भारतीय पर्व : नवाचार-विचार
भारतीय पर्व : नवाचार-विचार
प्रवेशिका - विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ 'पंचतंत्र' में मन्दबुद्धि राजकुमारों को बुद्धिमान बनाने के लिए कतिपय बोध-कथायें लिखी गयी है। उनमें से एक कथा की झलक आपको दिखाते हैं। परिवार के चार भाई, तीन बाहर जाकर ज्ञानार्जन से विशेषज्ञ वैज्ञानिक बन गये, एक घर पर अल्पपठित ही रह गया। एक बार किसी पर्व पर चारों, ग्राम में एकत्र हुएअवकाश के क्षणों में चारों जंगल-भ्रमण पर निकल पड़े। तीनों विशेषज्ञ अपनी अपनी योग्यता को बखान करके फूले नहीं समा रहे थे। तभी उन्हें बिखरी पड़ी हई अस्थियाँ दिखाई दी। अस्थि विशेषज्ञ बोला- "मेरे अस्थिज्ञान का कमाल पाच आर उसन उन अस्थियो को व्यवस्थित करके उस पश का ढांचा खड़ा कर दिया, जिसकी वे अस्थियाँ थी। दूसरे रसायनज्ञ भाई ने उस ढाँचे पर मृदा-मांस का लेपन कर दिया। अब वह पशु सही रूप में सामने खड़ा हो गया। तीसरा भाई प्राण-क्रिया विशेषज्ञ बोला- "मैं भी आप लोगों से कछ कम नहीं हूँ। देखिये चुटकी में ही मैं इस पशु में प्राणों का संचार कर देता हू।" चौथा बोला- “भाइयों यहीं पर रुक जाइये। विद्या के अहंकार को भल जाइये।" तीनों भाई ठहरे विषय-वैज्ञानिक वे अपने भोले भाई का परामर्श माने या अहंकार को ताने! नवाचार से परिपूर्ण व्यवहारिक चौथा भाई पेड़ पर चढ़ गया। प्राण-क्रिया विशेषज्ञ भाई ने उस पशु में जैसे ही प्राण-प्रतिष्ठ किये, तो शेर जीवित हो गया; और अपनी क्षुधा को तृप्ति के सहज सलभ तीन-तीन सामने खड़े शिकार देख वह विशेषज्ञों की ओर झपट पड़ा। अस्तु परिस्थिति जन्य नवाचार के बिना कोई भी आविष्कार अधूरा है।राजस्थान में ग्रामीण गृहणियों को धुयें से होने वाले नेत्र रोग व कैंसर से बचाने के लिए धूम्र रहित चूल्हों का आविष्कार किया गया। शासन की ओर से निर्मूल्य या अमूल्य में उन्हें ग्रामीण क्षेत्रों में वितरित किया गया। प्रयोगशाला के पात्रों के लिए चूल्हे सकल थे, किन्तु परिवारों के पात्रों के लिये वे चूल्हे अनुपयुक्त थे। व्यर्थ पड़े रहते थे। एक महिला ने नवाचार बुद्धि का प्रयोग करते हुए चूल्हों के धन ईंधन प्रवेश के पाइप को तोड़कर चौड़ा कर दिया। उसमें अधिक जलावन जाने से वे चूल्हे बड़े पात्रों के लिए उपयोगी हो गये। यह है आविष्कार को नवाचार की देन।
उत्प्रेरिका - विशिष्ट व्यवस्थित ज्ञान ही विज्ञान कहलाता है। वृष्टिकृष्टि-सृष्टि को प्रांजल रूप प्रदान करना इसका कार्य है। वैज्ञानिक-आविष्कारों एवं उनके नवाचारों के भाँति पर्यों के परिष्कारों द्वारा ही मानव सभ्यता का चरमोत्कर्ष संभव हुआ है। पर्व शब्द की व्युत्पत्ति 'पर्व पूरणे' धातु से होती हैं 'पार्वति परयति जनाना नन्देनेति पर्व' अर्थात् जिससे दृढ़ता, पारपूणता, मानवीय आनन्द की वृद्धि हो-वही पर्व कहलाता है। पर्व का सीधा सा अर्थ है - ग्रन्थि या गाँठ । जैसे दूर्वा घास की लम्बाई व रसमयता; अथवा ईंख की रसमयता व मधुरता इनकी गाँठों के कारण होती हैं; उसी प्रकार मानव जाति की ओजस्विता, दीर्घायु एवं सुख सौम्यता इन पर्यों के कारण ही संभव होता है। 'पर्व' शब्द के अन्तर्गत संस्कार एवं उत्सव का सहज समावेश होता है। संस्कार एक व्यक्ति में निखार लाते हैं; पर्व परिवार में सुख सुधार लाते हैं, संस्कार एवं पर्व जब उत्सव बन जाते हैं, तो समाज व राष्ट्र के अंगार के साधन बन जाते हैं। मानवीय मानव पंचायतन में ग्रन्थियों के द्वारा विस्तार व परिष्कार को प्राप्त होता है, जिन्हें हम क्रमशः १-पतितत्व से अस्तित्व, २-अज्ञान से ज्ञान, ३-अन्याय से न्याय, ४-अभाव से भाव (प्रतिष्ठा) ५-अलगाव से लगाव की यात्रा कह सकते हैं।
पर्यों के आविष्कार - उपरोक्त वर्णित नैसर्गिक उत्प्रेरणा ही पर्वो के आविष्कार की आधारशिला है। सृष्टि की उत्पत्ति से ही प्रकृति पादप पशपक्षी मनष्य अस्तित्व में आते हैं। नवजात शिशु अपने रूदन से ही अपने अस्तित्व का घोष करने में लगता है; आँखें खुलते ही वह अज्ञान से ज्ञान के प्रति सजग होता है; किसी भी उपेक्षा के अन्याय को अपेक्षा के नगर को बदलने में वह व्यग्र रहता है। दुग्धादि का अभाव क्षुधा का रूप धारण करता है, इसकी पूर्ति में ही वह अपनी प्रतिष्ठा मानता है, और मातापिता व अन्य पालनकर्ता का अलगाव-पृथक्करण उसे बेचैन कर देता है और इनका लगाव या गले से लगा लिये जाने पर ही उसे चैन मिलता है। ऊपर जिन पाँच उत्प्रेरणाओं का वर्णन किया गया है, वे न केवल नवजात शिशु के जीवन की वांछनीयता है प्रत्युत किशोर, युवा, प्रौढ़ व वृद्ध हर स्त्री-पुरुष की अपरिहार्य आवश्यकता है। इसीलिये मानवीय जीवन को प्रखर प्रफुल्लित परिमार्जित बनाये रखने के लिये भारतीय मनीषियों ने उसके लिये पाँच प्रमुख पर्वो के आविष्कार किये हैं, अर्थात् चिन्तन मनन के साथ उनके विधि-विधान का निर्माण किया है। इन पर्यों को प्रस्तुत तालिका के द्वारा प्रदर्शित करते हैं।
पर्व-आविष्कार के मूलाधार - देवार्चन, ऋतु परिवर्तन, महापुरुष स्मरण, स्नेह-संगठन एवं मंगल आनंद वर्धन पर्वो के मूलाधार है। पृथ्वी बारह महीनों में सूर्य का एक चक्र पूर्ण करती है। जिसे मानव का एक वर्ष कहते हैं। प्रतिवर्ष इन पर्वो की आवृत्ति-पुनरावृत्ति क्रमशः होती रहती हैं, जिनका मूलाधार अनुसन्धानरत ऋषियों ने युक्ति युक्त ढंग से प्रतिपादित किया। ज्योतिष के हिमाद्रि ग्रन्थ के अनुसार "चैत्रे मासि जगद् ब्रह्मा संसर्ज प्रथमेऽहनि। शुक्लपक्षे समग्रन्तु तदा सूर्योदये सति।।" अर्थात् चैत्र मास शुक्ल पक्ष के प्रथम दिन सूर्योदय के समय ब्रह्मा ने जगत् की रचना कीआगे चलकर इस पूर्व परम्परानुसार भारतवासियों के अधिकांश संवत्-चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही आरम्भ किये गये, और राज्याभिषेक आदि के महत्वपूर्ण समारोहों के लिये इसी तिथि को मान्यता दी गयी। नव सम्वतसर या नववर्ष के दिन प्रथम सूर्योदय एवं सृष्टि सृजन का उत्सव पुरातन काल से मनाया जाता रहा है। श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को श्रावणी पर्व मनाया जाता है, जो श्रुति अर्थात् वेद के श्रवण-श्रावण (सुनने-सुनाने) से सम्बन्धित होने के कारण अज्ञान के हनन एवं ज्ञान के ग्रहण की ओर प्रेरित करता है। भारत वर्ष वर्षा बहल एवं कृषि प्रधान देश है। यहाँ की कृषक प्रजा आषाढ़ एवं श्रावण में कृषि-कार्य-कलाप में व्यस्त रहती है। श्रावणी शस्य की जुताई, बुवाई आषाढ़ से प्रारम्भ होकर श्रावण के अन्त तक समाप्त हो जाती है। प्रजा के सभी वर्ग वर्षा ऋतु में विश्राम के क्षणों में वेद-गीता-उपनिषद तथा अन्यान्य उपदेशों का श्रवण सन्त महात्माओं को आमंत्रित करके, करते हैं। व्यावहारिक जीवन के परिष्कार और आध्यात्मिक जीवन के उद्धार के लिए यह ज्ञान बहुत उपयोगी सिद्ध होता है। वर्षा के थमते ही राष्ट्र के सभी वर्ग अपने कर्मक्षेत्र के लिए प्रयाण करने की दृष्टि से आश्विन शुक्ल दशमी पर विजय दशहरा पर्व मनाते हैं। स्वाध्याय-सत्संग कथाओं से उन्होंने अपनी पाँच ज्ञानेन्द्रियों एवं पाँच कमेन्द्रियों,अर्थात् इन दसों के दोषों का हरण एवं दसों दिशाओं में विजय के वरण का लक्ष्य तय कर लिया है। अब उन्हें सांसारिक उपलब्धियों एवं अन्याय पर न्याय की यात्रायें आरंभ करनी है। राष्ट्र रक्षक सेनानायकों को अपने अस्त्र-शस्त्र स्वच्छ सक्रिय व सक्षम बनाने हैं। यही उनका पजन है। यह आवश्यक इसलिये हैं; जैसा कि पुलिस महानिदेशक ने अपने पुलिस बल का निरीक्षण किया, तो पाया उनके अस्त्र-शस्त्र जंग लगे, भण्डार में पड़े हैं, और प्रयोगकर्ता आरक्षियों को निशाना लगाना भी नहीं आता है। यह पर्व आयुध और योद्धाओं की दक्षता की ओर ध्यान आकृष्ट करने के लिए है।
यह विजय दशहरा पर्व वाणिज्य-व्यवसायियों की साफल्य समीक्षा की ओर दिशा-निर्देश करता है जो वे अपने लेखा पुस्तिकाओं का प्रतीक रूप में पूजन या अनुरक्षण की औपचारिकता निभाते हैं। राष्ट्र-रक्षा, कृषि- वाणिज-प्रविधि के विकास से राष्ट्र धन-लक्ष्मी से समृद्ध होता है। श्रावणी (खरीफ) की फसल पक कर घर-भण्डार भर जाने वाले होते हैं। अपने इस हर्ष उत्साह को नागरिक दीपावली के रूप में "तमसो मा ज्योतिर्मय" का भव्य भावना के साथ हर भवन द्वार को प्रज्ज्वलित दीपकों की माला से जगमगा देते हैं। यह दीप मालिका प्रकृति पर मानवीय कृति की विजयलक्ष्मी का प्रतिनिधित्व करती है। सम्पूर्ण वर्ष की- कार्तिक कृष्ण अमावस्या सर्वाधिक गहन अन्धकार वाली होती है। अंधकार को इस दीप मालिका के द्वारा मानव हराकर ज्योति का राज्य स्थापित कर देता है नया फसल के नवधान की प्रफुल्लित खीलों का यज्ञ-देवार्चन में समर्पित करक वह परमेश प्रभु के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करता है। इसीलिये इस पर्व को शारदीय नव सस्येष्टि भी कहते हैं। एक आशंका जो निर्धनता में जितनी रहती हैं, बहु धनवान होने पर बलवती हो जाती है, वह है ईर्ष्या-द्वेषवैमनस्य की आशंका। रबी फसलों की बुवाई होकर जब फसलें अधपकी हो जाती हैं, तभी फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को होली का पर्व मनाया जाता है। अधपके अन्न को भूनने पर उसकी संज्ञा होला या होलक हो जाती है। गली मोहल्लों में सामूहिक यज्ञाग्नि में जौ की बालियाँ भून कर आहूतियाँ दी जाती हैं। यही जौ के दाने परस्पर भेंट करके गले मिलते हैं जिससे प्रेम बढ़े और यदि किसी वैमनस्य से अलगाव हो गया हो तो वह फिर से लगाव में ढल जाये। परिवार-समाज-राष्ट्र विघटन से बचकर संगठन में आबद्ध हो जाये। भाँति भाँति के मिष्ठान-पकवान बनाकर और एक दूसरे के परिवारों में मेल-मिलाप के साथ मिल भेंट कर खाने से प्रेम बढ़ता है। अस्तु इस पर्व मूल शास्त्रीय संज्ञा वासन्ती नव शस्येष्टि सटीक है कवि की यह पंक्तियां ऐसा ही इंगित करती हैं।
होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर लो।
होली है तो आज परिचित से मैत्री कर लो ।
बिसरा कर विष भरे वर्ष के वैर विरोधों को,
होली है तो आज शत्रु को बाहों में भर लो ।
पर्वो के सम् सामयिक नवाचार - विज्ञान तभी गतिमान रहता है, जब वह अपने दोनों पंखों से उड़ान भरता है। किसी भी पक्षी का एक पंख क्रियाशील व दूसरा पंख निष्क्रिय रहता है तो वह उड़ नहीं सकता है। विज्ञान का एक पक्ष है - "आवश्यकता आविष्कार की जननी है" तो दूसरा पक्ष है "उपयोगिता नवाचार की भगिनी है।" जैसा कि पूर्व में कह आये हैं राजस्थान में निःशुल्क वितरित किये जाने वाले धूम्र रहित चूल्हों का शोधपूर्वक निर्माण तो हुआ, प्रयोगशाला में सभी कुछ ठीक ठाक रहा; किन्तु वे व्यवहार में नहीं लाये जा सके। व्यवहार में वे तभी आये जब एक गृहणी ने उसके पतले पाइप को तोड़ कर चौड़ा किया, और उसमें अधिक ईंधन के प्रवेश का प्रावधान कर लिया। विद्वानों ने इस क्रिया को परिभाषित करने के लिए हिन्दी में कई नाम दिये। नवीनीकर नवप्रवर्तन, नवोन्मेष के बाद अब इसके लिए नवाचार ने ही स्थायित्व प्राप्त किया है; जो (INVENTION) तथा (INNOVATION) की भांति ही आविष्कार एवं नवाचार भार-व्यवहार समतल्य प्रतीत होता है। यह सुस्थिर सुख्यात सिद्धांत है कि जीवन का ऐसा कोई अंग-उपांग नहीं है जिसमें आविष्कार व नवाचार की क्रिया का समावेश न हो। सष्टि के आदि से इनका सिलसिला निरन्तर चला आ रहा है। भारतीय पर्यों में इनकी प्रभावशीलता स्पष्ट परिलक्षित है, जिसे विस्तारभय से सारिणी के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। (देखें पृष्ठ २२ पर)
नवाचार के निर्वचन - एक एक वर्ष और उसके संकुल पर पृथक पृथक विचार करने से बहुत विस्तार हो जायेगा। इसलिए सामहिक रूप से बिन्दु वार कुछ तथ्य यहाँ प्रस्तुत किये जाते हैं-
१. सृजन के लिए संयम चाहिये, ज्ञान के स्वाध्याय से टीका का निर्माण होता है, साहस से ही न्याय की स्थापना होती है साविक रहा। पुरुषार्थ से उपार्जित श्री लक्ष्मी की समृद्धि स्वाभिमान प्रदान करती है और पक्षपात रहित सर्वोदय-समभाव ही संगठन का आधार है। उपरोक्त पाँचों पर्वो का पंचामृत व्यक्ति, परिवार, समाज व राष्ट्र की जीवन शक्ति हैं। जिसके बल पर वैदिक काल से आर्यावर्त भारतदेश विश्व का सिरमौर बना रहा।
२. पश्चिम का नववर्ष प्रथम जनवरी को मनाया जाता है, जो प्रकृति ऋतु वातावरण में किसी नवोदय की सूचना नहीं देता है, प्रत्युत असीमित भोग-वासना-मादकता की ओर धकेलता है। नवसम्वतसर पर मनाये जाने वाले नववर्ष से प्रकृति ऋतु वातावरण वसन्त के नवोल्लास से भर जाते हैं। पादप-वनस्पति पुराने पत्तों को त्याग कर नई कोपलें धारण करते हैं। पशु पक्षी सभी हर्षित होते हैं मानव समुदाय भी इस नये वर्ष का सात्विक भावनाओं से सोत्साह स्वागत करता है।
३. जैसा कि सारिणी में संकेत किया गया है। भारतीय नववर्ष पर ही राजाओं के राज्याभिषेक व अन्यान्य शुभ कृत्यों का समारम्भ किया जाता रहा है। कृषि प्रधान भारत देश में चैत्र और आश्विन महीनों का विशेष महत्व है। चैत्र में रबी की तथा आश्विन में खरीफ की फसल पक कर घर आती है। क्रमशः गर्मी एवं सर्दी के परिवर्तन भी प्रारंभ होते हैं। इसीलिए संयमपूर्वक नौ दिन के व्रत उपवास रखे जाते हैं। मातृशक्ति की इसी संयम साधना स्वरूप श्री राम-कृष्ण जैसे महापुरुष भारतभूमि पर अवतरित होते रहे हैं।
४. श्रावणी पर्व से पूर्व हरियाली तीज बाद में कृष्ण जन्माष्टमी अपना यही सन्देश देते हैं कि वृक्षारोपण व वनस्पति की वृद्धि से पर्यावरण के प्रदूषण को दूर करते रहें, और "परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्" ध्येय की पूर्ति हेतु संस्कारवान सन्तान का निर्माण करें। विद्वान ब्राह्मण अपने सद् ज्ञान से यजमान की रक्षा करते हैं, प्रतीक रूप में उनकी कलाई में रक्षा सत्र बांधते रहे हैं. साथ ही यजमान दक्षिणा-दान से ब्राह्मणों की रक्षा करते आये हैंपरस्पर रक्षा व शुभाशीष की भावना से यही क्रम व शभाशीष की भावना से यही क्रम बहिनों ने भाई की कलाई पर राखी बाँध कर आगे बढ़ाया। इतिहास साक्षी है कि भयंकर आपत्काल में, स्नेह-सौहार्द का वातावरण बनाने में राखी का उल्लेखनीय उपयोग हुआ है।
५- विजयादशमी पर रामलीला करके रावण का वध व उसके कागजी स्वरूप के दहन के अभिनय दिखाये जाते हैं। वास्तव में विजयदशमी पर राम ने ऐसा कुछ नहीं किया था। इसे तो पूर्व से ही शौर्य पर्व के रूप में मनाया जाता रहा है। इसी के अनुरूप राम ने इस दिन लंका पर चढ़ाई करने का उद्योग आरंभ किया था। वाल्मीकि एवं संत तुलसीदास द्वारा रचित रामायण में रावण का वध चैत्र मास में ही दर्शाया गया है। रावण वध के बाद ही श्री राम अयोध्या लौट आये थे।
६- अयोध्या में राम के स्वागत में दीपक जलाये जाने की बात सही हो सकती है, पर ये दीपक तभी जलाये गये होंगे जब श्रीराम चैत्र मास में रावण का वध करके अयोध्या लौटे होंगे। कार्तिक कृष्ण अमावस्या की अंधेरी रात्रि में सात्विक ऐश्वर्य-सम्पदा व सुख समृद्धि के अभिनन्दन में घोर तमिस्त्रा को ज्योर्तिमय कर देने के मानवीय आभा-अभियान का प्रदर्शन मात्र है। दीपावली के ये पाँचों पर्व मानवीय स्वास्थ्य, नियम-संयम, प्रभा-प्रदर्शन, गौधन-सम्वर्द्धन एवं बहिन-भाई के मान-मर्यादा के पुञ्ज हैं।
७- वर्ष में प्रकाश ऊर्जा की वृद्धि की दृष्टि से सूर्य के दक्षिणायन से उत्तरायण होने का विशेष महत्व है, जो मकर संक्रांति पर्व पर पू जन-अर्चन एवं व्यंजन वितरण करके प्रकट किया जाता है। इसके बाद वसन्त ऋतु के स्वागत की भूमिका बन जाती है और स्थान-स्थान पर होली की स्थापना की जाती है।
८. प्रज्वलित होली में जौ की आहुतिया देते समय लोग बोलते चले आ रहे हैं "होलिका माता की जय"। इसे लोग हिरण्यकश्यप की बहिन एवं प्रहलाद की बुआ के नाम से जोड़ देते हैं। बहिन होलीका ने भाई हिरण्यकश्यप की सहायता के लिए बालक प्रहलाद को अपनी गोद में लेकर आग में जलाने का प्रयत्न किया था। ऐसी हत्यारी होलिका की यह जय नहीं हैं। वास्तव में यह जय उस भुने अधपके जौ या अन्न की है जिसे होली के नाम से हमने यज्ञ रूप में स्थापित किया देते हए जौ अर्पित करते समय सम्बोधनात्मक 'होलिका माता' का रूप धारण कर लेती है। हम कृतज्ञतापूर्वक उसकी जय बोलते हैं। पर्वो पर महापुरुषों के होने वाले जन्म या निर्वाण भी हमारा मार्गदर्शन करते हैं। पर्वो के यह नवाचार हमारे जीवन में स्फूर्ति के संचार का सुदर्शन चक्र चलाते रहते हैं।