तप, त्याग, विद्या, बल और सहिष्णुता का रुप स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज
तप, त्याग, विद्या, बल और सहिष्णुता का रुप स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज
स्वामी स्ततन्त्रानन्द जी महाराज लाला नारायणदत्त जी ठेकेदार नई दिल्ली की कोठी में ठहरे थे। वहाँ श्री स्वामी ईशानन्द जी उनकी सेवा में निरन्तर रहे। उस समय स्वामी जी महाराज से प्रार्थना करने पर कुछ घटनाएँ बताए। उनको ईशानन्द जी ने लिख लिया, स्वामी समर्थ नहीं थे श्री स्वामी वेदानन्द गुरुकुल झज्जर उनके पास जाकर घटनाओं को दिखलाए।
श्री स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज तपस्या में महर्षि दयानन्द सरस्वती से द्वितीय स्थान पर आते हैं। उनके जीवन को उन्होंने अपने जीवन उत्थान में प्रमुखता दी थीजिस प्रकार महर्षि दयानन्द गंगोत्री के उद्गम से कोलकाता तक पैदल विचरण किया था एवं भिक्षा से जीवन निर्वाह किया था उसी प्रकार सात वर्ष तक स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज भी गंगा के तट पर विचरण किया था। सत्यार्थप्रकाश के 11 जिलों का उल्लेख मिलता है सारे ही स्थान स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज ने देखने की उत्सुकता 11 वर्ष तक भ्रमण किया, इसमें उन्हें जो कठिनाई उठानी पड़ी तथा तपस्या करनी पड़ी वह उनके जीवन में उनकी उत्कर्षता का परिचायक हैऋषि दयानन्द के समान ही बर्फ में रहे तथा एक लंगोटी में रहे, उनकी शक्ति का परिचय लाहौर में देखने को मिला।
रंगीला रसूल के प्रकाशक श्री राजपाल को जब एक मुसलमान ने छूरा मारा तब वहाँ गली में स्वामी सत्यानन्द जी और स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी दोनों भी उपस्थित थे, किन्तु इस अप्रत्याशित घटना के होने की किसी को भी संभावना न थीरक्तरंजित छूरा को लेकर जब वह भाग रहा था तब स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज ही थे जो अपनी वीरता को प्रकट करने हेतु उस घातक पर लपके और कलाई इतने जोर से पकड़ी कि चाकू वहीं उससे छूटकर धरती पर जा गिरा, उन्होंने घातक का हाथ छोड़ा ही नहींजहाँ-जहाँ उनको अन्याय को न सहने की ओर इंगित करता है, वहाँ उनकी निडरता का एक ज्वलन्त प्रमाण भी है।
आध्यात्मिक साधना श्री स्वामी जी महाराज की अतुलनीय है। वैराग्य में साधना जोर पकड़ती है, इस साधना से उन्हें आन्तरिक ज्ञान होता थाएक बार स्वामी जी महाराज बीमार हुए। डॉक्टरों ने स्वास्थ्यलाभ की दृष्टि से कश्मीर जाने का परामर्श दिया। स्वामी ईशानन्द जी भी उनके साथ जाने वाले थे, किन्तु स्वामी जी ने वहाँ जाने का विचार छोड़ दिया और अपनी आन्तरिक अभिज्ञान से निर्णय लेकर जीवन की आशा छोड़ दी एवं अपनी दैनन्दिनी में अपने भावी मृत्यु का उल्लेख कर दिया।
श्री महाशय कृष्ण जी उन्हें इस कैंसर से ऋण पाने हेतु जाने का परामर्श दिया। श्री महाराज जी को बचने की बचने की आशा तो न थी किंतु श्री महाशय जी को यह कहकर अपने शिष्टाचार का परिचय दिया कि महाशय जी जब मैंने 1910 से आपकी बात का उल्लंघन नहीं किया तब अब अंतिम काल में आपकी बात का कैसे उल्लंघन करूँ। मुंबई चले गए। सूक्ष्म शरीर स्वामी जी महाराज का अति बलवान था उसी के बल पर अपने क्षेत्र में आगे बढ़ते थे।