मनुष्य की मित्रता के बारे में
एक व्यक्ति ने अपने मित्र से कहा, मैं आपसे बहुत प्रेम करता हूं। उसने पूछा कि "क्यों करते हो?" तो पहले व्यक्ति ने उत्तर दिया, मैं नहीं जानता, कि मैं आपसे प्रेम क्यों करता हूं। उसके इस कथन में यह तो स्पष्ट है कि वह अपने मित्र से प्रेम करता है, किसी न किसी गुण के कारण ही करता होगा। क्योंकि गुणों का ही संसार में सम्मान होता है, गुणों के कारण ही प्रेम होता है। वह इतना तो समझता है, कि इस मित्र में कुछ गुण हैं। परंतु कौन से गुण हैं, कितने गुण हैं, उनको स्पष्टता से नहीं समझ रहा, और बता नहीं पा रहा कि "मैं किन गुणों के कारण आप से प्रेम करता हूं।"
लेकिन यदि कोई ऐसा कहे कि मैं अमुक व्यक्ति से बहुत घृणा करता हूं। तो घृणा का कारण पूछने पर वह स्पष्ट बता देता है कि, अमुक व्यक्ति में यह दोष है, इस दोष के कारण मैं उस से घृणा करता हूं। उसके इस उत्तर से पता चलता है कि जब कोई व्यक्ति, किसी दूसरे से प्रेम करता है तो अनेक बार वह कारण को स्पष्ट नहीं कर पाता। परंतु जब घृणा करता है, तो स्पष्टता से उत्तर देता है कि "मैं इन दोषों के कारण घृणा करता हूं।"
इससे यह पता चला कि प्रेम उतना अभिव्यक्ति कारक नहीं है, जितनी की घृणा। इसलिए यदि आप किसी से प्रेम करते हैं, तो उसका कारण - उसके गुणों को भी समझें, पहचानें। आवश्यकता पड़ने पर उन गुणों को बताएं भी, कि मैं इन गुणों के कारण आपसे प्रेम करता हूं. जैसे घृणा का कारण स्पष्टता से बतला पाते हैं।
बल्कि हो सके, तो उन गुणों को अवश्य पहचानें, जिनके कारण आप उस से प्रेम करते हैं।*
और घृणा तो न ही करें, क्योंकि यह हानिकारक है। घृणा करने से दूसरे की हानि तो नहीं होती, या कम होती है, बल्कि अपनी हानि अधिक होती है। तो बुद्धिमान व्यक्ति को अपनी हानि नहीं करनी चाहिए, इसलिये गुणों के कारण दूसरों से प्रेम अवश्य करें, घृणा नहीं। - स्वामी विवेकानंद परिव्राजक