वेदज्ञान का स्वरूप

वेदज्ञान का स्वरूप◼
✍🏻 लेखक - पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’


अब हम आदि-ऋषियों को जो ज्ञान प्राप्त हुआ, उसका स्वरूप क्या था? इस विषय पर कुछ प्रकाश डालने का यत्न करते हैं। ज्ञान का क्या स्वरूप है, पहले इस बात को समझ लेना आवश्यक होगा। ज्ञान दो प्रकार का कहा जा सकता है- ▪स्वाभाविकज्ञान तथा ▪नैमित्तिकज्ञान। स्वाभाविक ज्ञान का स्वरूप हमें पशु-पक्षियों में स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा है, जो खाने-पीने, सन्तानक्रिया तथा पालनादि तक ही रहता है । नैमित्तिक ज्ञान वह है, जो बाह्य निमित्त से प्राप्त हो। ईश्वरीयज्ञान स्वाभाविकज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि स्वाभाविकज्ञान से मनुष्य के मस्तिष्क में ऐसी शक्ति उत्पन्न नहीं हो सकती, जिससे वह अपना ज्ञान अधिक विस्तृत कर सके । इसका प्रमाण सब विना पढ़े लिखे और जङ्गली मनुष्य हैं । वे विना सीखे सौ तक गिनना भी नहीं जान सकते। उधर संसार में विस्तृत और विशाल ज्ञान देखने में आता है, अतः हमें कहना पड़ता है कि यह स्वाभाविक ज्ञान का परिणाम नहीं। अतः आदिज्ञान नैमित्तिकज्ञान ही हो सकता है, जो जगदीश्वर ने सृष्टि के प्रादि में ऋषियों के हृदय में प्रकाशित कर दिया वा उनके हृदयों में प्रविष्ट हुआ। उसे हम प्रविष्ट होनेवाला नैमित्तिकज्ञान कह सकते हैं।


यदि हम वेद को हित-अहित के सम्पादन करनेवाले साधनों के बोधक वाक्य, अर्थात् 🔥"हिताहितसाधन-बोधकत्वं वेदत्वम्" ऐसा कह दें, तो इस अवस्था में ऋषि-मुनियों के वाक्य भी हित-अहित साधन को बतलाने वाले हो सकते हैं, जो ईश्वरोक्त नहीं । अत: वेद उस अपौरुषेय (मनुष्योच्चरित से भिन्न) वाक्यसमूह का नाम है, जो हित-अहित साधनों का बोध कराता हो, अर्थात् 🔥"अपौरुषेयत्वे सति हिताहितसाधनबोधकत्वं वेदत्वम्" ऐसा लक्षण करना होगा। यह लक्षण ऋग्, यजुः, साम, अथर्व चारों पर घटित हो जाने से इनको हम वेद कहते हैं। नित्य-शब्दार्थ सम्बन्ध रखनेवाले अपौरुषेय वाक्यसमूह का नाम वेद है, जिसकी वर्णानुपूर्वी, पद तथा स्वर सब नित्य हैं, क्योंकि पुरुष की विद्या अनित्य होने से वेद ही नित्यज्ञान कहा जा सकता है (निरु० १।१), और यही वेद हम तक परम्परा से बराबर यथावत्रूप में पहुंचता चला आ रहा है।


इस विषय में भिन्न-भिन्न विचारधाराओं का उठना अस्वाभाविक
नहीं। इसीलिये कई एक कहते हैं


◾(१) ये वेद उन ऋषियों की ही कृति हैं, जो आदि में हुये या जिनके नाम वेदमन्त्रों के ऊपर अभी तक लिखे चले आ रहे हैं। इसका उत्तर हम पूर्व ही दे चुके हैं कि बिना नैमित्तिकज्ञान के आदि ऋषियों का ज्ञान भी कभी नहीं बढ़ सकता। यदि कहो कि ज्ञान तो वह सब परमात्मा का ही था, ऋषियों ने उसे मन्त्ररूप में, रचा। सो जब ज्ञान ईश्वर का था, रचने की विद्या भी ईश्वर से ही उन्होंने सीखी होगी तो वह ज्ञान ईश्वरीय ज्ञान तो हुआ, इसमें भेद क्या पड़ा? समस्त शब्दार्थ-सम्बन्ध की नित्यता उस नित्य परमेश्वर से ही प्रकाशित होने में उपयुक्त रीति से ठीक बैठती है। अतः वह ज्ञान ऋषियों का नहीं कहा जा सकता। वेद ने भी 🔥"अन्वविन्दन् ऋषिषु प्रविष्टाम्" (ऋ० १०७१।३) ऋषियों में प्रविष्ट हुई को मनुष्य ग्रहण करते हैं, ऐसा कहा।


◾(२) यदि कहा जावे कि ज्ञानमात्र का नाम वेद है, तो प्रश्न होगा कि वह पाया कहाँ से? और उसका स्वरूप क्या है ? क्या सब जीवों के ज्ञान को एकत्रित करने से जो बना, उसका नाम वेद है ? तो यह बात भी ठीक नहीं हो सकती, क्योंकि एक श्रेणी में नौ अयोग्य छात्रों के अपूर्ण ज्ञान को एकत्रित करने से भी वह ज्ञान नहीं बनता, अर्थात् यथार्थरूप में उपलब्ध नहीं हो सकता, जो दसवें एक ही योग्य छात्र द्वारा संगृहीत ज्ञान से हो सकता है।


◾(३) यदि कहो कि वेद में केवल सिद्धान्तों का ही वर्णन है, आगे जीव स्वयं उनका विस्तार कर लेंगे। इसमें इतना तो ठीक है कि मूलभूल सिद्धान्तों का ज्ञान हो जाने से आगे विस्तार हो सकता है, पर आदि में एक बार तो उसके विस्तार करने का ज्ञान भी मिलना ही चाहिये।


◾(४) कोई कहते हैं कि मन्त्रों पर लिखे हुये ऋषियों ने ही वेदों को बनाया, वे ही उस-उस मन्त्र के कर्ता हैं, उन्होंने क्रमशः उन्नति करते. करते बहुतसा ज्ञान मन्त्रों सहित पा लिया होगा। वे ही मन्त्र पिछले ऋषियों ने या वेदव्यास ने संग्रह करके ऋग, यजुः, साम, अथर्व नाम की चार संहिताओं के रूप में हमारे पास पहुंचाये होंगे। कालचक्र से जब मनुष्य पिछले ऋषि-मुनियों के ज्ञान को समझने में अशक्त हुये, तब कहने लगे वेदों में अपूर्व अलौकिक ज्ञान है । इन मन्त्रों की रचना करना मनुष्य की शक्ति से बाहिर है, इत्यादि ।


इसका उत्तर यही है कि विना नैमित्तिक ज्ञान के स्वाभाविक बुद्धि से ही ज्ञान की वृद्धि कदापि नहीं हो सकती, यह ऊपर पर्याप्त कहा जा चुका है। जब समस्त ऋषि-मुनि स्वयं इन वेदों को अपौरुषेय अर्थात उस परम देव जगदीश्वर की रचना वा कृति बतला रहे हैं, तो फिर यों ही कहते जाना कि ऋषियों के बनाये हैं, कहाँ तक सङ्गत कहा जा सकता है। इस विषय में ऋषियों के वचन हम आगे उपस्थित करेंगे। जब इन कर्ता कहे जानेवाले, मन्त्रों पर लिखे, ऋषियों के पूर्वजों के काल में भी वेद विद्य मान था, स्वयं वेदव्यास से बहुत पहले वेद एक नहीं चतुर्धा विद्यमान था, तो उन ऋषियों ने या व्यासजी ने वेद बनाये वा संग्रह किया वा विभाग किया, यह सब अप्रमाण ही सिद्ध होता है। इसका अधिक निरूपण हम आगे चल कर करेंगे।


◾(५) जो महानुभाव वेद की ज्ञानात्मकता का प्रतिपादन करते हैं, वे कहते हैं कि ज्ञान और आत्मा परस्पर अभिन्न एकात्मक हैं। ज्ञान की श्रेणी मनन्त वेद का एक भाग ही तो है। उनकी ज्ञानात्मकता में यह दोष पड़ता है कि जब ब्रह्म से अतिरिक्त और कोई पदार्थ वे स्वीकार ही नहीं करते, तो वह ज्ञान है किसका? इसलिये उनका यह पक्ष ग्राह्य नहीं हो सकता। ईश्वर, जीव, प्रकृति के विषय में सप्रमाण हम प्रारम्भ में कह चुके हैं । अत: यहाँ इतना निर्देश करना ही पर्याप्त होगा।


◾(६) बहुत से यह भी कहते हैं कि "अनन्ता वै वेदा:", ज्ञान अनन्त है, एक छोटे से ग्रन्थ में सम्पूर्ण ज्ञान आ ही कैसे सकता है ? अतः यही समझना चाहिये कि सृष्टि के आदि में जो ज्ञान मिला, वह चूकि वेद का अंश है, अतः वेद है और उस अनन्त वेद में प्रविष्ट होने का साधन है, न कि सम्पूर्ण वेद । इन चार संहितात्रों को जो वेद कहा जाता है, इसका यह अभिप्राय नहीं कि बस वेद इतना ही है, क्योंकि "अनन्ता वै वेदाः" यह वचन इसमें प्रमाण है और विचार करने पर भी यही समझ में आता है कि ज्ञान की कोई सीमा नहीं हो सकती, इत्यादि ।


पूर्वपक्षी का यह कथन भी युक्त नहीं, क्योंकि अनन्त प्रभु का ज्ञान भी अनन्त है, यदि इसको लेकर कहा जावे तो ठीक है। परन्तु वेद का ज्ञान तो है ही उतना जितना कि जीवों के लिये अपेक्षित है। वेद ईश्वर का सम्पूर्ण ज्ञान नहीं। ईश्वर की दृष्टि में वह ज्ञान अनन्त नहीं हो सकता। सृष्टि के आदि में जितना ज्ञान जीवों के लिये आवश्यक था और जो परमात्मा के द्वारा दिया गया, हम उसे ही ईश्वरीयज्ञान वेद कहते हैं । स्वयं वेद ने कह दिया कि ऋक-यजुः-साम-अथर्व का ज्ञान परमेश्वर से प्राप्त हुआ। समस्त ऋषि-मुनियों ने इस बात को ही दृढ़तापूर्वक माना है, जिसका वर्णन हम आगे करनेवाले हैं। तो फिर एक वचन "अनन्ता वे वेदाः" को लेकर सारी प्रक्रिया को ही बदल डालना कैसे बुद्धिसङ्गत कहा जा सकता है ? इस वाक्य में भी "अनन्त" शब्द का प्रयोग ओपचारिक है, "अनन्तसखिवत"। 'वेद' शब्द भी वहाँ वैदिक ज्ञान वा वैदिक साहित्य के लिये कहा जा सकता है, क्योंकि वेद के व्याख्यान-शाखा-ब्राह्मण-प्रारण्यक-उपनिषद् आदि-इस वचन के निर्माणकाल में बन चुके थे। वेद चार नहीं, अनन्त हैं, इसका यह अर्थ तो आज तक किसी ने नहीं माना।


वेद के स्वरूप के विषय में इस प्रकार के और भी बहुत से वाद उठ सकते हैं, वा उठाये जा सकते हैं। उनका उत्तर भी दिया जा सकता है। पर यहाँ संक्षेप से इतना ही पर्याप्त होगा।


अब हमें ईश्वरीय ज्ञान के स्वरूप के विषय में इतना तो अवश्य जान लेना चाहिये कि उस में क्या-क्या बातें होनी अनिवार्य हैं, जिससे वह अपौरुषेय ज्ञान अन्यों से पृथक् जाना जा सके। ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करके उसकी ओर से दिया जानेवाला ज्ञान वेद है, ऐसा मान कर यह बात सुगमता से समझ में आ सकती है कि उसमें परमात्मा के सम्पूर्ण गुणों का प्रकाश अवश्य होना चाहिये। दूसरे शब्दों में परमात्मा के किसी गुण के विपरीत वह नहीं होना चाहिये, उसका सृष्टि के आदि में होना आवश्यक है, क्योंकि यदि सृष्टि के आदि में नहीं होता, तो आरम्भ से ही व्यवस्था कैसे चलेगी? सारा व्यवहार कैसे प्रारम्भ होगा? जो सृष्टि के आदि में आरम्भ नहीं हुआ, वह ईश्वरीय ज्ञान नहीं कहला सकता। अब वह ज्ञान यदि बीच-बीच में बदलता रहे, तब भी ठीक नहीं, क्योंकि इससे ईश्वर में अज्ञान वा अपूर्णता सिद्ध होगी। अत: वह ज्ञान पूर्ण और अपरिवर्तनशील होना चाहिये। परमेश्वर के एकरस होने से उसका दिया ज्ञान भी एकरस ही होना आवश्यक है। जैसे सूर्य में किसी प्रकार का अन्धकार वा मैल नहीं रहता, इसी प्रकार यह ज्ञान भी निर्मल तथा सम्पूर्ण विद्याओं से युक्त होना चाहिये, जो सभी जीवों के व्यवहार के लिये आवश्यक हो। प्रत्येक मनुष्य की समझ में न आनेवाले विषयों की विद्याओं का इसमें होना उसका दूषण नहीं, भूषण है।


कहने का भाव यही है कि वह ज्ञान पूर्ण होना चाहिये । अत: वह जीवों की आवश्यकता की पूर्ति के लिये है, अतः अन्त तक वह उनकी आवश्यकताओं को पूरा करता हो । तर्क की कसौटी पर भी पूरा उतरता हो। ऋषि-मुनियों की परम्परा के अनुगत हो। जिसमें किसी जाति वा देशविशेष के लिये नहीं, अपितु सार्वभौम नियमों का प्रतिपादन हो, जो सर्वकाल सर्वदेश में एक जैसा अपेक्षित हो ।


ये सब बातें हों, तभी समझना चाहिये कि वह ईश्वरीय ज्ञान है। इनके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को वेद का परीक्षण करना चाहिये कि ये सब नियम इसमें संघटित होते हैं या नहीं ?


ये सभी नियम वेद में पाये जाते हैं, ऋषि-मुनियों का भी यही सिद्धान्त है, अत एव वैदिधर्मियों ने इस धारणा को स्वीकार किया है।


✍🏻 लेखक - पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु
(जन्म- १४ अक्तूबर १८९२, मृत्यु- २२ दिसम्बर १९६४)
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’


Popular posts from this blog

ब्रह्मचर्य और दिनचर्या

वैदिक धर्म की विशेषताएं 

वर-वधू को आशीर्वाद (गीत)