 8-45-41) प्रभु हमें भौतिक धन तो दे ही मगर विशेष याचना है कि आप हमें वह ऐश्वर्य दीजिए जो दृढ़ पुरुषों को देते हो, जो विचारशील मनीषियों को देते हो और जो स्थिर-चित्तवाले महापुरुषों को देते हो।
वास्तव में यही असली सम्पदा और ऐश्वर्य है। गीता में श्रीकृष्ण जी ने (16-1 से 3) निर्भयता, अन्त:करण की शुद्धि, ज्ञान और योग में निष्ठा, दान, दम, यज्ञ, स्वाध्याय, तप, सरलता, अंहिसा, सत्य, अक्रोध, त्याग, शान्ति, अपैशुनम्-दूसरों में दोष न ढूंढना, प्राणियों पर दया, लोभ न होना, स्वभाव में मृदुता-कोमलता, लज्जाशीलता, तेज, क्षमा, धैर्य, पवित्रता, द्वैष न होना तथा अत्यन्त अभिमान न होना-ये 26 गुण 'दैवी-सम्पदा' बताई हैआसुरी अवगुण तो छः ही बताए हैं, मगर 6 से 20 श्लोकों में आसुरी लोगों की दुर्गति का भयानक चित्रण किया है। महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने अपने ग्रन्थ 'सत्यार्थप्रकाश' (नवम् समुल्लास) में षट्-सम्पत्ति के रूप में जो सम्पदा बताई है वह इस प्रकार है-शम अर्थात् अन्त:करण की पवित्रता, दम अर्थात् जितेन्द्रियता, उपरति अर्थात् दुष्टों से सदा दूर रहना, तितिक्षा अर्थात् निन्दा, स्तुति, हानि-लाभ तथा हर्ष-शोक को छोड़कर सदा मुक्ति साधनों में लगे रहना, श्रद्धा अर्थात् सत्य, धर्म और परमात्मा के प्रति श्रद्धान्वित रहना और समाधान अर्थात् चित्त की एकाग्रता। यही व्यक्ति की वास्तविक सम्पदाएं हैं और इन्हीं से व्यक्ति को पूर्णता प्राप्त होती है। वेद में चार प्रश्न और उनके बहुत ही सार्थक उत्तर दिए गए हैं (ऋ० 1-164-34, 35) पहला प्रश्न है कि पृथिवी का अन्तिम सिरा कहां है अर्थात् मानव जीवन लक्ष्य क्या है? इसका उत्तर दिया गया-इयं वेदिः अर्थात् हमारा जीवन ही यज्ञवेदी बन जाए, वेद में पृथिवी को देवयजनि कहा है। दूसरा प्रश्न है कि सारे ब्रह्माण्ड की नाभि कहां है? इसका उत्तर दिया-अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः। अर्थात् यह जो यज्ञ की भावना अर्थात् त्याग व 'इदम् न मम्' की भावना है इसी से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड गतिमान् है। तीसरा प्रश्न है कि तेजस्वी पुरुष की शक्ति किसमें है? इसका उत्तर दिया-अयं सोमः। व्यक्ति के भीतर यह जो तेज है, . श्री है और ब्रह्मवर्चस् है यह सब उसी परमात्मा के पा जाने में है। चौथा व अन्तिम प्रश्न किया कि वाणी का परम-व्योम् क्या है? इसका उत्तर दिया-ब्रह्म अयं... आकाश का भी आकाश वह सर्वव्यापक परमात्मा ही हैअतः उसी को जानो बस फिर आप स्वतः ही पूर्णतः अदीन हो जाएंगे।