सूर्य चिकित्सा के वारे में

सूर्य किरण से नाना प्रकार के कीटाणु नष्ट हो जाते हैं। वाष्प स्नान से जो लाभ होता है वही लाभ धूप स्नान से होता है। धूप स्नान से रोम कूप खुल जाते हैं और शरीर से पर्याप्त मात्रा में पसीना निकलता है और शरीर के अन्दर का दूषित पदार्थ गल कर बाहर निकल जाता है। जिससे स्वास्थ्य सुधर जाता है।


जिन गायों को बाहर धूप में घूमने नहीं दिया जाता है और सारे दिन घर में ही रख कर खिलाया-पिलाया जाता है, उनके दुग्ध में विटामिन डी विशेष मात्रा में नहीं पाया जाता है।


उदय काल का सूर्य निखिल विश्व का प्राण है। प्राणःप्रजानामुदयत्येष सूर्यः प्राणोपनिषद् 1/8 सूर्य प्रजाओं का प्राण बन कर उदय होता है।


अथर्ववेद में सूर्य किरणों से रोग दूर करने की चर्चा है। अथर्ववेद काँड 1 सूक्त 22 में-


अनुसूर्यमुदयताँ हृदयोतो हरिमा चते। गौ रोहितस्य वर्णन तेन त्वा परिद्धयसि॥ 1॥


अर्थ- हे रोगाक्राँत व्यक्ति। तेरा हृदय धड़कन, हृदयदाह आदि रोग और पाँडुरोग सूर्य के उदय होने के साथ ही नष्ट हो जायं। सूर्य के लाल रंग वाले उदयकाल के सूर्य के उस उदय कालिक रंग से भरपूर करते हैं।


इस मंत्र में सूर्य की रक्त वर्ण की किरणों को हृदय रोग के नाश करने के लिए प्रयोग करने का उपदेश है। सूर्य किरण चिकित्सा के अनुसार कामला और हृदयरोग के रोगी को सूर्य की किरणों में रखे लाल काँच के पात्र में रखे जल को पिलाने का उपदेश है।


“परित्वा रोहितेर्वर्णेदीर्घायुत्वाय दम्पत्ति। यथायमरपा असदथो अहरितो भुवत्॥ 2॥


अर्थ- हे पाँडुरोग से पीड़ित व्यक्ति। दीर्घायु प्राप्त कराने के लिए तेरे चारों ओर सूर्य की किरणों से लाल प्रकाश युक्त आवरणों में तुझे रखते हैं जिससे यह तू रोगी पाप के फलस्वरूप रोग रहित हो जाय और जिससे तू पाँडुरोग से भी मुक्त हो जाय।


ऐसे रोगियों को नारंगी, सन्तरे, सेब, अंगूर आदि फलों को खिलाने तथा गुलाबी रंग के पुष्पों से विनोद कराना भी अच्छा है।


या रोहिणी दैवत्या गावो या उत रोहिणीः। रुपं रुपं वयोवयस्तामिष्ट्रवा परिदध्यसि॥ 3॥


अर्थ- जो देव, प्रकाश सूर्य की प्रातःकालीन रक्त वर्ण की किरणें हैं और जो लाल वर्ण की कपिला गायें हैं या उगने वाली औषधियाँ हैं उनके भीतर विद्यमान कान्तिजनक चमक को और दीर्घायु जनक उन द्वारा तुझको सब प्रकार से परिपुष्ट करते हैं।


हृदयरोग के सम्बन्ध में वाव्यटूट अष्ठग संग्रह हृदय रोग निदान अ. 5 में लिखते हैं, पाँच प्रकार का हृदय रोग होता है वातज, पितज, कफज, त्रिदोषज और कृमियों से। इनके भिन्न-2 लक्षण प्रकट होते हैं। इसी प्रकार पाँडुरोग का एक विकृत रूप हलीमक है। उसमें शरीर हरा, नीला, पीला हो जाता है। उसके सिर में चक्कर, प्यास, निद्रानाश, अजीर्ण और ज्वर आदि दोष अधिक हो जाते हैं। इनकी चिकित्सा में रोहिणी और हारिद्रव और गौक्षीर का प्रयोग दर्शाया गया है। रोहित रोहिणी, रोपणाका, यह एक ही वर्ग प्रतीत होता है। हारिद्रव हल्दी और इसके समान अन्य गाँठ वाली औषधियों का ग्रहण है। शुक भी एक वृक्ष वर्ग का वाचक है।


अथर्ववेद काण्ड 6, सूक्त 83 में गंडमाला रोग को सूर्य से चिकित्सा करने का वर्णन है।


अपचितः प्रपतत सुपर्णों वसतेरिव। सूर्यः कृणोतु भेषजं चन्द्रमा वो पोच्छतु॥


(अथर्व. 6। 83।1)


अर्थ- हे गंडमाला ग्रन्थियों। घोंसले से उड़ जाने वाले पक्षी के समान शीघ्र दूर हो जाओ। सूर्य चिकित्सा करे अथवा चन्द्रमा इनको दूर करे।


यहाँ सूर्य की किरणों से गंडमाला की चिकित्सा करने का उपदेश है। नीले रंग की बोतल से रक्त विकार के विस्फोटक दूर होते हैं। यही प्रभाव चंद्रालोक का भी है। रात में चन्द्रातप में पड़े जल से प्रातः विस्फोटकों को धोने से उनकी जलन शान्ति होती है और विष नाश होता है।


एन्येका एयेन्येका कृष्णे का रोहिणी वेद। सर्वासामग्रभं नामावीरपूनीरपेतन॥


(अथर्व. 6। 83। 2)


अर्थ- गंडमालाओं में से एक हल्की लाल श्वेत रंग की स्फोटमाला होती है, दूसरी श्वेत फुँसी होती है। तीसरी एक काली फुँसियों वाली होती है। और दो प्रकार की लाल रंग की होती है उनको क्रम से ऐनी, श्येनी, कृष्णा और रोहिणी नाम से कहा जाता है। इन सबका शल्य क्रिया के द्वारा जल द्रव पदार्थ निकालता हूँ। पुरुष का जीवन नाश किये बिना ही दूर हो जाओ।


असूतिका रामायणयऽपचित प्रपतिष्यति। ग्लोरितः प्र प्रतिष्यति स गलुन्तो नशिष्यति ॥


(अथर्व. 6।83।3)


अर्थ- पीव उत्पन्न न करने वाली गंडमाला, रक्तनाड़ियों के मर्म स्थान में होने वाली, ऐसी गंडमाला भी पूर्वोक्त उपचार से विनाश हो जायेगी। इस स्थान से व्रण की पीड़ा भी विनाश हो जायेगी।


वीहि स्वामाहुतिं जुषाणो …


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